Saturday, December 7, 2024
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अध्याय – 26 भारतीय संस्कृति में चालुक्यों का योगदान

चालुक्य वंश

चालुक्यों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार वे प्राचीन क्षत्रियों के वंशज थे तो कुछ इतिहासकार उन्हें विदेशियों की संतान बताते हैं। स्मिथ के अनुसार वे विदेशी गुर्जर थे जो राजपूताना से दक्षिण की ओर जा बसे। डॉ. बी. सी. सरकार उन्हें कन्नड़ जातीय मानते हैं जो आगे चलकर स्वयं को क्षत्रिय कहने लगे। चालुक्यों की अनुश्रुतियों में चालुक्यों का मूल स्थान अयोध्या बताया गया है। चालुक्यों ने दक्षिण भारत में पाँचवी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक शासन किया और बहुत ख्याति प्राप्त की।

चालुक्यों की शाखाएँ: दक्षिण भारत के चालुक्यों की तीन प्रमुख शाखाएँ थीं- 1. बादामी (वातापी) के पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य, 2. कल्याणी के उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्य तथा 3. वेंगी के पूर्वी चालुक्य। चालुक्यों की एक शाखा गुजरात अथवा अन्हिलवाड़ा में भी शासन करती थी। ये चालुक्य, दक्षिण के चालुक्यों से अलग थे। कुछ इतिहासकार उन्हें प्राचीन काल में एक ही शाखा से उत्पन्न होना मानते हैं।

बादामी अथवा वातापी के चालुक्य

जिन चालुक्यों ने बीजापुर जिले में स्थित बादामी (वातापी) को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया वे वातापी के चालुक्य कहलाये। इन चालुक्यों ने 550 ई. से 750 ई. तक शासन किया।

आरंभिक शासक: इस वंश का पहला राजा जयसिंह था। वह बड़ा ही वीर तथा साहसी था। उसने राष्ट्रकूटों से महाराष्ट्र छीना था। जयसिंह के बाद रणराज, पुलकेशिन् (प्रथम) कीर्तिवर्मन, मंगलेेेेश आदि कई राजा हुए।

पुलकेशिन् (द्वितीय): इस वंश का सबसे प्रतापी राजा पुलकेशिन् (द्वितीय) था, जिसने 609 ई. से 642 ई. तक सफलतापूर्वक शासन किया। वह अत्यंत महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसने राष्ट्रकूटों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया और कदम्बों के राज्य पर आक्रमण कर उनकी राजधानी वनवासी को लूटा। उसके प्रताप से आंतकित होकर कई पड़ोसी राज्यों ने उसके प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया। पुलकेशिन् की सबसे बड़ी विजय कन्नौज के राजा हर्षवर्धन पर हुई। इससे उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो गई। पल्लवों के साथ भी उसने युद्ध किया। चोलों के राज्य पर भी उसने आक्रमण किया। उसने पाण्ड्य तथा केरल राज्य के राजाओं को भी अपना प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। विदेशी राज्यों के साथ भी पुलकेशिन् ने कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये। उसने फारस के शासक के साथ राजदूतों का आदन-प्रदान किया था। पुलकेशिन् के अन्तिम दिन बड़े कष्ट से बीते। पल्लव राजा नरसिंहवर्मन ने कई बार उसके राज्य पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी वातापी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। सम्भवतः इन्हीं युद्धों में पुलकेशिन् की मृत्यु हो गई।

पुलकेशिन् (द्वितीय) के उत्तराधिकारी: पुलकेशिन् (द्वितीय) के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के लिये संघर्ष हुआ। इस कारण 642 ई. से 655 ई. तक चालुक्य राज्य में कोई भी एकच्छत्र राज्य नहीं रहा। इस वंश में कई निर्बल शासक हुए, जो इसे नष्ट होने से बचा नहीं सके। अन्त में 753 ई. के आस-पास राष्ट्रकूटों ने इस वंश का अन्त कर दिया।

कल्याणी के चालुक्य

753 ई. में राष्ट्रकूटों ने वातापी के चालुक्यों की सत्ता उखाड़ फैंकी किंतु चालुक्यों का समूल नाश नहीं किया। परवर्ती चालुक्य राष्ट्रकूटों के अधीन सामंत के रूप में शासन करने लगे। 950 ई. में चालुक्य सामंत तैलप (द्वितीय) ने राष्ट्रकूटों के राजा कर्क को परास्त करके कल्याणी में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। उसके वंशजों ने 1181 ई. तक शासन किया। इस प्रकार चालुक्यों की जिस शाखा ने 950 ई. से 1181 ई. तक कल्याणी को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया, वे कल्याणी के चालुक्य कहलाते हैं।

तैलप (द्वितीय): तैलप राष्ट्रकूटों का सामन्त था। 950 ई. में परमार सेनाओं ने राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण किया। अवसर पाकर तैलप ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। उसने 47 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया। 997 ई. में तैलप की मृत्यु हुई। तैलप के बाद सत्याश्रय, विक्रमादित्य (पंचम), जयसिंह, सोमेश्वर (प्रथम), सोमेश्वर (द्वितीय) आदि कई राजा हुए।

विक्रमादित्य षष्ठम्: कल्याणी के चालुक्यों में विक्रमादित्य (षष्ठम्) सबसे प्रतापी शासक था। उसने चोल, होयसल तथा वनवासी के राजाओं को परास्त किया। उत्तर भारत में परमारों से उसकी मैत्री थी परन्तु सुराष्ट्र के चालुक्यों के साथ उसका निरन्तर संघर्ष चलता रहता था। विक्रमादित्य बड़ा विद्यानुरागी था। ‘विक्रमांकदेव चरित्र’ के रचियता विल्हण को उसका आश्रय प्राप्त था। उसने बहुत से भवनांे तथा मन्दिरों का निर्माण करवाया। विक्रमादित्य के बाद इस वंश में कई निर्बल राजा हुए, जो इसे पतनोन्मुख होने से नहीं बचा सके। अन्त में 1181 ई. के आसपास देवगिरि के यादवों ने कल्याणी के चालुक्यों का अन्त कर दिया।

वेंगी के चालुक्य

इन्हें पूर्वी चालुक्य भी कहा जाता है क्योंकि इनका राज्य कल्याणी के पूर्व में स्थित था। वातापी के चालुक्य राजा पुलकेशिन (द्वितीय) ने 621 ई. के लगभग आन्ध्र प्रदेश को जीतकर वहां अपने भाई विष्णुवर्धन को प्रशासक नियुक्त किया। विष्णुवर्धन ने इस क्षेत्र में अपने नये राजवंश की स्थापना की। इस राजवंश ने वेंगी को राजधानी बनाकर लगभग 500 वर्षों तक शासन किया। विष्णुवर्धन ने 625 ई. से 633 ई. तक शासन किया। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र जयसिंह (प्रथम) वेंगी के सिंहासन पर बैठा। उसके शासन काल में चालुक्यों के मूल राज्य वातापी पर पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन ने आक्रमण किया। इस युद्ध में पुलकेशिन (द्वितीय) मारा गया। इससे वातापी के चालुक्य कमजोर पड़ गये। उनकी कमजोरी का लाभ उठाकर वेंगी के चालुक्यों ने अपने राज्य का विस्तार करना आरंभ किया। जयसिंह के बाद इन्द्रवर्मन, मंगि, जयसिंह (द्वितीय), विष्णुवर्धन (तृतीय), विजयादित्य (प्रथम), विष्णुवर्धन (चतुर्थ), विजयादित्य (द्वितीय) और (तृतीय), भीम (प्रथम), विजयादित्य (चतुर्थ) एवं अम्म (प्रथम) आदि राजा हुए। 970 ई. में दानार्णव चालुक्यों के सिंहासन पर बैठा। 973 ई. में उसके साले जटाचोड भीम ने उसकी हत्या कर चालुक्यों के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। 999 ई. में राजराज चोल ने वेंगी पर आक्रमण करके वेंगी के राजा जटाचोड भीम को मार डाला और जटाचोड भीम के पूर्ववर्ती राजा दानार्णव के पुत्र शक्तिवर्मन को वेंगी का राजा बनाया। 1063 ई. में कुलोत्तुंग चोल, वेंगी के सिंहासन पर बैठा। उसमें चोलों की अपेक्षा चालुक्य रक्त की प्रधानता थी। अतः उसके शासनकाल में चालुक्य राज्य और चोल राज्य एक ही हो गये। वेंगी के चालुक्यों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया।

चालुक्यों की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

विभिन्न धर्मों को प्रश्रय

चालुक्यों ने दक्षिण भारत में एक विशाल राज्य की स्थापना की तथा उनकी तीन शाखाओं ने दक्षिण में दीर्घ काल तक शासन किया। इसलिये उन्हें कला एवं साहित्य में योगदान देने का विपुल अवसर प्राप्त हुआ।

वैदिक यज्ञों का प्रसार: चालुक्य राजा हिन्दू धर्म के मतावलम्बी थे। उनके समय के साहित्य तथा अभिलेखों में अनेक प्रकार के वैदिक यज्ञों के उल्लेख मिलते हैं। पुलकेशिन (प्रथम) ने अश्वमेध, वाजपेय तथा हिरण्य गर्भ आदि यज्ञ किये। उसके पुत्र कीर्तिवर्मन ने बहुसुवर्ण तथा अग्निष्टोम यज्ञ किया। इस काल में वैदिक यज्ञों के सम्बन्ध में कई ग्रंथों की रचना हुई।

जैन धर्म को सहायता: चालुक्यों के राज्य में हिन्दुओं के बाद जैन धर्मावलम्बी बड़ी संख्या में रहते थे। इसलिये चालुक्यों ने जैन प्रजा की भावनाओं का सम्मान करते हुए जैन धर्म के लिये काफी दान दिया तथा जैन मंदिरों का निर्माण करवाया। ऐहोल अभिलेख का लेखक रविकीर्ति जैन धर्म का अनुयायी था, वह पुलकेशिन (द्वितीय) के दरबार की शोभा बढ़ाता था। पुलकेशिन भी उसका बहुत सम्मान करता था। चालुक्य नरेश विजयादित्य की बहन कुंकुम महादेवी ने लक्ष्मीश्वर में एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया। विजयादित्य ने अनेक जैन पण्डितों को ग्राम दान में दिये।

बौद्ध चैत्यों का निर्माण: अजंता की गुफाओं में कुछ बौद्ध चैत्यों का निर्माण चालुक्य शासकों के काल में हुआ। ह्वेनसांग के अनुसार चालुक्य राज्य में लगभग 100 बौद्ध विहार थे जिनमें 5000 से अधिक भिक्षु निवास करते थे। ह्वेनसांग ने वातापी के भीतर और बाहर 5 अशोक स्तूपों का भी उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि चालुक्य शासकों ने बौद्ध धर्म को भी संरक्षण दे रखा था।

चालुक्य वास्तु कला

इस काल में ऐहोल, वातापी और पट्टड़कल में बड़ी संख्या में हिन्दू देवताओं के मंदिर बने। चालुक्य शासकों ने विष्णु के अनेक अवतारों को अपना अराध्य देव माना। इनमें भी विष्णु के नृसिंह और वाराह रूपों की लोकप्रियता अधिक थी। इस काल में भगवान शिव के कैलाशनाथ, विरूपाक्ष, लोकेश्वर, त्रैलोक्येश्वर आदि रूपों की पूजा की जाती थी। अतः भगवान शिव के मंदिर भी बड़ी संख्या में बने।

वातापी राज्य में इस काल में बने मंदिरों को चालुक्य शैली के मंदिर कहा जाता है। चालुक्य शैली की वास्तु कला के तीन प्रमुख केन्द्र थे- ऐहोल, वातापी और पट्टड़कल। ऐहोल में लगभग 70 मंदिर मिले हैं। इसी कारण इस नगर को मंदिरों का नगर कहा गया है। समस्त मंदिर गर्भगृह और मण्डपों से युक्त हैं परंतु छतों की बनावट एक जैसी नहीं है। कुछ मंदिरों की छतें चपटी हैं तो कुछ की ढलवां हैं। ढलवां छतों पर भी शिखर बनाये गये हैं। इन मंदिरों में लालखां का मंदिर तथा दुर्गा का मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं। बादामी में चालुक्य वास्तुकला का निखरा हुआ रूप देखने को मिलता है। यहां पहाड़ को काटकर चार मण्डप बनाये गये हैं। इनमें एक मंडप जैनियों का है, शेष तीन मण्डप हिन्दुओं के हैं। इनके तीन मुख्य भाग हैं- गर्भगृह, मण्डप और अर्धमण्डप। पट्टड़कल के मंदिर वास्तु की दृष्टि से और भी सुंदर हैं। पट्टड़कल के वास्तुकारों ने आर्य शैली तथा द्रविड़ शैली को समान रूप से विकसित करने का प्रयास किया। पट्टड़कल में आर्य शैली के चार मंदिर तथा द्रविड़ शैली के 6 मंदिर हैं। आर्य शैली का सर्वाधिक सुंदर मंदिर पापनाथ का मंदिर है। द्रविड़ शैली का सर्वाधिक आकर्षक मंदिर विरुपाक्ष का मंदिर है। पापनाथ का मंदिर 90 फुट की लम्बाई में बना हुआ है। इस मंदिर के गर्भगृह और मण्डप के मध्य में जो अंतराल बना हुआ है, वह भी मण्डप जैसा ही प्रतीत होता है। गर्भगृह के ऊपर एक शिखर है जो ऊपर की ओर संकरा होता चला गया है। विरुपाक्ष मंदिर 120 फुट लम्बाई में बना हुआ है। मंदिर की स्थापत्य कला भी अनूठी है।

चालुक्य कालीन साहित्य

चालुक्य शासकों ने साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया। उनके दरबार में अनेक विद्वान रहते थे। ह्वेनसांग ने भी लिखा है कि चालुक्य शासक विद्यानुरागी थे। विक्रमादित्य (षष्ठम्) के दरबार में विक्रमांकदेव चरित्र का लेखक विल्हण और मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर का बड़ा सम्मान था। सोमेश्वर (तृतीय) स्वयं परम विद्वान था। उसने मानसोल्लास नामक ग्रंथ की रचना की। अपनी विद्वत्ता के कारण वह सर्वज्ञभूप कहा जाता था। 

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