Friday, October 4, 2024
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99. भूख से व्याकुल तुर्की सैनिक जैसलमेर का दुर्ग छोड़कर भाग गए!

जैसलमेर की सेना ने मलिक काफूर को मार भगाया। दिल्ली की सेना के भाग जाने के बाद राजपूतों ने उन पत्थरों को नीचे से उठाकर फिर से दुर्ग की प्राचीर पर रख लिया जिन्हें दुर्ग की प्राचीर से गिराया गया था। वे पत्थर आज भी विजय-चिह्न के रूप में दुर्ग की प्राचीर पर रखे हुए हैं। जैसलमेर की सेना ने दुर्ग की मरम्मत कर ली तथा रसद आदि का भी अच्छा प्रबंध कर लिया क्योंकि उन्हें आशा थी कि दिल्ली की सेना लौटकर अवश्य आएगी तथा इस बार पहले से भी अधिक बड़ी सेना आएगी।

मलिक काफूर की शर्मनाक पराजय के बाद अमीर कमालुद्दीन गुर्ग को सुल्तान के सामने स्वयं को सही सिद्ध करने का अवसर प्राप्त हो गया। सुल्तान ने मलिक काफूर को जैसलमेर अभियान से हटा दिया तथा कमालुद्दीन गुर्ग को ही फिर से जैसलमेर अभियान का प्रमुख बना दिया।

शाही सेना के वापस आने से पहले, दुर्ग में कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटीं जिनका दुर्ग की सुरक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ा। हुआ यह कि कुछ वर्ष पहले जैसलमेर के एक मंत्री विक्रमसिंह पर गबन का आरोप लगाया गया था जिसके कारण रावल जैतसिंह ने मंत्री विक्रमसिंह को अपने राज्य से निकाल दिया था। जब विक्रमसिंह को ज्ञात हुआ कि दिल्ली की सेना दोबारा जैसलमेर आ रही है तो विक्रमसिंह ने रावल जैतसिंह के पास अनुरोध भिजवाया कि मातृभूमि पर आए इस संकट के समय वह मातृभूमि की सेवा करना चाहता है।

इस पर रावल जैतसिंह ने विक्रमसिंह को फिर से सेवा में रख लिया। विक्रमसिंह के अनुरोध पर रावल ने गबन के पुराने आरोपों की जांच करवाई तो उसमें विक्रमसिंह को निर्दोष पाया गया। इस कारण झूठा आरोप लगाने वाले मंत्रियों को जैसलमेर छोड़कर जाना पड़ा। इसके कुछ दिन बाद ही रावल जैतसिंह की मृत्यु हो गई तथा उसका बड़ा पुत्र मूलराज भाटी जैसलमेर का रावल बन गया।

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कमालुद्दीन गुर्ग एक बार फिर से एक बड़ी सेना लेकर जैसलमेर पहुंचा और दुर्ग को घेर कर बैठ गया। इस बार भी घेरा बहुत लम्बा चला। जैसलमेर की ख्यातों में लिखा है कि बारह साल तक शाही सेना दुर्ग को घेर कर बैठी रही किंतु दुर्ग में नहीं घुस सकी। इस अवधि को ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारा जा सकता किंतु इतना अवश्य है कि इस बार का घेरा पहले से भी अधिक लम्बी अवधि तक चला।

धीरे-धीरे दुर्ग में रसद-पानी समाप्त होने लगा। यहाँ तक कि केवल पशुओं के खाने के लिए ग्वार ही बचा रहा। इस पर रावल मूलराज एवं रतनसिंह ने साका करने का निर्णय लिया। एक रात दुर्ग के भीतर की समस्त औरतों ने जौहर किया। रावल मूलराज ने अपने वंश को बचाए रखने के लिए अपने पुत्रों घड़सी एवं लक्ष्मण को भाटी चानण एवं उनड़ के संरक्षण में दुर्ग से बाहर भेज दिया।

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दूसरे दिन प्रातः होते ही रावल मूलराज तथा उसके भाई रतनसिंह ने दुर्ग के फाटक खुलवाए। हिन्दू वीर सिर पर केसरिया बांधकर एवं मुंह में तुलसीदल रखकर दुर्ग से बाहर निकले तथा मुस्लिम सेना पर टूट पड़े। मुस्लिम सेना भी इस आक्रमण के लिए पहले से ही तैयार थी। अंत में राजपूतों की ओर से लड़ रहा प्रत्येक पुरुष युद्धक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुआ। ‘जैसलमेर री ख्यात’, ‘जैसलमेर की तवारीख’ एवं कर्नल टॉड की ‘एनल्स एण्ड एण्टिक्विटीज’ में इस युद्ध का वर्णन हुआ है किंतु किसी भी मुस्लिम तवारीख में इस युद्ध का उल्लेख नहीं हुआ है। जैसलमेर दुर्ग के संभवनाथ जैन मंदिर में वि.सं.1497 अर्थात् ई.1440 का एक शिलालेख मिला है जिसमें इस युद्ध का उल्लेख किया गया है।

जैसलमेर दुर्ग में स्थित पार्श्वनाथ जैन मंदिर में वि.सं.1473 अर्थात् ई.1416 का एक और शिलालेख मिला है जिसमें कहा गया है कि रावल घड़सी ने म्लेच्छों को मारकर इस दुर्ग को अपने अधिकार में लिया। ये शिलालेख इस ओर संकेत करते हैं कि भाटियों ने किसी युद्ध में जैसलमेर दुर्ग को गंवा दिया था जिस पर बाद में रावल घड़सी ने पुनः अधिकार किया।

कुछ अन्य स्रोतों से पुष्टि होती है कि अल्लाउद्दीन की सेना ने ई.1314 में जैसलमर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह घेरा 6 साल तक चला था क्योंकि घेरा आरम्भ होने की तिथि ई.1308 से पहले नहीं हो सकती। यह देखकर हैरानी होती है कि इतने साल तक चले इस अभियान के सम्बन्ध में किसी भी फारसी पुस्तक में एक पंक्ति तक नहीं लिखी गई है जबकि हिन्दू पुस्तकें इस अभियान पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध करवाती हैं।

जैसलमेर के निर्जन दुर्ग पर मुस्लिम सेना का अधिकार हो गया। कमालुद्दीन गुर्ग ने दुर्ग पर एक चौकी स्थापित की तथा अपने कुछ सैनिक वहाँ नियुक्त कर दिए। इसके बाद दिल्ली सल्तनत की सेना फिर से दिल्ली लौट गई। जब इन सैनिकों के उपयोग के लिए दिल्ली से रसद एवं कोष आता था तब भाटी राजपरिवार की शाखा के वंशज दूदा तथा तिलोकसी उस रसद एवं कोष को लूट लेते थे। इस कारण दुर्ग में नियुक्त मुस्लिम सैनिक भूखों मरने लगे।

जैसलमेर का दुर्ग ऐसे विकट रेगिस्तान में स्थित था जहाँ सैंकड़ों मील दूर तक रेत के टीलों के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता था। दुर्ग के चारों ओर रेत के गुबार उड़ते थे जिनके कारण दिन में भी एक दूसरे की शक्ल तक दिखाई नहीं देती थी।

दुर्ग में रहने वाले राजपूत सैनिकों के परिवार खेती करके अपने खाने लायक बाजरा, मोठ और ग्वार उगा लेते थे और भेड़-बकरी आदि पशुओं को पाल लेते थे किंतु उनके चले जाने के कारण न तो कोई खेती करने वाला बचा था और न दुधारू पशुओं को पालने वाला। यह दुर्ग जिस पहाड़ी पर स्थित था, उस पहाड़ी पर कुछ प्राकृतिक तालाब बने हुए थे जिनमें भरे हुए पानी से मनुष्यों एवं ऊँटों का काम चल जाता था, अन्यथा कोसों दूर तक पानी की कोई उपलब्धता नहीं थी।

तुर्की सैनिक इन परिस्थितियों में रहने के अभ्यस्त नहीं थे। अतः एक दिन उन्होंने दुर्ग के टूटे हुए दरवाजों को कांटों की बाड़ से बंद किया तथा चुपचाप दुर्ग खाली करके दिल्ली चले गए।

इन तुर्की सैनिकों के साथ एक फकीर भी दुर्ग में रहने लगा था। उसे भी दुर्ग खाली करना पड़ा। एक दिन वह निकटवर्ती महेबा राज्य के शासक जगमाल राठौड़ से मिलने गया। जब उसने जगमाल राठौड़ को बताया कि तुर्की सैनिक जैसलमेर दुर्ग खाली करके भाग गए हैं तो जगमाल ने अपने सनिकों को तीन सौ ऊंटगाड़ियों पर बैठाकर दुर्ग पर अधिकार करने के लिए भेजा।

इसी बीच रावल घड़सी के वंशज दूदा को भी मुसलमानों द्वारा किला खाली करने की सूचना मिल गई। वह भी अपने सिपाहियों सहित दुर्ग में लौट आया। जब महेबा के सैनिक जैसलमेर दुर्ग पर अधिकार पहुंचे तो दूदा ने उन्हें भगा दिया तथा उनके 300 ऊँटगाड़ों को भी छीन लिया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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