Saturday, July 27, 2024
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10. अग्निहोत्र

इस समय आर्य-जन प्रातःकालीन अग्निहोत्र की तैयारी में संलग्न हैं। ऋषिगण चारों दिशाओं का वंदन कर रहे हैं। ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने पूर्व दिशा को नमस्कार करते हुए कहा- ‘प्रकाश दायिनी पूर्व दिशा का अधिपति सूर्य है। इसकी बाणरूप रश्मियाँ समस्त बंधनों से रहित करने वाली हैं। जगत की रक्षा करने वाले सूर्य को हमारा नमस्कार है। जो अज्ञानी हमसे द्वेष रखते हैं वे परम प्रतापी सूर्य की दाढ़ में हैं अतः हम किसी से वैर न रखें।’ [1]

  – ‘समृद्धि दायिनी दक्षिण दिशा का स्वामी इन्द्र है जो कीट-पतंगों के समान कुटिल मार्ग पर चलने वाले दुष्टों का नाश करता है। ऐसे इंद्र को हमारा नमस्कार है। जो अज्ञानी हमसे द्वेष रखते हैं वे परम प्रतापी इंद्र की दाढ़ में हैं अतः हम किसी से वैर न रखें।’ [2] ऋषि नारायण ने दक्षिण दिशा को नमस्कार करते हुए कहा।

  – ‘वैराग्य दायिनी पश्चिम दिशा का स्वामी वरुण है जो सर्पादि विषधारी प्राणियों से रक्षा करने वाला है। ऐसे वरुण को हमारा नमस्कार है। जो अज्ञानी हमसे द्वेष रखते हैं वे परम प्रतापी वरुण की दाढ़ में हैं अतः हम किसी से वैर न रखें।’ [3] ऋषि उग्रबाहु ने पश्चिम दिशा को नमस्कार करते हुए कहा।

  – ‘शांति दायिनी उत्तर दिशा का स्वामी सोम है जो स्वयं उत्पन्न होने वाले रोगों से रक्षा करने वाला है। ऐसे सोम को हमारा नमस्कार है। जो अज्ञानी हमसे द्वेष रखते हैं वे परम प्रतापी सोम की दाढ़ में हैं अतः हम किसी से वैर न रखें।’[4] ऋषि पर्जन्य ने उत्तर दिशा को नमस्कार करते हुए कहा।

दिशाओं को नमन करने के पश्चात् देवताओं को प्रणाम आरंभ हुआ।

  – ‘जिन्होंने स्वयं को दिव्य बनाया और हमारे लिये दिव्य वातावरण बनने हेतु स्वयं का उत्सर्ग किया, उन देवपुरुषों को नमन।’[5] ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने देवों को प्रथम नमस्कार किया।

  – ‘जिन्होंने स्वयं को जीता और सत्प्रवृत्तिा संवर्धन में प्राणपण से संलग्न रहे, उन महाप्राणों को नमन्।’[6] आर्य सुरथ ने भी नतमस्तक हो देवों को नमस्कार किया।

  – ‘जो मूढ़ता और अनीति से जूझने की सामथ्र्य प्रदान करते हैं, उन महारुद्रों को नमन्।’[7] आर्य पूषन ने देवों को नमन करते हुए कहा।

  – ‘जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं उन आदित्यों को नमन।’ [8]आर्य सुनील ने देवों को नमस्कार किया।

  – ‘संतानों को सुसंस्कार और स्नेह देने वाली मातृशक्तियों को नमन।’ [9]ऋषिपत्नी अदिति ने मातृशक्तियों को नमस्कार किया।

  – ‘जिन्हें दुर्बलता से लगाव नहीं और जो उद्दण्डता को सहन नहीं करते, उन महाशक्तिशाली देवों को नमन।’[10] ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने पुनः देवों को नमस्कार किया।

दिशाओं और देवों को नमस्कार कर ऋषिगणों ने अहोरात्र प्रज्वलित रहने वाली अग्नि की वंदना की।

  – ‘हे अग्नि! हमें ऊपर उठना सिखायें।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने दोनों बाहु आकाश में उठाकर अग्नि का आह्वान किया।

  – ‘हे अग्नि! हमें प्रकाश से भर दें।’ ऋषिवर नारायण ने अग्निदेव से करबद्ध प्रार्थना की।

  – ‘हे अग्नि! हमें आपके अनुरूप बनने तथा दूसरों को अपने अनुरूप बनाने की क्षमता प्रदान करें।’ आर्य सुरथ ने अग्नि से प्रार्थना की।

– ‘हे अग्नि! हम भी आपकी भांति सुगंधि और प्रकाश बाँटने लगें।’ आर्या पूषा ने प्रार्थना की।

  – ‘ऊँ अग्ने नय सुपथा राये, अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयष्ठां ते नम उक्तिं विधेम्।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा के साथ सबने उच्चारित किया।

अग्नि का आह्वान पूर्ण हुआ ही था कि आर्या मेधा और आर्या द्युति लगभग भागती हुई यज्ञशाला में उपस्थित हुईं। उन्हें रिक्त हस्त आया देखकर ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने पूछा- ‘क्या बाता है आर्या! आप सोम नहीं लाईं! अग्नि का आह्वान हो चुका है। हम आहुतियाँ आरंभ करने वाले हैं।’

  – ‘ऋषिवर! हमने सोम का बहुत आह्वान किया किंतु वह प्रकट नहीं हुआ।’ आर्या मेधा ने अत्यंत विनम्र शब्दों में निवेदन किया।

  – ‘क्यों ? कल संध्या काल में ही तो हमने परुष्णि के तट पर सोम की अभ्यर्थना-वंदना की थी। कल तक तो सोम वहाँ उपस्थित था। एक ही रात्रि में सोम विलुप्त कैसे हो गया ?’

  – ‘परुष्णि के तट पर कुछ सोम वल्लरियाँ कुचली हुई पड़ी हैं और सम्पूर्ण तट सोम से विहीन है।’

  – ‘किसने किया यह दुष्कर्म ?’ कई आर्य एक साथ बोल उठे। उनके स्वर में क्षोभ और उद्विग्नता स्पष्ट अनुभव की जा सकती थी।

  – ‘ऋषिवर नारायण! आप अहोरात्र में समिधा प्रतिष्ठित कर घृत, मधु, व्रीहि और दिव्य वनस्पतियों की आहुतियाँ आरंभ कीजिये। हम आर्य सुरथ और आर्य सुनील के साथ सोम की खोज में जाते हैं तथा यथाशीघ्र लौटने का प्रयास करते हैं। तब तक आप यज्ञ आरंभ रखें।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने आर्य सुरथ और आर्य सुनील को अपने साथ आने का आदेश देते हुए कहा।

ऋषि नारायण ने चिंतित नेत्रों से व्याकुल आर्य समुदाय को देखा और आहुतियाँ आरंभ कीं। यज्ञशाला से बाहर निकलते हुए ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा भी कम उद्विग्न नहीं दिखाई दे रहे थे।

ऋषि सौम्यश्रवा और दोनों आर्यवीरों ने परुष्णि के तट पर जाकर देखा। परुष्णि का सोम विहीन तट सम्पूर्ण श्री खोकर अत्यंत अमंगलकारी दिखाई दे रहा था। यत्र-तत्र सोम वल्लरियाँ कुचली हुई पड़ी थीं। सूक्ष्मता से निरीक्षण करने पर परुष्णि के नम तट पर असुरों के पदचिह्न भी दिखाई दिये।

  – ‘निश्चित ही यह दुष्कर्म पापी असुरों ने किया है। ये रहे उनके पदचिह्न।’ आर्य सुरथ ने ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा को एक स्थल पर बने पदचिह्न दिखाये।

  – ‘ये वृहत् पदचिह्न असुरों के अतिरिक्त किसी और प्राणी के हो ही नहीं सकते।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने आर्य सुरथ के मत से सहमत होते हुए कहा।

  – ‘अब क्या होगा आर्य ?’ असुरों ने तो सम्पूर्ण सोम नष्ट कर दिया। आर्य सुनील ने चिंता व्यक्त की।

  – ‘सोम के अभाव में हमारे यज्ञ अपूर्ण रह जायेंगे।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा के मुखमण्डल पर चिंता की रेखायें और स्पष्ट हो आयीं।

सोम की तत्क्षण उपलब्धि का कोई उपाय नहीं था। निकटतम जन भी यहाँ से कई योजन दूर था जहाँ से सोम मंगवाने में दस-पंद्रह दिन लग जाना स्वाभाविक था। आज की पूर्णाहुति कैसे होगी! इसी प्रश्न पर विचार करते हुए ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा और दोनों आर्य वीर यज्ञ शाला को लौटे। अंत में यह निश्चित किया गया कि अग्नि को सोम अर्पित करने में असमर्थ रहने के लिये अग्नि से क्षमा याचना की जाये तथा सोम के साथ दी जाने वाली आहुतियाँ घृत से दी जायें। दैनिक आहुतियों का क्रम विधिवत् पूर्ण कर चिंतित एवं व्यथित स्वरों से आर्यों ने पूर्णाहुति दी-

  – ‘ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते। स्वाहा। ऊँ सर्वं वै पूर्णग्वं स्वाहा।’


[1] प्राचीदिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दघ्मः ।

[2] दक्षणिादिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दघ्मः

[3] प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाक् रक्षितान्नमिषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दघ्मः ।

[4] उदीचीदिक् सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दघ्मः।

[5] सर्वेभ्यो देवपुरुषेभ्यो नमः।

[6] सर्वेभ्यो महाप्राणेभ्यो नमः।

[7] सर्वेभ्यो रुद्रेभ्यो नमः।

[8] सर्वेभ्यो आदितेभ्यो नमः।

[9] सर्वेभ्यो मातृशक्तिभ्यो नमः।

[10] सर्वेभ्यो देवशक्तिभ्यो नमः।

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