– ‘प्रसाद का अपमान! भाभीसा, आप तो स्वयं को भगवान की भक्त कहती हैं!’ विक्रमादित्य ने चीख कर कहा।
– ‘यह प्रसाद नहीं है कुंअरजू! यह मांस है। हम इसे ग्रहण नहीं कर सकते।’
– ‘यह देवी को अर्पित किये गये भैंसे का मांस है। इस नाते यह प्रसाद है।’
– ‘भले ही यह देवी को अर्पित किया गया है किंतु यह है तो मांस ही।’
– ‘आप जानती हैं कि जब महाराणाजू को पता चलेगा कि आपने राजमहल की मर्यादा भंग की है और दशहरे के प्रसाद को मांस कहकर त्याग दिया है तो वे बहुत कुपित होंगे।’
– ‘मेरा पूरा विश्वास है कि राणाजू यह सुनकर कुपित नहीं होंगे।’
मीरां की ओर से निरुत्तर होकर राजकुमार विक्रमादित्य ने अपने बड़े भाई युवराज भोजराज की ओर देखा ठीक उसी समय कुंवरानी मीरां ने भी अपने पति भोजराज की ओर देखा कुंअर भोजराज ने दोनों की ही आँखों में अपने लिये समर्थन की चाह देखी किंतु जहाँ कुंवरानी मीरां के नेत्रों में समर्थन प्राप्त करने का विनम्र अनुरोध था, वहीं विक्रमादित्य की आँखों में क्रोध की ज्वाला दहक रही थी।
– ‘क्यों न हम यह फैसला राणाजू से ही करवा लें!’ भोजराज ने सुझाव दिया। वह जानता था कि विक्रम नीच है, जब तक राणाजू अपने मुख से निर्देश न करेंगे, यह पीछा छोड़ने वाला नहीं।
– ‘ठीक है, आज फैसला हो ही जाये।’ विक्रमादित्य ने फुंकार कर कहा।
तीनों ही व्यक्ति थोड़ी दूर बैठे राणाजी के पास गये। राणाजी तकिये का सहारा लेकर कुछ विश्राम करने का प्रयास कर रहे थे। पूरा का पूरा भैंसा तलवार के एक ही वार से काट डालने से उन्हें कुछ थकान सी हो आयी थी, अब वे पहले जैसे युवा नहीं रहे थे।
– ‘महाराणाजू! भाभीसा प्रसाद लेने से मना करती हैं।’
– ‘क्यों बनीसा! क्या देवर-भौजाई में फिर कोई लड़ाई हो गयी।’
– ‘नहीं राणासा, कोई लड़ाई नहीं हुई’
– ‘तो फिर आपके देवरसा आपकी शिकायत क्यों करते हैं?’
– ‘हमने देवरजू को कहा कि हम मांस नहीं खाते।’
– ‘लेकिन पुत्री यह मांस नहीं, भगवान का प्रसाद है।’
– ‘दाता! हम वही प्रसाद ग्रहण करते हैं, जिसे हमारे आराध्य किशन कन्हाई ग्रहण करते हैं।’
– ‘तो ठीक है, आप हलुआ खाईये, प्रसाद में वह भी तो बना है।’
– ‘हाँ! हम वह प्रसाद ग्रहण कर लेंगे।’
– ‘लेकिन राणाजू भाभीसा कब तक अपनी मनमानी करेंगी? वे भिखारियों के साथ बैठकर गीत गाती हैं। जाने कौन-कौन लोग इनके महलों में आते हैं जिन्हें प्रसन्न करने के लिये आप पूरी-पूरी रात नाचती हैं। भाई साहब को तो राज परिवार की कोई मर्यादा का भान है नहीं। क्या उन्हें दिखायी नहीं देता कि मेवाड़ की भावी महाराणी बिना पर्दा किये पराये मर्दों के साथ उठती बैठती हैं?
– ‘आप जाइये कुंअर जू! मीरां अभी बच्ची है। समय आने पर हम उसे सब कुछ समझा देंगे।’
– ‘लेकिन राणाजी आज तो यह बेपर्दा होकर नाच रही है लेकिन कल को जब राज परिवार का हर सदस्य मर्यादा भंग करने पर उतारू हो जायेगा। तब क्या होगा?’
– ‘हमने कहा ना अब आप जाइये। आप अपनी बात कह चुके हैं।’ राणा ने व्यथित होकर कहा।
– ‘लेकिन राणाजी………!’
– ‘विक्रम!!’ राणा ने आँख दिखाई तो विक्रम सहम गया। आगे के शब्द उसके मुँह में ही रह गये। वह लाल-लाल आँखों से कुंवरानी मीरां को देखता हुआ वहाँ से चला गया।
– ‘कुंअरजू!’ विक्रम के जाने के बाद महाराणा ने भोजराज को सम्बोधित किया।
– ‘हाँ महाराणाजू!’
– ‘इस दुष्ट का ध्यान रखना। जब मैं न रहूंगा तो यह तुम्हें और मीरां को बहुत कष्ट देगा। दासी पुत्र बनवारी ने इसकी बुद्धि मलिन कर दी है। इसका मामा सूरजराज भी इसे उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाता रहता है। यह अकारण ही अपने भाइयों से वैर करता घूमता है।’ महाराणा ने दीर्घ साँस छोड़ते हुए कहा। मीरां अपने श्वसुर के माथे की धूल सिर में लगा कर अपने महल के लिये चली गयी।
उस रात मीरां के महल से देर तक तानपूरे की आवाज आती रही। मीरां गा रही थी-
हे री मैं तो प्रेम दीवाणी मेरा दरद न जाने कोय।
सूली ऊपर सेज हमारी, किस विधि सोना होय।।
गगन मण्डल पै सेज पिया की, किसी विधि मिलना होय।
दरद की मारी बन बन डालूँ वैद मिला नहिं कोय।।
मीरां की प्रभु पीर मिटै जब वैद साँवरिया होय।
मीरां के कोमल कण्ठ से निकली स्वर माधुरी से चित्तौड़ के रजकण उसी प्रकार चैतन्य हो गये जिस प्रकार चंदन से चर्चित होने पर प्रस्तरों से भी सुगंध आने लगती है। महाराणा बहुत देर तक कुंवराणी के महलों के बाहर खड़ा उसके भजन सुनता रहा।