एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट को सनक थी कि जब कोई गवाह कोर्ट में बयान देता तो मजिस्ट्रेट उसके समक्ष एक दर्पण रखवा देता। गवाह को अपनी बात उस दर्पण को देखते हुए कहनी होती थी।
जब एक मुकदमे के सिलसिले में उस मजिस्ट्रेट ने वल्लभभाई के गवाह को भी दर्पण सामने रखकर बयान देने को कहा तो वल्लभभाई ने मजिस्ट्रेट से कहा कि मेरा मुवक्किल इस दर्पण के सामने तभी गवाही देगा जब इस दर्पण को साक्ष्य के रूप में रखा जाये ताकि इसे आगे चलकर सेशन कोर्ट में भी पेश किया जा सके। मजिस्ट्रेट ने दर्पण को साक्ष्य के रूप में रखने से मना कर दिया।
इस पर वल्लभभाई ने कहा कि जब इस दर्पण को गवाह की सारी बातें ज्ञात हो जायेंगी तो इसे साक्ष्य के रूप में मानने से क्या आपत्ति है ? इस पर मजिस्ट्रेट ने कहा कि दर्पण को भले ही गवाह की सारी बातें ज्ञात हो जायेंगी किंतु यह दर्पण इस मुकदमे का महत्त्वपूर्ण भाग नहीं है।
वल्लभभाई ने कहा कि जब दर्पण, मुकदमे की कार्यवाही का महत्त्वपूर्ण भाग नहीं है तो इसे न्यायालय में क्यों रखा जाये ? इस पद दोनों के बीच लम्बी बहस हुई। कोर्ट में अच्छा-खासा तमाशा खड़ा हो गया। अंत में मजिस्ट्रेट को झुकना पड़ा और दर्पण को कोर्ट से बाहर का रास्ता दिखाया गया।