Friday, March 29, 2024
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अध्याय – 7 : बंगाल में ब्रिटिश प्रभुसत्ता का विस्तार

ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना तथा भारत में प्रवेश

1600 ई. में ब्रिटेन के कुछ व्यापारियों ने पूर्वी देशों में व्यापार  करने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी स्थापित की। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ (1558-1603 ई.) इस कम्पनी की हिस्सेदार थी। इस कम्पनी को अपने जहाजों तथा माल की सुरक्षा के लिए सैन्य बल रखना पड़ता था। कम्पनी को भारत में प्रवेश करते ही पुर्तगालियों से टक्कर लेनी पड़ी। पुर्तगालियों को परास्त करने के बाद उन्हें भारत के पश्चिमी क्षेत्रों में अपनी बस्तियाँ स्थापित करने की अनुमति मिली। इन बस्तियों की रक्षा ईस्ट इण्डिया कम्पनी को स्वयं करनी पड़ती थी। इस कार्य के लिए कम्पनी को सैनिकों की संख्या में निरंतर वृद्धि करनी पड़ती थी। इस प्रकार, कम्पनी की सेना का विस्तार होता चला गया। यद्यपि कम्पनी ने सर्वप्रथम सूरत को केन्द्र बनाकर व्यापार आरम्भ किया किन्तु उसे प्रादेशिक लाभ सर्वप्रथम दक्षिण भारत में प्राप्त हुआ, जब 1639 ई. में वाण्डिवाश के हिन्दू राजा ने कम्पनी को मद्रास का क्षेत्र प्रदान किया तथा कम्पनी को एक दुर्ग बनवाने की अनुमति दी। कम्पनी ने यहाँ सेण्ट जॉर्ज फोर्ट नामक प्रसिद्ध दुर्ग बनवाया। 1669 ई. में कम्पनी को बम्बई का क्षेत्र भी मिल गया।

बंगाल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की गतिविधियाँ

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल में अपनी पहली व्यापारिक बस्ती हुगली में 1651 ई. में स्थापित की। उन दिनों मुगल बादशाह शाहजहाँ का पुत्र शाहशुजा बंगाल का सूबेदार था। उसने एक फरमान जारी करके कम्पनी को बंगाल सूबे में व्यापार करने का अधिकार प्रदान किया और कम्पनी द्वारा निर्यात किये जाने वाले माल को चुँगी-कर से मुक्त रखने की सुविधा भी प्रदान की। अँग्रेजों ने हुगली के साथ ही कासिम बाजार तथा पटना में भी अपनी व्यापारिक कोठियां स्थापित कीं। 1691 ई. में प्रति वर्ष 3000 रुपये देने की शर्त पर कम्पनी को बंगाल में सीमा शुल्क देने से मुक्त कर दिया गया। 1693 ई. में कम्पनी को मद्रास के पास तीन गाँवों की जमींदारी मिली। 1698 ई. में कम्पनी को 12,000 रुपये वार्षिक भुगतान के बदले, बंगाल में तीन गाँवों- सूतानुती, गोविन्दपुर और कौलिकत्ता की जमींदारी मिल गई। इनकी सुरक्षा के लिए कम्पनी ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम नामक दुर्ग बनवाया। द्वितीय कर्नाटक युद्ध के समय कम्पनी को तंजौर के राजा से देवीकोटाई और उसके निकट का भूभाग प्राप्त हुआ जिसकी वार्षिक आय 30,000 रुपये थी। इस प्रकार कम्पनी बड़े भू-भाग की जमींदार बन गई।

अठारहवीं शताब्दी में बंगाल की स्थिति

औरंगजेब के शासनकाल में बंगाल, बिहार और उड़ीसा मुगल सल्तनत के तीन पृथक् सूबे थे। 1705 ई. में औरंगजेब ने मुर्शीदकुली जफरखाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। कुछ समय बाद उड़ीसा का सूबा भी उसे दे दिया गया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद राजनैतिक अस्थिरता के काल में मुर्शीदकुली जफरखाँ एक स्वतन्त्र शासक की भाँति शासन करने लगा। 1727 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका दामाद शुजाउद्दौलाखाँ बंगाल का सूबेदार बना। उसने बिहार के सूबे को भी बलपूर्वक अपने नियंत्रण में ले लिया। इस प्रकार पूर्वी भारत के तीनों समृद्ध सूबे उसके अधीन हो गये। 1739 ई. में शुजाउद्दौला की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सरफराजखाँ उसका उत्तराधिकारी बना। वह निर्बल, अयोग्य और विलासी था। उस समय अलीवर्दीखाँ बिहार का नायब सूबेदार था। अपै्रल 1740 में अलीवर्दीखाँ ने अपने स्वामी सरफराजखाँ पर आक्रमण कर दिया। सरफराजखाँ युद्ध में परास्त हुआ तथा मारा गया। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला (1719-48 ई.) अलीवर्दीखाँ के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने में असमर्थ था इसलिये उसने अलीवर्दीखाँ को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का सूबेदार मान लिया।

चुंगी को लेकर बंगाल के सूबेदारों से विवाद

1717 ई. में मुगल बादशाह फर्रूखसियर ने एक फरमान द्वारा कम्पनी के सामान पर लगने वाली चुँगी-कर या सीमा-शुल्क माफ कर दिया। इससे कम्पनी को बहुत मुनाफा हुआ। ज्यों-ज्यों मुगलों की सत्ता कमजोर होती गई, बंगाल के सूबेदार, शासन के सम्बन्ध में स्वतंत्र होते गये। वे चाहते थे कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी, बंगाल सूबे में व्यापार करने के लिये बंगाल के सूबेदार से अनुमति प्राप्त करे। इस प्रकार बंगाल के सूबेदार और ईस्ट इण्डिया कम्पनी में मतभेद उत्पन्न हो गये जो समय के साथ बढ़ते ही गये। आगे चलकर दोनों के मध्य जो युद्ध लड़े गये, उनका मूल कारण व्यापार पर चुंगी का विषय ही था। कलकत्ता के आस-पास का क्षेत्र जो कम्पनी को जमींदारी के रूप में मिला था, उस पर भी दोनों पक्षों में विवाद था। बंगाल के सूबेदार का मानना था कि उसके सूबे के समस्त जमींदारी क्षेत्रों पर उसका नियन्त्रण है परन्तु कम्पनी का मानना था कि जमींदारी क्षेत्र में उसे स्वायत्तता प्राप्त है तथा बंगाल के सूबेदार को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।

अलीवर्दीखाँ का शासन

अलीवर्दीखाँ, सैद्धांतिक रूप से मुगल बादशाह की ओर से बंगाल का सूबेदार था किंतु व्यावहारिक रूप में वह एक स्वतंत्र शासक था। उसने 1740 ई. से 1756 ई. तक बंगाल पर शासन किया। उसके समय में मराठों ने निरन्तर आक्रमण करके बंगाल के आर्थिक जीवन को बुरी तरह से बर्बाद कर दिया। अतः 1751 ई. में उसे मराठों से समझौता करके उन्हें उड़ीसा का अधिकांश भाग तथा प्रतिवर्ष 12 लाख रुपया चौथ के रूप में देना स्वीकार करना पड़ा। मराठों की तरफ से निश्चिंत होने के बाद अलीवर्दीखाँ ने शासन व्यवस्था की तरफ ध्यान दिया। उसे बंगाल का सूबेदार बनने में बंगाल के हिन्दू व्यापारियों से महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला था। अतः उसने हिन्दुओं को महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया। राय दुर्लभ, जगत सेठ बन्धु मेहताब राय और स्वरूपचन्द्र, राजा रामनारायण, राजा माणिकचन्द्र आदि हिन्दू व्यापारियों का उसके शासन में भारी सम्मान बना रहा।

उस समय बंगाल का अधिकांश व्यापार हिन्दू व्यापारियों के हाथों में था। यूरोपीय व्यापारियों से सम्पर्क होने के बाद हिन्दू व्यापारियों का कारोबार और अधिक बढ़ गया और वे बहुत समृद्ध हो गये। बंगाल से कृषि उपज, सूती वस्त्र तथा रेशम का भारी मात्रा में निर्यात होता था। बढ़ते हुए व्यापार तथा लाभ ने बंगाल के हिन्दू व्यापारियों को अँग्रेज व्यापारियों का मित्र बना दिया। यही कारण है कि जब बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मध्य संघर्ष हुआ तो बंगाल के हिन्दू व्यापारियों ने कम्पनी के साथ सहानुभूति रखी तथा उसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अलीवर्दीखाँ और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सम्बन्ध कभी मैत्रीपूर्ण नहीं रहे। कम्पनी की शिकायत थी कि उसे 1717 ई. के शाही फरमान के अनुसार व्यापारिक सुविधायें नहीं दी जा रही हैं। इसके विपरीत नवाब का मत था कि कम्पनी को जो सुविधाएँ दी गई हैं, वह उनका दुरुपयोग कर रही है। इस कारण बंगाल के सरकारी कोष को भारी घाटा उठाना पड़ रहा है। अतः कम्पनी को चाहिए कि वह अपने मुनाफे का कुछ अंश सीमा शुल्क के रूप में सरकार को दे। कम्पनी इसके लिए तैयार नहीं थी। विवाद का दूसरा कारण कम्पनी की राजनीतिक महत्वाकांक्षायें भी थीं। कर्नाटक के युद्धों में मिली सफलता से कम्पनी का आत्मविश्वास बढ़ गया था। इस कारण कम्पनी, बंगाल में भी अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में जुट गई। दूसरी तरफ अलीवर्दीखाँ को आभास हो गया कि दोनों यूरोपीय कम्पनियों (अंग्रेजों और फ्रांसीसियों) में कभी भी संघर्ष छिड़ सकता है जिससे बंगाल की शान्ति भंग हो सकती है। अतः नवाब ने आरम्भ से ही दोनों कम्पनियों को अपनी बस्तियों की किलेबन्दी करने तथा अस्त्र-शस्त्रों को जमा करने की अनुमति नहीं दी। उसका कहना था कि व्यापारी को सामरिक तैयारी में समय नष्ट नहीं करना चाहिए।

 अलीवर्दीखाँ के सुझाव के उपरान्त भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने एक सेना गठित कर ली। इसका मुख्य ध्येय मराठों की लूटमार से अपनी बस्ती की रक्षा करना था। अपनी बस्ती के अलावा अँग्रेजों ने आसपास के कुछ अन्य क्षेत्रों को भी मराठों की लूटमार से बचाया तथा मराठों द्वारा लूटे गये क्षेत्रों के लोगों को थोड़ी-बहुत आर्थिक सहायता भी दी। इसका परिणाम बहुत अच्छा निकला। अँग्रेजों ने स्थानीय लोगों की सहानुभूति प्राप्त कर ली, जो आगे चलकर उनके काम आई। 1756 ई. में यूरोप में आरम्भ हुए सप्तवर्षीय युद्ध के कारण दक्षिण भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी तथा फ्रैंच इण्डिया कम्पनी में संघर्ष आरम्भ हो गया परन्तु अलीवर्दीखाँ ने दोनों कम्पनियों पर कठोर नियंत्रण रखा और उन्हें आपस में लड़ने नहीं दिया।

कम्पनी के व्यापार में अभूतपूर्व वृद्धि

यद्यपि अलीवर्दीखाँ के शासन में कम्पनी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकी किंतु कम्पनी का कारोबार अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा। भारत से इंग्लैण्ड में कम्पनी का आयात 1708 ई. में 5 लाख पौण्ड मूल्य का था जो 1740 ई. में बढ़कर 17.95 लाख पौण्ड मूल्य का हो गया। यह वृद्धि तो तब हुई जबकि इंग्लैण्ड की संसद ने अँग्रेजी कपड़ा उद्योग के संरक्षण करने तथा इंग्लैण्ड से भारत को चांदी का निर्यात रोकने के लिये, 29 सितम्बर 1701 को एक विशेष कानून बनाकर भारतीय मलमल, छींटदार कपड़े एवं रंगदार लट्ठे को ब्रिटेन में पहनने एवं प्रयोग में लाने पर रोक लगा रखी थी।

सिराजुद्दौला का अँग्रेजों से संघर्ष

अलीवर्दीखाँ के कोई पुत्र नहीं था। केवल तीन पुत्रियाँ थीं जिन्हें उसने अपने तीन भतीजों से ब्याह दिया था। अलीवर्दीखाँ ने अपने दामादों को पूर्णिमा, ढाका तथा पटना का सूबेदार नियुक्त किया। इन तीनों दामादों का निधन अलीवर्दीखाँ के जीवनकाल में ही हो गया। इसलिये अलीवर्दीखाँ ने अपनी सबसे छोटी पुत्री के लड़के सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया परन्तु इस निर्णय से सिराजुद्दौला के प्रतिद्वंद्वी भड़क गये। अलीवर्दीखाँ की सबसे बड़ी पुत्री घसीटी बेगम सिराजुद्दौला के मृत बड़े भाई के अल्पवयस्क पुत्र मुराउद्दौला को गोद लेकर उसे बंगाल का नवाब बनाने का प्रयत्न करने लगी। घसीटी बेगम का दीवान राजवल्लभ चतुर राजनीतिज्ञ था, वह घसीटी बेगम का मार्गदर्शन कर रहा था। अलीवर्दीखाँ की दूसरी पुत्री का पुत्र शौकतजंग जो पूर्णिया का गवर्नर था, स्वयं को बंगाल की नवाबी का सही उत्तराधिकारी समझता था। अलीवर्दीखाँ का बहनोई और प्रधान सेनापति मीर जाफर भी नवाब बनने का इच्छुक था। ये सब लोग एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगे। 10 अपै्रल 1756 को 82 वर्ष की अवस्था में अलीवर्दीखाँ की मृत्यु हो गई। इसके बाद सिराजुद्दौला बिना किसी बाधा के तख्त पर बैठ गया। उसने अपनी बड़ी मौसी घसीटी बेगम को छल से बन्दी बना लिया तथा शौकतजंग के विरुद्ध भी सैनिक कार्यवाही करके उसे अपने अधीन कर लिया।

सिराजुद्दौला गुस्सैल स्वभाव का युवक था। उसने तख्त पर बैठते ही कम्पनी को आदेश दिया कि वे उसी प्रकार व्यापार करें जिस तरह वे मुर्शीदकुली खाँ के समय में करते थे। कम्पनी के अधिकारियों ने इस आदेश को मानने से मना कर दिया। इस समय तक वे फ्रांसीसियों पर निर्णायक विजय प्राप्त कर चुके थे और नवाब को सबक  सिखाने की युक्ति कर रहे थे। इन सब कारणों से दो माह से भी कम समय में सिराजुद्दौला और अँग्रेजों के बीच झगड़ा हो गया।

सिराजुद्दौला तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच झगड़े के कारण

(1.) प्रतिद्वंद्वियों की महत्त्वाकांक्षाएं: अँग्रेजों और सिराजुद्दौला के मध्य संघर्ष होने के कई कारण थे। एक ओर सिराजुद्दौला अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिये सख्त कदम उठा रहा था तो दूसरी ओर उसकी मौसी घसीटी बेगम का दत्तक पुत्र मुराउद्दौला, अलीवर्दीखाँ की दूसरी पुत्री का पुत्र शौकतजंग तथा अलीवर्दीखाँ का बहनोई मीर जाफर भी नवाब बनने के लिये षड्यंत्र कर रहे थे।

(2.) अँग्रेजों का षड्यंत्र: ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारी इस नीति पर चल रहे थे कि जब किसी राज्य में उत्तराधिकार का झगड़ा हो तो किसी न किसी दावेदार की सहायता करके अपने पक्ष के व्यक्ति को तख्त पर बैठाया जाये तथा राज्य में अपना प्रभाव बढ़ाया जाये ताकि व्यापार के लिये अधिक से अधिक सुविधायें प्राप्त करके अधिकतम लाभ अर्जित किया जा सके। इसलिये वे सिराजुद्दौला के विरोधियों की सहायता तथा नवाब के आदेशों की अवज्ञा करने लगे। जब सिराजुद्दौला को इस बात का अनुभव हुआ तो उसने अँग्रेजों के प्रभाव को कम करने का निर्णय लिया।

(3.) अँग्रेजों के प्रति संदेह: अँग्रेजों का मानना था कि सिराजुद्दौैला आरम्भ से ही अँग्रेजों को सन्देह की दृष्टि से देखता था किंतु अँग्रेज इतिहासकारों का यह दावा सही नहीं है। तत्कालीन साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि आरम्भ में सिराजुद्दौला अंग्रेजों से सहानुभूति रखता था। 1752 ई. में जब कम्पनी का अध्यक्ष हुगली आया था, तब सिराजुद्दौला ने उसका स्वागत किया था। हॉलवेल के अनुसार अलीवर्दीखाँ ने मरने से पूर्व सिराजुद्दौला को अँग्रेजों पर कड़ी दृष्टि रखने की चेतावनी दी थी, क्योंकि उसे आशंका थी कि कर्नाटक जैसा षड्यंत्र बंगाल में भी दोहराया जा सकता है। अतः नवाब बनने के बाद शिराजुद्दौला के रुख में अंतर आ गया और वह अँग्रेजों की कार्यवाहियों को नियन्त्रित करने का प्रयास करने लगा।

(4.) नवाब के प्रति अँग्रेजों की अशिष्टता: जब सिराजुद्दौला तख्त पर बैठा तब अँग्रेज अधिकारी जान-बूझकर उसके दरबार से अनुपस्थित रहे और उन्होंने सिराजुद्दौला को भेंट भी नहीं दी। इस प्रकार उन्होंने नवाब की अवहेलना कर उसके प्रति अशिष्टता का प्रदर्शन किया। इस घटना के कुछ दिनों बाद ही जब सिराजुद्दौला ने अँग्रेजों की कासिम बाजार फैक्ट्री देखने की इच्छा व्यक्त की तो अँग्रेजों ने उसे फैक्ट्री दिखाने से मना कर दिया। जब नवाब ने उनके व्यापार के बारे में जानकारी चाही तो अँग्रेजों ने उसे जानकारी देने से भी मना कर दिया। इस प्रकार अँग्रेजों द्वारा जानबूझ कर बार-बार अवज्ञा किये जाने से सिराजुद्दौला उनसे नाराज हो गया।

(5.) व्यापारिक झगड़ा: मुगल बादशाह फर्रूखसियर ने 1717 ई. में शाही फरमान द्वारा अँग्रेजों को बंगाल में चुँगी दिये बिना व्यापार करने की सुविधा दी थी। इसके आधार पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपना व्यापार तो फैला रही थी किंतु बंगाल के नवाब को चुंगी नहीं देती थी। कम्पनी इस सुविधा का दुरुपयोग करने लगी। वह भारतीय व्यापारियों से कुछ-ले-देकर उनके माल को भी अपना बताकर चुँगी बचा लेती थी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अध्यक्ष अपने हस्ताक्षरों से बंगाल में कम्पनी के माल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाने ले जाने का अनुज्ञा पत्र जारी करता था। इसे दस्तक कहा जाता था। दस्तक वाले सामान पर चुँगी-कर वसूल नहीं किया जाता था। कम्पनी के कई कर्मचारी निजी व्यापार करते थे और अपने व्यापारिक सामान को भी कम्पनी का बताकर चुँगी बचाते थे। इससे नवाब को आर्थिक हानि होती थी। इस स्थिति से उबरने के लिये सिराजुद्दौला कम्पनी के साथ कोई नया समझौता करना चाहता था। अँग्रेज इस विशेषाधिकार को छोड़ने को तैयार नहीं थे। अतः दोनों पक्षों में युद्ध होना अनिवार्य हो गया। वस्तुतः दोनों के मध्य संघर्ष का मूल कारण यही था।

(6.) कलकत्ता में आने वाले माल पर अँग्रेजों द्वारा चुंगी लगाना: कलकत्ता अँग्रेजों के अधिकार में था। अँग्रेज एक ओर तो नवाब को किसी प्रकार का कर नहीं चुका रहे थे तथा दूसरी ओर उन्होंने कलकत्ता के बाजार में स्थानीय व्यापारियों द्वारा लाये जाने वाले माल पर भारी कर एवं चुंगी लगा दिये।

(7.) नवाब के शत्रुओं को संरक्षण देना: अँग्रेजों की बस्ती कलकत्ता के नाम से विख्यात थी। कलकत्ता, नवाब के शत्रुओं तथा विद्रोहियों के लिए आश्रय स्थल बनी हुई थी। जब नवाब ने घसीटी बेगम को बन्दी बनाया तो दीवान राजवल्लभ ने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति अपने लड़के कृष्णवल्लभ के साथ कलकत्ता भिजवा दी। उसने घसीटी बेगम की सम्पत्ति को भी छिपाने का प्रयास किया। इस पर नवाब ने उसे दीवान पद से हटा दिया और कलकत्ता के अँग्रेज अधिकारियों से कहा कि वे कृष्णवल्लभ, नवाब को सौंप दें। कम्पनी के अधिकारियों ने नवाब की इस मांग को ठुकरा दिया। इससे सिराजुद्दौला और भी अधिक नाराज हो गया।

(8.) कलकत्ता की किलेबन्दी: सिराजुद्दौला के नवाब बनते ही यूरोप में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच युद्ध छिड़ने से भारत में स्थित दोनों कम्पनियों में भी युद्ध होने की आशंका उत्पन्न हो गई। इसलिये दोनों कम्पनियों ने बंगाल में अपने-अपने स्थानों की किलेबन्दी करना और सैनिकों की संख्या बढ़ाना आरम्भ कर दिया। नवाब ने दोनों कम्पनियों को आदेश दिये कि वे अपने स्थानों की किलेबन्दी का काम बन्द कर दें। फ्रांसीसियों ने नवाब के आदेश को मान लिया परन्तु अँग्रेजों ने आदेश की पालना नहीं की। वे उस समय कलकत्ता के चारों तरफ एक खाई खुदवा रहे थे।

जब नवाब के अधिकारियों ने उन्हें खाई को भर देने के लिए कहा तो एक अँग्रेज अधिकारी ने उन्हें जवाब दिया- ‘यह खाई अवश्य भर दी जायेगी परन्तु मुसलमानों के सिरों से।’

जब सिराजुद्दौला को यह सूचना दी गई तो उसने अँग्रेजों को सबक सिखाने का निर्णय किया।

(9.) जमींदारी की गलत व्याख्या: कम्पनी को कलकत्ता बस्ती के आसपास के क्षेत्र की जमींदारी दी गई थी। नवाब का मानना था कि जमींदार उसका प्रतिनिधि मात्र है और उसका काम नवाब की तरफ से जमींदारी क्षेत्र से राजस्व वसूल करना तथा शान्ति बनाये रखना है। उस क्षेत्र पर नवाब का राजनीतिक प्रभुत्व सर्वोपरि है तथा कम्पनी नवाब के आदेशों का पालन करने के लिये बाध्य है परन्तु कम्पनी का मानना था कि उसे अपने क्षेत्र में पूर्ण राजनीतिक स्वायत्तता प्राप्त है, नवाब को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। नवाब अँग्रेज अधिकारियों की दलीलों को मानने के लिये तैयार नहीं था। उसने अपने अधिकारियों को कम्पनी के अधिकारियों से वार्त्ता करने भेजा परन्तु अँग्रेज अधिकारियों ने नवाब के शान्ति-प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। ऐसी स्थिति में सिराजुद्दौला के समक्ष, कम्पनी के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचा। इतिहासकार हिल ने लिखा है- ‘जिन कारणों से नवाब ने अँग्रेजों पर आक्रमण किया उनमें तर्क अवश्य था।’

नवाब द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही

कासिम बाजार फैक्ट्री पर अधिकार: 4 जून 1756 को सिराजुद्दौला ने मुर्शिदाबाद के निकट अँग्रेजों की कासिम बाजार फैक्ट्री पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। फैक्ट्री के अँग्रेज अधिकारी वाट्सन ने आत्मसमर्पण कर दिया।

फोर्ट विलियम पर अधिकार: 5 जून 1756 को नवाब ने 50,000 सैनिकों के साथ कलकत्ता पर धावा बोला। उस समय कलकत्ता में अँग्रेजों के पास केवल 500 सैनिक थे। 15 जून को नवाब की सेना ने फोर्ट विलियम को घेर लिया। पराजय निश्चित जानकर गवर्नर ड्रेक और अँग्रेज अधिकारी अपने परिवारों को लेकर जहाज पर सवार होकर हुगली नदी में स्थित फुल्टा टापू पर चले गये। किले की रक्षा का भार हॉलवेल के नेतृत्व में थोड़े से सैनिकों को सौंप दिया गया। दो दिन बाद हॉलवेल ने समर्पण कर दिया। 20 जून को फोर्ट विलियम तथा कलकत्ता पर नवाब का अधिकार हो गया।

बाद में वाट्सन ने स्वीकार किया कि- ‘नवाब के शान्ति प्रस्ताव पर्याप्त थे। उन्हें ठुकराकर तथा कासिम बाजार की घटना से कोई सबक न लेकर गवर्नर ड्रेक ने स्वयं खतरा मोल लिया था।’ 

कालकोठरी (ब्लैक होल) की घटना

20 जून को फोर्ट विलियम का पतन हो गया। दुर्ग में उपस्थित अँग्रेजों को बन्दी बना लिया गया। कहा जाता है कि नवाब के किसी अधिकारी ने अँग्रेजों को रात्रि में 18 फुट लम्बी और 15 फुट चौड़ी एक कोठरी में बंद कर दिया। जब प्रातःकाल में कोठरी का दरवाजा खोला गया तो कई  बन्दी मर चुके थे। इतिहास में यह दुर्घटना काल कोठरी अथवा ब्लैक होल के नाम से विख्यात है। इस दुर्घटना का विवरण हॉलवेल द्वारा लिखे गये एक पत्र से मिला है। हॉलवेल के अनुसार जून मास की भयंकर गर्मी में नवाब के आदेश से 146 अँग्रेज बन्दियों को काल कोठरी में बंद किया गया। सुबह तक 123 व्यक्ति मर गये, केवल 23 व्यक्ति ही जीवित रह पाये जिनमें से हॉलवेल भी एक था। ब्लैक होल की घटना पर इतिहासकारों में गम्भीर विवाद है। कुछ फ्रांसीसी एवं आर्मीनियन दस्तावेजों में भी इस घटना का उल्लेख मिलता है परन्तु मरने वालों की संख्या एक जैसी नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि अँग्रेजों ने इस घटना को काफी बढ़ा-चढ़ाकर बताया है। उनका एकमात्र उद्देश्य सिराजुद्दौला को क्रूर शासक सिद्ध करना था ताकि भारत में स्थित अँग्रेजों की सहानुभूति प्राप्त की जा सके और उन्हें नवाब के विरुद्ध उकसाया जा सके। हॉलवेल ने अवश्य ही इस कहानी को बढ़ा-चढ़ाकर लिखा होगा।

डॉ. भोलानाथ और डॉ. ब्रिजेन गुप्ता ने इस दुर्घटना को सही माना है। अधिकांश इतिहाकारों की मान्यता है कि यदि यह स्वीकार कर लें कि इस प्रकार की घटना हुई थी तो भी इसके लिए सिराजुद्दौला को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जो लोग ब्लैकहोल की घटना की सत्यता में विश्वास नहीं करते उनके तर्क इस प्रकार से हैं-

(1.) तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रन्थों, शेर-ए-मुतेखरीन और रायस-उस-सलातीन  आदि में इस घटना का उल्लेख नहीं मिलता।

(2.) तत्कालीन अँग्रेजी पुस्तकों, मद्रास कौंसिल के दस्तावेजों, कम्पनी के डायरेक्टरों को क्लाइव तथा वाट्सन द्वारा लिखे गये पत्रों आदि में भी इसका उल्लेख नहीं मिलता।

(3.) फुल्टा टापू पर जाने वाले अँग्रेजों द्वारा लिखी गई प्रोसीडिंग्स में भी इस घटना का उल्लेख नहीं है।

(4.) इतिहासकार जे. एच. लिटल के अनुसार जिन अँग्रेजों का कालकोठरी की घटना में मारा जाना बताया गया है, वे तूफान में मरे थे।

(5.) 18 फुट लम्बी और 15 फुट चौड़ी कोठरी में 146 व्यक्तियों को किसी भी प्रकार से नहीं ठूँसा जा सकता।

(6.) हॉलवेल ने जो सूची दी है, उतने आदमी फोर्ट विलियम में मौजूद ही नहीं थे। हॉलवेल अत्यन्त ही झूठा व्यक्ति था। इसकी पुष्टि स्वयं क्लाइव एवं वाट्सन के कथनों से होती है।

(7.) हॉलवेल ने बाद में इसी प्रकार का आरोप मीर जाफर पर भी लगाया था कि उसने एक रात में असंख्य अँग्रेजों को मरवा डाला। हॉलवेल ने मृत व्यक्तियों की सूची भी दी परन्तु बाद में क्लाइव और वाट्सन ने लिखा है कि हॉलवेल का आरोप असत्य था और उसकी सूची के अधिकांश व्यक्ति अभी तक जीवित हैं।

(8.) 1757 ई. में अँग्रेजों ने जब नवाब सिराजुद्दौला के साथ सन्धि की तो उन्होंने कई बातों की क्षतिपूर्ति के लिए नवाब से धन की माँग की थी। यदि कालकोठरी की घटना घटित हुई होती तो अँग्रेज मृत लोगों का मुआवजा अवश्य माँगते। चूंकि इस प्रकार का मुआवजा नहीं माँगा गया। अतः इस बात की संभावना अधिक है कि इस प्रकार की कोई दुर्घटना घटित नहीं हुई।

क्लाइव की नियुक्ति (1757-1760 ई.)

कासिम बाजार तथा कलकत्ता की पराजयों के समाचार जब मद्रास पहुँचे तो वहाँ के अँग्रेज अधिकारी अत्यधिक उत्तेजित हो उठे। मद्रास कौंसिल की बैठक में निर्णय लिया गया कि क्लाइव के नेतृत्व में कासिम बाजार और कलकत्ता पर फिर से अधिकार करने के लिए एक शक्तिशाली सेना बंगाल भेजी जाए। क्लाइव की सहायता के लिए नौसेना अध्यक्ष वाट्सन को भी नियुक्त किया गया। इस प्रकार क्लाइव फोर्ट विलियम्स अर्थात बंगाल का पहला गवर्नर नियुक्त हुआ। मद्रास कौंसिल ने क्लाइव को आदेश दिया कि बंगाल के मौजूदा नवाब को हटाकर किसी और को नवाब बनाया जाये। अँग्रेजों की सेना मद्रास से कलकत्ता के लिये रवाना हो गई। सिराजुद्दौला इन तैयारियों से अनभिज्ञ था। इसलिए उसने न तो कलकत्ता की सुरक्षा की व्यवस्था की और न समुद्री तटों की चौकसी पर ध्यान दिया।

कलकत्ता की पराजय

दिसम्बर 1756 के अन्त में अँग्रेजों की सेना बंगाल पहुंच गई और फुल्टा टापू के आश्रितों को छुटकारा मिला। क्लाइव और वाट्सन ने अपने विश्वस्त लोगों की सहायता से सिराजुद्दौला के प्रमुख अधिकारियों तथा सेठ-साहूकारों को अपनी ओर मिलाने तथा नवाब को पद-च्युत करने के लिए षड्यन्त्र रचना आरम्भ कर दिया। ऐसे लोगों में राजा माणिकचन्द्र, व्यापारी अमीचन्द, जगत सेठ बन्धु, मीर जाफर आदि मुख्य थे। राजा माणिकचन्द्र को भारी रिश्वत दी गई और 2 जनवरी 1757 को अँग्रेजों ने कलकत्ता पर पुनः अधिकार कर लिया। अँग्रेजों की सेना ने हुगली और उसके आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमण करके अनेक लोगों की निर्मम हत्या की तथा उनकी समस्त वस्तुओं को लूट लिया। नवाब सिराजुद्दौला को जब इसकी सूचना मिली तो वह 40,000 सैनिकों के साथ कलकत्ता की तरफ बढ़ा। 30 जनवरी को क्लाइव ने नवाब की सेना पर अचानक आक्रमण करके उसे काफी क्षति पहँुचाई। इससे नवाब का मनोबल गिर गया।

अलीनगर की सन्धि (1757 ई.)

नवाब के सलाहकारों ने उस पर अँग्रेजों से सन्धि करने का दबाव डाला। इस पर नवाब सन्धि करने को तैयार हो गया। माना जाता है कि नवाब को अपने दरबारियों तथा अधिकारियों पर सन्देह हो गया था कि वे अँग्रेजों से मिले हुए हैं। दूसरी मान्यता यह है कि इन दिनों अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली ने मुगल बादशाह को परास्त करके दिल्ले में डेरा डाल रखा था और यह अफवाह जोरों पर थी कि रूहेलों और अफगानों की सहायता से वह बंगाल पर आक्रमण करेगा। ऐसी स्थिति में नवाब ने अंग्रेजों से सन्धि कर लेना उचित समझा। उधर, क्लाइव की स्थिति भी अधिक मजबूत नहीं थी। वाट्सन के साथ उसके सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गये थे और कलकत्ता कौंसिल से उसे अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा था। इसलिए जब नवाब की तरफ से सन्धि का प्रस्ताव आया तो क्लाइव ने उसे स्वीकार कर लिया। 9 फरवरी 1757 को दोनों पक्षों में सन्धि हुई जो अलीनगर की सन्धि कहलाती है। इस संधि की मुख्य शर्तें इस प्रकार थीं-

(1.) मुगल बादशाह फर्रूखसियर ने अँग्रेजों को जो व्यापारिक सुविधाएँ तथा विशेषाधिकार दिए थे, नवाब ने उनको मान्यता प्र्रदान कर दी।

(2.) बंगाल, बिहार और उड़ीसा में पहले की भाँति कम्पनी द्वारा दस्तक जारी किये जाने का अधिकार नवाब द्वारा स्वीकार कर लिया गया।

(3.) जिन फैक्ट्रियों पर नवाब ने अधिकार कर लिया था, वे पुनः कम्पनी को लौटा दी गईं।

(4.) नवाब ने कम्पनी की सम्पत्ति तथा अँग्रेजों को हुई हानि की क्षतिपूर्ति करने का वचन दिया।

(5.) कम्पनी को कलकत्ता में अपनी इच्छानुसार किलेबन्दी करने की छूट मिल गई।

(6.) कम्पनी को अपने निजी सिक्के ढालने का अधिकार भी दे दिया गया।

(7.) उपर्युक्त सुविधाओं के बदले में कम्पनी ने नवाब को उसकी सुरक्षा का आश्वासन दिया।

अलीनगर की सन्धि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए अत्यंत लाभदायक और नवाब सिराजुद्दौला के लिए अत्यंत अपमानजनक थी। क्लाइव ने सन्धि के द्वारा कम्पनी के लिए बहुत सारे अधिकार प्राप्त कर लिये। इस सन्धि के द्वारा उसने फ्रांसीसियों और नवाब के सम्भावित गठबन्धन को रोक दिया, जिससे बंगाल में कम्पनी की स्थिति अत्यधिक सुदृढ़ हो गई। इतना होने पर भी अँग्रेज अधिकारी इस संधि से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वे सिराजुद्दौला को नवाब के पद से हटाना ही इस कार्यवाही का प्रमुख उद्देश्य समझते थे। सिराजुद्दौला भी इस संधि से संतुष्ट नहीं था। इसलिये दोनों पक्षों में निकट भविष्य में पुनः संघर्ष होना अवश्यम्भावी था।

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