Saturday, July 27, 2024
spot_img

35. चतुरंगिणी

राजन् सुरथ ने ऊँची टेकरी पर चढ़कर चतुरंगिणी[1] का अवलोकन किया। चारों दिशायें आर्य सैनिकों से आप्लावित थीं। राजन् सुरथ तथा सेनप सुनील ने आर्य वीरों की चतुरंगिणी सैन्य संयोजित करने में दिवस-निशि परिश्रम किया था। प्रत्येक अंग का मुखिया ऐसे वीर को चुना गया था जो उस अंग के लिये सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुआ था। चारों अंगों के मुखियाओं को सेनप सुनील के अधीन रखा गया था।

पहला अंग हस्ति सैनिकों का था। इस अंग के सैनिक हस्ति पर आरूढ़ होकर सबसे आगे चलते थे तथा युद्ध के मैदान में सबसे पहले धंसते थे। आर्य अतिरथ को इसी अंग का मुखिया बनाया गया था। इस अंग को पुर पर आक्रमण के लिये विशेष रूप से दक्ष किया गया था। युद्ध क्षेत्र में भारी सैनिक सामग्री ढोने का काम भी इसी अंग को दिया गया था। हस्ति सैन्य के लिये गहन वन प्रांतर में रहने वाली प्रजाओं से हस्ति प्राप्त करने में आर्यों को सर्वाधिक समय लगा था। फिर भी बहुत कम प्रशिक्षित हस्ति उपलब्ध हो पाये थे। इसक उपरांत भी जब हस्ति सैन्य सब तरह से सुसज्जित होकर चतुरंगिणी में सम्मिलित हुआ तो आर्य वीरों का मनोबल काफी बढ़ गया।

दूसरा अंग रथाति सैनिकों का था। इस अंग में हस्ति दल की अपेक्षा अधिक सैनिक थे। ये सैनिक रथ में बैठे रहने के कारण शत्रु-सैन्य के मध्य धंसने में विशेष रूप से उपयोगी थे। सैनिकों के लिये धनुष, बाण, असि तथा तूणीर आदि ढोने का काम भी इसी अंग पर छोड़ा गया था। तीसरा अंग अश्वारूढ़ सैनिकों का था। यह अंग सर्वाधिक तीव्र वेग से चल सकने में सक्षम होने के कारण शत्रु सैन्य पर अचानक धावा करने में विशेष उपयोगी था। युद्ध क्षेत्र में युद्ध सम्बन्धी सूचनायें एक अंग से दूसरे अंग तक पहुँचाने का कार्य भी इसी अंग को प्रदान किया गया था। समस्त प्रमुख आर्य वीर इसी अंग में सम्मिलित किये गये थे। चैथा अंग पदाति सैनिकों का था। यह अंग चतुरंगिणी का सबसे बड़ा और सबसे मुख्य अंग था। शेष अंग एक तरह से इसी अंग की सहायता के लिये संगठित किये गये थे।

राजन् सुरथ की योजना यह थी कि चतुरंगिणी को साथ लेकर सबसे पहले अन्य आर्य-जनों की यात्रा की जाये और उन जनों के आर्यवीरों को चतुरंगिणी में सम्मिलित किया जाये। इससे जनों में एक्य-सूत्र [2] स्वतः ही स्थापित हो जायेगा और वे कालांतर में एक आर्य जनपद में बंध जायेंगे। जो आर्यजन इस चतुरंगिणी का विरोध करें उनसे समरांगण में निबटा जाये। जब चतुरंगिणी में सैनिकों की विपुल संख्या हो जाये तब यह चतुरंगिणी असुरों के पुरों पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट करे तथा असुरों को सरिताओं के तट से दूर मरुस्थल की ओर धकेल दे। आर्य सुरथ ने यह भी योजना बनाई थी कि जैसे-जैसे सप्त सिंधु क्षेत्र की सलिलाओं के  पवित्र तट असुरों से मुक्त होते जायें वैसे-वैसे उन क्षेत्रों में आर्य जन स्थापित किये जायें ताकि असुर पुनः उन क्षेत्रों में प्रवेश न करें। 

ऋषियों, ऋषिपत्नियों तथा अन्य आर्यों ने राजन् सुरथ और सेनप सुनील के इस विशेष सैन्य संगठन को देखकर मुक्तकण्ठ से सराहना की। निश्चित् ही उनका उपक्रम और उनकी योजना अद्भुत है। सुसंगठित सैन्यशक्ति एवं सुनियोजित रणनीति ही प्रबल असुरों को सरिताओं के तट से दूर निर्जन मरुस्थल में धकेल सकती है।

ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने आगे बढ़कर राजन् सुरथ के मस्तक पर तिलक अंकित किया और सिर पर अक्षत [3] डालकर आर्य सैन्य की विजय कामना की। दुंदुभि के तुमल नाद के साथ चतुरंगिणी ने अपने दिव्य शस्त्रों का संचालन किया। सूर्य रश्मियों में चमकते हुए अस्त्र-शस्त्रों को देखकर लगता था जैसे सहस्रों सूर्य एक साथ निकल आये हैं। शस्त्र संचालन करते हुए ही चतुरंगिणी ने प्रस्थान किया।

सबसे आगे दो अश्व चल रहे थे जिन पर राजन् सुरथ तथा सेनप सुनील आरूढ़ थे। उनके दोनों पार्श्वों में दो सैनिक पीतवर्णी  [4] ध्वज लेकर चल रहे थे। आर्या पूषा ने इस ध्वज में पीत पृष्ठ भूमि पर श्वेत रंग से सूर्य अंकित किया था। उनके पीछे एक रथ था जिसमें जन के पुरोहित ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा विराजमान थे। उनके एक ओर हस्ति पर आरूढ़ आर्य अतिरथ तथा दूसरी ओर आर्य सुमति चल रहे हैं। उनके पीछे सबसे पहले हस्ति सैन्य, उसके पश्चात् अश्व सैन्य, उसके पीछे रथ सैन्य और सबसे अंत में पद सैन्य पंक्ति बद्ध होकर चली।

राजन् सुरथ की योजना हर तरह से सोच-विचार कर बनायी गयी थी। प्रत्येक संभावित समस्या का हल पहले से ही खोजने का प्रयास किया गया था। सैनिकों के लिये भोजन सामग्री जुटाने के लिये पहले से ही अन्य सैनिक निर्धारित कर दिये गये थे ताकि अन्य सैनिक निंश्चित रह कर युद्ध में सन्नद्ध रह सकें।

चतुरंगिणी को विदा देने आये तृत्सु-जन के रत्नियों, वृद्धों, ऋषियों, आर्य ललनाओं और बालकों ने अपने मन में नवीन चेतना, नवीन उत्साह, नवीन संभावनायें और नवीन कल्पनाओं को अंकुरित होते हुए अनुभव किया। स्वजनों को युद्ध क्षेत्र के लिये प्रस्थान करते हुए देखकर विछोह का कष्ट भी उनके शंका पूरित हृदयों में था किंतु इसके लिये वे अपने आप को कई दिवस पूर्व तैयार कर चुके थे। मंथर गति से आगे बढ़ती हुई चतुरंगिणी अपने पीछे धूलि का बड़ा सा वृत्त छोड़ती हुई नेत्रों से ओझल हो गयी तो आर्य स्त्री-पुरुष फिर से अपनी पर्णशालाओं को लौटे।

राजन् सुरथ उनके लिये भी एक बड़ा कार्य छोड़ गये थे। राजन् की अनुपस्थिति में जन की सुरक्षा के विशेष प्रबंध किये गये थे। वृद्ध पूषण को पुरप नियुक्त करके उन्हें जन के रक्षण का भार दिया गया था। पुरप की सहायता के लिये एक लघु सैन्य भी जन में रखा गया था। जब तक यह चतुरंगिणी पुनः लौट कर आये, आर्यों को पुरप पूषण के नेतृत्व में जन के चारों ओर दीर्घ भित्ति का निर्माण करके एक पुर का निर्माण करना था। वृद्ध आर्यों ने अनुभव किया कि वे पुर निर्माण की नवीन परम्परा को स्वीकार करने जा रहे थे। एक ऐसी परम्परा जो आर्यों की नहीं थी, असुरों की थी किंतु इसे स्वीकार कर लेना वर्तमान समय की आवश्यकता थी।


[1] जिस सेना में पैदल सैनिकों के साथ हाथी, घोड़े तथा रथों पर सवार सैनिक हों उसे चतुरंगिणी अर्थात् चार अंगों वाली सेना कहते हैं।

[2] एकता का सूत्र।

[3] न टूटा हुआ चावल।

[4] पीले रंग का।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source