चौसा की विजय के उपरान्त शेर खाँ ने स्वयं को बनारस में स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और सुल्तान-ए-आदिल की उपाधि धारण की। अफगान सेना ने बंगाल को फिर से जीत लिया और वहाँ के मुगल गवर्नर जहाँगीर कुली खाँ की हत्या कर दी। अब शेर खाँ ने भारत विजय की योजना बनाई। उसने अपने पुत्र कुत्ब खाँ को यमुना नदी के किनारे-किनारे आगरा की ओर बढ़ने का आदेश दिया और स्वयं एक सेना के साथ कन्नौज के लिए चल पड़ा।
13 मार्च 1540 को हुमायूँ 90 हजार सैनिक लेकर कन्नौज के लिए रवाना हुआ। कालपी के निकट मुगल सेना का कुत्ब खाँ से भीषण संघर्ष हुआ जिसमें कुत्ब खाँ परास्त हुआ और मारा गया। हुमायूँ ने गंगा नदी पार करके उसके किनारे पड़ाव डाल दिया। अब वह शेर खाँ की गतिविधियों पर बारीकी से दृष्टि रखने लगा।
शेर खाँ अपने सेनापति खवास खाँ की प्रतीक्षा कर रहा था जिसे बंगाल-विजय के लिए भेजा गया था। जब खवास खाँ कन्नौज आ गया तब शेर खाँ युद्ध करने के लिए तैयार हो गया।
यह हुमायूँ की अदूरदर्शिता थी कि उसने खवास खाँ के आने से पहले ही शेर खाँ पर हमला नहीं किया। यदि हुमायूँ ऐसा कर सकता तो उसे शेर खाँ की आधी सेना से ही लड़ना पड़ता किंतु हुमायूँ में दूरदृष्टि का अभाव था और वह रणनीति बनाने के मामले में बिल्कुल ही अनाड़ी सिद्ध हुआ।
गंगाजी के एक ओर शेर खाँ का शिविर था और गंगाजी के दूसरी ओर मुगलों का शिविर था। दोनों शिविरों के बीच 23 मील की दूरी थी। अप्रैल के महीने में हुमायूँ की सेना ने गंगाजी को पार करके गंगाजी से तीन मील दूर बिलग्राम के निकट अपना शिविर स्थापित किया। मुगलों की सेना, अफगान सेना की अपेक्षा कुछ निचले स्थान में थी। 15 मई 1540 को बड़ी भारी वर्षा हुई जिसके कारण हुमायूँ का शिविर वर्षा के पानी से भर गया।
हुमायूँ ने चौसा के युद्ध से सबक लेते हुए अपनी सेना को ऊंचे स्थान पर ले जाने का प्रयत्न किया किंतु यही वह क्षण था जिसकी प्रतीक्षा शेर खाँ को थी। जब मुगल सेना अपना शिविर-स्थल बदलने में व्यस्त थी तब शेर खाँ मुगल सेना के दोनों पक्षों अर्थात् दाएं और बाएं तरफ से टूट पड़ा। इस कारण इस बार भी हुमायूँ को अपनी तोपें तथा बंदूकें चलाने का अवसर नहीं मिल सका।
हुमायूँ और उसके सेनापति मिर्जा हैदर ने आनन-फानन में मोर्चा संभाला तथा अपने सैनिकों को युद्ध करने के आदेश दिए किंतु तब तक ऐसी अफरा-तफरी मच गई थी कि मुगल सेना कुछ करने की स्थिति में नहीं आ सकी। मिर्जा हैदर ने लिखा है- ‘एक गोली तक नहीं चलाई गई। गोला बारूद का कतई काम नहीं पड़ा।’
अफगानों का आक्रमण ऐसा भयंकर था कि मुगलों के छक्के छूट गए और वे युद्ध-स्थल से भाग निकले। भगदड़ के कारण शिविर के असैनिक कर्मचारी भेड़िया-धसान के समान सैनिकों के सामने आ गए जिससे मुगल सैनिकों को रोके रखने के हुमायूँ के सारे प्रयत्न निष्फल हो गए।
हुमायूँ को भी लाचार होकर आगरा की तरफ भागना पड़ा। बड़ी कठिनाई से वह नदी पार कर सका। उसके बहुत से आदमी नदी में डूब गए और बहुत कम लोग हुमायूँ के साथ रह गए। रास्ते में मैनपुरी जिले में भोगांव के लोगों ने हुमायूँ के दल पर आक्रमण कर दिया जिसके कारण हुमायूँ के प्राण संकट में पड़ गए किंतु हुमायूँ वहाँ से भी जीवित बच निकलने में सफल रहा। भारत के इतिहास में इस युद्ध को कन्नौज का युद्ध अथवा बिलग्राम का युद्ध कहते हैं। बाबर ने तोपों और बंदूकों के बल पर सिंधु नदी से लेकर गंगाजी के अंतिम छोर तक का भारत जीता था किंतु हुमायूँ ने बिना कोई तोप और बंदूक चलाए इस विशाल क्षेत्र की बादशाहत गंवा दी।
हुमायूँ एक कुशल योद्धा एवं अनुभवी सेनापति था। ग्यारह साल की आयु से ही उसने युद्धों में भाग लेना तथा युद्धों का नेतृत्व करना आरम्भ कर दिया था, फिर भी हुमायूँ एक अदने से जागीरदार के बेटे शेर खाँ से कैसे परास्त हो गया, इस बात पर विचार किया जाना आवश्यक है।
इतिहासकारों ने हुमायूँ की विफलता के कई कारण बताए हैं। उसकी विफलता का सबसे बड़ा कारण उसके भाइयों की गद्दारी को माना जा सकता है। जब भी हुमायूँ किसी युद्ध पर जाता था, तभी उसका कोई न कोई भाई सल्तनत के किसी न किसी हिस्से को दबाने का प्रयास करता था। इस कारण पंजाब हुमायूँ के हाथ से निकल गया और हुमायूँ पंजाब से मिलने वाले राजस्व एवं सैनिकों से वंचित हो गया।
मुहम्मद जमां मिर्जा, मुहम्मद सुल्तान मिर्जा, मेंहदी ख्वाजा आदि तैमूर-वंशीय मिर्जा, बाबर के सहयोगी रहे थे तथा स्वयं को बाबर के समान ही मंगोलों के तख्त का अधिकारी समझते थे। उन्होंने भी हुमायूँ के साथ गद्दारी की तथा गुजरात के शासक बहादुरशाह से जाकर मिल गए। इस कारण हुमायूँ की सल्तनत की शक्ति का वास्तविक आधार खिसक गया था।
हुमायूँ को एक साथ ही बहादुरशाह और शेर खाँ से युद्ध लड़ने पड़े। इस कारण हुमायूँ को अपनी शक्ति को एक स्थान पर केन्द्रित करने की बजाय दो स्थानों में बांटना पड़ा। हुमायूँ स्वयं भी कुछ विलासी हो गया था जिसके कारण वह प्रायः समय पर कार्यवाही नहीं कर पाता था और न दूरदृष्टि रखते हुए अपनी ओर से कोई रणनीति बना पाता था।
हुमायूँ की धर्मांधता भी उसके डूबने का बहुत बड़ा कारण थी। जब मेवाड़ की राजमाता ने हुमायूँ को राखी भेजकर मित्रता का हाथ बढ़ाया था, तब हुमायूँ बहादुरशाह द्वारा गढ़ी गई जेहाद की राजनीति में फंसकर रह गया और उसने शक्तिशाली मेवाड़ियों की मित्रता का अवसर हाथ से खो दिया। यदि उसने मेवाड़ियों को अपना मित्र बनाया होता तो संभव है कि हुमायूँ को मेवाड़ियों की वैसी ही सहायता मिली होती जैसी सहायता उसे राजा वीरभान बघेला से मिली थी और उसके प्राण बचे थे।
बिलग्राम के युद्ध में विजयी होने के बाद शेर खाँ ने शेरशाह की उपाधि धारण की, अपने नाम का खुतबा पढ़वाया और अपने नाम की मुद्राएँ चलवाईं। यही कारण है कि इतिहास की पुस्तकों में शेर खाँ को शेरशाह सूरी कहा जाता है।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता