Friday, April 19, 2024
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59. अपने परिवार की औरतों को मार डालना चहता था हुमायूँ!

कन्नौज अथवा बिलग्राम के युद्ध में परास्त होने के बाद हुमायूँ बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचा सका और किसी तरह नदी पार करके आगरा की तरफ चल दिया। उसके बहुत से सैनिक अफगानों द्वारा मार डाले गए और बहुत से सैनिक गंगाजी पार करते समय डूब कर मर गए। इस कारण हुमायूँ के पास बहुत कम सैनिक रह गए।

हुमायूँ बड़ी कठिनाई से आगरा तक पहुंच सका किंतु शेरशाह ने हुमायूँ का पीछा नहीं छोड़ा। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि हमारे लाहौर पहुंचने के कुछ दिन बाद हमें कन्नौज में शाही सेना के परास्त होने तथा बादशाह हुमायूँ के जीवित बचकर आगरा की तरफ जाने के समाचार मिले। पाठकों को स्मरण होगा कि जब हुमायूँ कन्नौज की लड़ाई के लिए जा रहा था तब कामरान बलपूर्वक अपनी सौतेली बहिन गुलबदन को अपने साथ लाहौर ले गया था।

अब शेरशाह हुमायूँ को संभलने का अवसर नहीं देना चाहता था। इसलिए शेरशाह ने एक सेना सम्भल की ओर तथा दूसरी सेना आगरा की ओर भेजी। हुमायूँ अत्यन्त भयभीत हो गया। वह केवल एक रात आगरा में रहा तथा दूसरे दिन अपने परिवार और कुछ खजाने के साथ दिल्ली के लिए रवाना हो गया।

हुमायूँ के पास कोई सेना नहीं थी, इसलिए वह जानता था कि दिल्ली में रुकना व्यर्थ है। अतः उसने अपने भाई मिर्जा हिंदाल के पास अलवर जाने का निश्चय किया। हुमायूँ अपने हरम तथा खजाने के साथ अलवर पहुंचा किंतु वहाँ पहुंचकर हुमायूँ को लगा कि अलवर में रुकने से भी कोई लाभ नहीं है क्योंकि मिर्जा हिंदाल के पास भी इतनी सेना नहीं है कि वह शेर खाँ की सेना से लड़ सके। अतः हुमायूँ और हिंदाल ने अजमेर होते हुए लाहौर जाने का मार्ग पकड़ा ताकि अपने परिवार की औरतों को कामरान के पास सुरक्षित पहुंचाया जा सके।

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गुलबदन बेगम ने लिखा है- ‘बादशाह हुमायूँ ने हिंदाल से कहा कि चौसा की दुर्घटना के समय अकीकः बीबी खो गई थी, इस कारण मैं बहुत दुःखी रहता हूँ कि मैंने उसे युद्ध से पहले ही क्यों नहीं मार डाला। अब भी स्त्रियों का हमारे साथ सुरक्षित स्थान पर पहुंचना कठिन है। अतः क्यों न परिवार की समस्त स्त्रियों को मार दिया जाए!’

इस पर मिर्जा हिंदाल ने बादशाह से प्रार्थना की कि- ‘माता और बहिनों को मारना कैसा पाप है सो आप पर स्वयं प्रकट है परन्तु जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं तब तक मैं उनकी सेवा में अथक परिश्रम करता हूँ और आशा करता हूँ कि अल्लाह की कृपा से मैं माता और बहिनों के चरणों में अपने प्राण न्यौछावर करूंगा!’

गुलबदन बेगम ने इस सम्बन्ध में आगे कुछ नहीं लिखा है किंतु इतिहास में इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि हुमायूँ ने मुगल हरम की औरतों को शत्रुओं के हाथों में पड़ने के भय से मारा हो। अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि हिंदाल की बात सुनकर हुमायूँ ने अपना विचार बदल दिया। संभवतः हुमायूँ ने अपना हरम मिर्जा हिंदाल के संरक्षण में दे दिया।

गुलबदन बेगम ने लिखा है- ‘मिर्जा हिंदाल अपनी माता दिलदार बेगम, बहिन गुलचेहर बेगम, बेगम अफगानी आगाचः, गुलनार आगाचः, नाजगुल आगाचः और अमीरों की स्त्रियों को आगे करके चले। मार्ग में एक स्थान पर गंवारों ने उन पर आक्रमण किया। मिर्जा हिंदाल के सैनिकों ने बड़ी कठिनाई से उन गंवारों पर नियंत्रण पाया और बाबर के खानदान की औरतों की रक्षा की।’

यह घटना किस स्थान की है और आक्रमणकारी गंवार कौन थे, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है।

बिहार की तरह पंजाब में भी रोहतास नामक एक दुर्ग है। यह अब भी हुमायूँ के अधीन था। हुमायूँ और हिंदाल अपने परिवारों को लेकर रोहतास पहुंचे किंतु यहाँ रुकने से भी कोई लाभ नहीं होने वाला था क्योंकि जब हुमायूँ और हिंदाल के पास सेना ही नहीं थी तो दुर्ग की रक्षा कौन करता!

अब दोनों भाइयों ने लाहौर के लिए प्रस्थान किया। उनके सामने सबसे बड़ी समस्या अपने परिवार को सुरक्षित बनाने की थी। उन्हें लगता था कि कामरान अवश्य ही बाबर के खानदान की औरतों एवं बच्चों को संरक्षण प्रदान करेगा क्योंकि कामरान के पास पर्याप्त बड़ी सेना थी।

कुछ समय में ये दोनों भाई अपनी योजना के अनुसार लाहौर पहुंच गए। हालांकि हुमायूँ और कामरान के बीच विश्वास का वातावरण नहीं था किंतु इस समय हुमायूँ के पास कामरान से सहायता प्राप्त करने के अतिरिक्त और कोई सहारा नहीं था।

गुल बदन बेगम ने लिखा है कि लाहौर में बीबी हाजताज के पास ख्वाजः गाजी का बाग है। बादशाह का काफिला वहीं पर आकर ठहरा। बादशाह तीन महीने तक लाहौर में रहा। लाहौर में हुमायूँ को सूचना मिली कि शेरशाह ने आगरा तथा दिल्ली पर बिना किसी लड़ाई के ही अधिकार कर लिया है तथा अब वह पंजाब की ओर बढ़ रहा है। शेरशाह प्रतिदिन दो-तीन कोस बढ़ता हुआ सरहिंद पहुंच गया।

कामरान तो लाहौर में था ही, कुछ ही दिनों बाद मिर्जा अस्करी भी उनसे आ मिला। चारों भाइयों ने मिलकर बाबर के खानदान पर आई इस विपत्ति पर विचार किया परन्तु उन्हें शेर खाँ से लोहा लेना असम्भव प्रतीत हुआ।

हुमायूँ ने मुजफ्फर बेग तुर्कमान नामक अमीर को काजी अब्दुल्ला के साथ शेरशाह के पास भेजकर कहलवाया- ‘यह क्या न्याय है? कुल देश हिंदुस्तान को तुम्हारे लिए छोड़ दिया है, एक लाहौर बचा है। हमारे और तुम्हारे मध्य में सरहिंद सीमा रहे।’

शेरशाह ने हुमायूँ को जवाब भिजवाया- ‘तुम्हारे लिए काबुल छोड़ दिया है, तुम वहाँ जाकर रहो।’

गुलबदन ने लिखा है- ‘शेरशाह का उत्तर लेकर मुजफ्फर बेग उसी समय सरहिंद से लाहौर के लिए रवाना हो गया। उसने हुमायूँ से कहा कि तुरंत कूच करना चाहिए। समाचार सुनते ही बादशाह हुमायूँ ने लाहौर से रवानगी की। वह दिन मानो प्रलय का दिन था कि सजे हुए सामानों और सब स्थानों को वैसे ही छोड़ दिया गया केवल सिक्के साथ लिए गए। अल्लाह को धन्यवाद है कि लाहौर की नदी का उतार मिल गया जिससे सब मनुष्य नदी के पार उतर गए। हुमायूँ भी रावी नदी को पार करके दूसरी तरफ चला गया।’

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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