Saturday, July 27, 2024
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117. वक्त की दगा

जब महावतखाँ को खानखाना की कैद के समाचार मिले तो वह दूने उत्साह से भरकर खुर्रम की ओर दौड़ा। महावतखाँ को लगा कि भाग्य ने उसके लिये एक साथ दो-दो सफलतायें पाने का अवसर उपस्थित कर दिया है।

खुर्रम की हालत तो उसी समय पतली हो गयी थी जब उसकी सेनाएं खुर्रम को छोड़कर परवेज से जा मिली थीं किंतु जब खानखाना को कैद कर लिया गया तो खुर्रम की रही सही ताकत भी जाती रही।

महावतखाँ ने चारों ओर से खुर्रम को घेर लिया। उसके हाथी-घोड़े छीन लिये। धीरे-धीरे घेरा उस मुकाम पर पहुँच गया, जहाँ से महावतखाँ किसी भी दिन खुर्रम के डेरे पर आ धमक सकता था।

इस पर खुर्रम ने लानतुल्ला को महावतखाँ से संधि की बात चलाने के लिये भेजा। लानतुल्ला का वास्तविक नाम तो अब्दुल्लाखाँ फिरोज जंग था, उसे जहाँगीर ने लानतुल्ला की उपाधि दी थी। तब से वह लानतुल्ला ही कहलाता था।

लानतुल्ला का मित्र राव रतन हाड़ा इस समय महावतखाँ के लश्कर में था। लानतुल्ला ने उसी के माध्यम से संधि की बात चलाई। महावतखाँ ने लानतुल्ला से कहा- ‘यदि तेरी जगह खानखाना आकर संधि की बात करे और सब कौल करार करे तो मैं संधि करूं।’

लानतुल्ला ने यह बात जाकर खुर्रम को कह सुनाई। खुर्रम को पक्का विश्वास हो गया कि महावतखाँ और खानखाना में कोई न कोई सटपट[1]  अवश्य है। फिर भी अपना बुरा वक्त जानकर खुर्रम ने नीचे दबना ही मुनासिब समझा और खानखाना तथा दाराबखाँ को बाइज्जत अपने सामने पेश करने के आदेश दिये।

लानतुल्ला ने खानखाना और दाराबखाँ की हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ कटवाईं तथा उन्हें नहला धुलाकर भर पेट भोजन करवाया। जब बाप बेटों को खुर्रम के सामने पेश किया गया तो खुर्रम ने अपने स्थान से खड़े होकर उनका स्वागत किया और उन्हें अपने आसन पर बैठाते हुए कहा- ‘मेरे लिये तो आज ईद हुई।’

खानखाना समझ गया कि खुर्रम का कोई न कोई स्वार्थ खानखाना से अटक गया है तभी इतनी लल्लो-चप्पो कर रहा है। उसने खुर्रम को सम्बोधित करके  कहा-

‘बिगरी बात बने नहीं, लाख करौ किन कोय।

रहिमन फाटे दूध को मथे न माखन होय।’

खानखाना का यह भाव देखकर खुर्रम उसके पैरों में गिर गया- ‘आप बड़े हैं, हर तरह से इज्जत पाने के योग्य हैं, मेरे गुनाह मुआफ करें। मुसीबत में अपने ही काम आते हैं।’

खानखाना ने खुर्रम की बजाय अपने पुत्र दाराबखाँ की ओर देखकर हँसते हुए कहा-

‘रहिमन प्रीति न कीजिये, जस खीरा ने कीन।

ऊपर से तो दिल मिला,  भीतर फाँकें  तीन।’

खानखाना की हँसी खुर्रम के कलेजे को चीर गयी फिर भी वह अपनी ही तरह का अकेला मक्कार था। वह जानता था कि खानखाना आसानी से चिकनी चुपड़ी बातों में नहीं आयेगा। उसने कुरान पर हाथ रखकर कसम खाई- ‘मुझे अपने किये पर बेहद अफसोस है। आगे से हमेशा खानखाना की मर्यादा का ख्याल रखा जायेगा। मैं अपने आप को आपके हवाले करता हूँ। मेरी इज्जत आबरू आपके हाथ में है।’

खानखाना ने कुरान को चूमते हुए कहा-

‘रहिमन खोजे ऊख में, जहाँ रसन की खानि।

जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं यही प्रीति में हानि।’[2] 

जब खानखाना किसी भी तरह सीधे मुँह बात करने को तैयार नहीं हुआ तो खुर्रम ने अपने हरम की सारी औरतों को अपने डेरे में बुलवा कर खानखाना के पैरों में डाल दिया- ‘ये सब आपकी बेटियाँ हैं। यदि आप चाहते हैं कि हरामी महावतखाँ इन्हें बेइज्जत करके लूटकर ले जाये तो बेशक आप मेरी मदद न करें।’

खुर्रम का यह बाण सही निशाने पर लगा। पौत्री का शोक विह्वल मुँह देखकर खानखाना पसीज गया। उसके नेत्रों से आंसुओं की धार बह निकली। उसने कहा- ‘बोल शहजादे, इस बूढ़े रहीम से तू क्या चाहता है। रहीम जान देकर भी तेरी इच्छा पूरी करेगा।’

  – ‘ऐसा कुछ करो खानखाना कि मेरे और बादशाह के बीच बात अधिक न बिगड़े और मुझे अधिक न भटकना पड़े।’

खानखाना के आदेश पर लानतुल्ला को महावतखाँ के पास भेजा गया और कहा गया कि वह इधर से खानखाना नदी के कराड़ पर आता है। वहाँ से महावतखाँ नदी के कराड़ पर पहुँचे। दोनों जने बीच नदी में नाव पर बैठ कर सुलह सफाई की बात करेंगे।

अभी लानतुल्ला डेरे से बाहर निकला ही था कि लाल मुहम्मद ने आकर सूचना दी- ‘बादशाही कुमुक नदी पार करके शहजादे के डेरों की ओर बढ़ रही है।

लाल मुहम्मद का संदेश सुनते ही खानखाना डेरे से बाहर निकला। नदी के तट पर महावतखाँ की नावों की हलचल थी और खुर्रम की सेना में चारों ओर भगदड़ मची हुई थी। जिस खानखाना के मैदान में मौजूद रहते हुए कोई सिपाही कभी मोर्चा छोड़कर नहीं भागा था, आज वही सिपाही बिना लड़े ही भाग रहे थे। सिपाही तो उस वक्त तक खानखाना की रिहाई के बारे में जानते तक न थे। वे तो यही समझ रहे थे कि खानखाना हथकड़ी-बेड़ियों में जकड़ा हुआ अपने डेरे में पड़ा है।

एकाएक ही विचित्र स्थिति उत्पन्न होने से खुर्रम की दशा खराब हो गयी। उसके सामने खुसरो का चेहरा घूमने लगा। खुर्रम ने सोचा कि यदि मैं बादशाही सेना के हाथ लग गया तो मेरी भी वही दशा होगी जो एक जमाने में खुसरो की हुई थी। उस समय खुसरो की दुर्दशा करवाने में मैं शामिल था और इस बार मेरी दुर्दशा करने में परवेज और शहरयार पीछे न रहेंगे। यदि जहाँगीर ने किसी तरह रहम करके छोड़ भी दिया तो मलिका नूरजहाँ उसे किसी भी तरह जीवित नहीं छोड़ेंगी।

इन सब बातों पर विचार करते-करते खुर्रम इतना अधीर हुआ कि किसी तरह का मुकाबला न करके चुपचाप भाग खड़ा हुआ। किसी तरह उसने दाराबखाँ को हरम की औरतें लेकर आने के लिये कहा। घबराहट और जल्दबाजी में अपने पलायन की सूचना उसने खानखाना को भी नहीं दी। ऐसी भगदड़ मची कि दाराबखाँ भी बिना यह जाने कि खानखाना कहाँ है, हरम की औरतों को लेकर खुर्रम के पीछे भाग खड़ा हुआ।

महावतखाँ को चढ़कर आया देखकर खानखाना ने उससे मुकाबला करने की तैयारी की किंतु समय इतना कम था कि तलवार हाथ में लेकर घोड़े पर सवार होने के अतिक्ति कुछ नहीं किया जा सकता था।

 खुर्रम और दाराबखाँ को अपने पास न पाकर खानखाना ने मुकाबले का इरादा त्याग दिया। मैदान की स्थिति यह थी कि गिनेचुने सिपाही ही उसके चारों ओर खड़े रह गये थे। खानखाना न तो मोर्चा छोड़कर भाग सकता था और न मुकाबला कर सकता था। आज से पहले खानखाना ने किसी के सामने समर्पण भी नहीं किया था किंतु वक्त ने आज वह समय भी ला दिया।

इस तरह एकाकी छोड़ दिये जाने पर खानखाना घोड़े से नीचे उतर गया। उसने अपनी प्यारी तलवार निज सेवक फहीम[3]  के हाथ में दे दी। जूते उतार दिये और स्वयं नंगे पाँव महावतखाँ की ओर चल दिया। फहीम ने कहा- ‘मालिक! महावतखाँ विश्वास के योग्य नहीं है। दगा अवश्यंभावी है।’

खानखाना ने पलट कर कहा- ‘किसी महावतखाँ की औकात नहीं जो खानखाना से दगा करे। दगा तो वक्त ने की है और आगे भी जो करेगा, वक्त ही करेगा।’

– ‘इससे तो बेहतर है कि हथियार पकड़कर बादशाह के हुजूर में चलें।’

– ‘जब बादशाह के नाम पर नूरजहाँ के सामने घुटने टिकाने हैं तो तू यह मान ले कि महावतखाँ ही बादशाह है। तू यह मान ले कि शहजादा परवेज ही बादशाह है। तू यह क्यों नहीं समझता कि बादशाह जहाँगीर नहीं, बादशाह तो वक्त है, जो सबसे ज्यादा क्रूर और दगाबाज है।’

खानखाना का जवाब सुनकर फहीम आँखों में आँसू भर कर खानखाना के पीछे-पीछे चला।


[1] सांठगाँठ। जहाँगीर नामे में स्वयं बादशाह जहाँगीर ने इसी शब्द का प्रयोग किया है।

[2] जो गन्ना रस की खान है, उसमें भी जहाँ-जहाँ गाँठ होती है, रस नहीं होता। प्रेम में भी जहाँ गाँठ पड़ जाती है, वहाँ रस नहीं रहता।

[3] फहीम एक राजपूत युवक था। वह खानखाना का निज सेवक तथा विश्वासपात्र था। वह खानखाना के गुणों पर रीझकर खानखाना की सेवा में रहता था।

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