अबूशका नामक एक लेखक ने लिखा है कि ख्वाजा कलां ने हौजे खास के निकट एक संगमरमर पर एक शेर खुदवाया जिसका अर्थ था कि मैं यदि हिन्दुस्तान की इच्छा करूं तो मेरा मुँह काला हो। जब बाबर (Babur) ने इस शेर को पढ़ा तो उसके क्रोध का पार नहीं रहा।
पानीपत की लड़ाई (Panipat Ki Ladai or Battle of Panipat) में विजयी होने के बाद पहले हुमायूँ और फिर बाबर (Babur) आगरा पहुंचे। बाबर के आगरा पहुंचने से पहले ही हुमायूँ (Humayun) ने आगरा के लाल किले (Red Fort of Agra) में रखे खजाने पर अधिकार जमा लिया था।
जब बाबर आगरा के लाल किले में पहुंचा तब उसने उन लोगों को बुलवाया जिन्होंने हुमायूँ (Humayun) को किला सौंपने में आनाकानी की थी। ये लोग इब्राहीम लोदी (Ibrahim Lodi) के शासन में बहुत ही प्रतिष्ठित हुआ करते थे किंतु बाबर ने उन्हें जान से मारने के आदेश दिए। उनमें एक अधिकारी का नाम मलिक दाद करारानी था। उसे भी मौत की सजा सुनाई गई किंतु आगरा के सैंकड़ों लोग बाबर के पैरों में गिरकर मलिक दाद करारानी के प्राणों की भीख मांगने लगे क्योंकि वह अत्यंत ही प्रतिष्ठित था। इसलिए बाबर ने उसे क्षमा कर दिया तथा उसकी समस्त सम्पत्ति भी लौटा दी।
इब्राहीम लोदी (Ibrahim Lodi) की माता बुआ बेगम आगरा के लाल किले में स्थित एक महल में रहा करती थी। बाबर ने उसे राजमाता जैसा सम्मान दिया तथा उसे सेवकों सहित रहने के लिए आगरा से एक कोस दूरी पर नदी के उतार की ओर एक महल रहने के लिए दिया। 10 मई 1526 को बाबर आगरा के लाल किले (Red Fort of Agra) में प्रविष्ट हुआ तथा सुल्तान इब्राहीम लोदी के महल में रहने लगा।
बाबर ने अपने संस्मरणों में लिखा है- ‘आगरा के लोग मुझसे एवं मेरे सैनिकों से बहुत घृणा करते थे। हमें देखते ही वे दूर भाग जाते थे। आगरा के अधिकांश लोग शहर छोड़कर भाग गए। इस कारण हमारे घोड़ों के लिए चारा भी उपलब्ध नहीं हुआ। गांव वालों ने हमसे शत्रुता एवं घृणा के कारण चोरी तथा डकैती करनी आरम्भ कर दी। इस समय आगरा में बहुत गर्मी थी और जहरीली हवा के कारण मेरे लोग मरने लगे। इस कारण मेरे सैनिकों ने हिंदुस्तान छोड़ने का निर्णय लिया और वे वापस अफगानिस्तान जाने को तैयार हो गए।’
अपने स्वयं के मंत्रियों एवं सेनापतियों की बेरुखी का वर्णन करते हुए बाबर ने लिखा है- ‘जब मैं काबुल से चला था तो मैंने बहुत कम अनुभव एवं पद वाले लोगों को बेग अर्थात् मंत्री बना दिया था। इस कारण मुझे विश्वास था कि यदि मैं आग या जल में भी प्रवेश करूंगा तो ये लोग मेरे साथ वहाँ भी प्रवेश करेंगे किंतु अब उन्हें अपने घरों की याद सता रही थी। ऐसे बेग ही मेरा सबसे अधिक विरोध कर रहे थे। कुछ पुराने बेग जो वर्षों से मेरी सेवा कर रहे थे, वे भी हर कीमत पर वापस जाने के लिए शोर मचाने लगे। इनमें गजनी का सूबेदार ख्वाजा कलां भी शामिल था। मैंने अपने समस्त बेगों की एक सभा बुलाई तथा उनसे कहा कि जिस हिंदुस्तान को जीतने का सपना हर बादशाह देखता है, उस हिंदुस्तान को आप सबने अपने प्राणों की बाजी लगाकर जीता है। अब ऐसी क्या बात हुई जो हम ऐसा धनी देश छोड़कर वापस काबुल जाएं तथा जीवन भर निर्धनता भोगें? क्या हमारे भाग्य में सदा ही गरीबी भोगते रहना लिखा है?’
बाबर आगे लिखता है- ‘मेरी बातों का इन बेगों पर अच्छा असर हुआ तथा वे असमंजस से मुक्त हो गए किंतु ख्वाजा कलां तथा मुल्ला हसन भारत में रुकने को तैयार नहीं हुए। इस पर मैंने उन दोनों को अफगानिस्तान लौट जाने की अनुमति दे दी। मैंने ख्वाजा कलां को बहुत सारे उपहार देकर कहा कि वह इन उपहारों को गजनी जाकर अपने रिश्तेदारों को दे दे। इसी प्रकार मैंने मुल्ला हसन को भी बहुत से उपहार दिए तथा उससे कहा कि वह काबुल जाकर अपने और मेरे परिवार वालों को ये उपहार प्रदान कर दे।’
बाबर (Babur) ने ख्वाजा कलां को गजनी (Ghazni) तथा गिरदीज के इलाके प्रदान किए और सुल्तान मसऊदी को हजारा के इलाके तथा भारत में स्थित कुहराम नामक परगना भी दे दिया जो पंजाब में स्थित था और जिसकी आमदनी 3-4 लाख रुपए सालाना थी। इससे अनुमान होता है कि ये दोनों सेनापति बाबर के अत्यंत विश्वसनीय थे किंतु किसी भी तरह भारत में नहीं रुकना चाहते थे।
ख्वाजा कलां को हिन्दुस्तान के गर्म जलवायु से इतनी घृणा हो गई कि जब वह आगरा से दिल्ली होता हुआ अफगानिस्तान के लिए रवाना हुआ तो उसने दिल्ली में अपने घर के बाहर एक पत्थर पर शेर खुदवाया-
अगर ब खैर सलामत गुजारे सिन्द कुनम।
सियाह रु शवम गर हवाए हिन्द कुनम।
अर्थात्- ‘यदि मैं कुशलतापूर्वक सिंधु पार कर लूं तो मेरा मुँह काला हो जाए यदि मैं हिन्दुस्तान की इच्छा करूं!’
अबूशका नामक एक लेखक ने लिखा है कि ख्वाजा कलां ने यह शेर हौजे खास के निकट एक संगमरमर पर खुदवाया था। बाबर तो वैसे ही ख्वाजा कलां के गजनी चले जाने के कारण उससे नाराज था किंतु जब बाबर ने इस शेर को पढ़ा तो उसके क्रोध का पार नहीं रहा।
बाबर लिखता है- ‘मेरे हिन्दुस्तान में रहते इस प्रकार का व्यंग्यपूर्ण शेर लिखकर जाना, शिष्टता के विरुद्ध था। यदि उसके प्रस्थान पर मुझे एक क्रोध था तो इस व्यंग्य से वह दो हो गया। मैंने तत्काल एक रूबाई लिखकर उसे भिजवाई- सैंकड़ों धन्यवाद दे बाबर को जो उदार और क्षमा करने वाला है जिसने तुझे सिंध तथा हिन्द के साथ-साथ बहुत से राज्य दिए हैं। यदि तू इन स्थानों की गरमी सहन नहीं कर सकता और केवल ठण्डी दिशा ही देखनी है तो तेरे लिए केवल गजनी है।’
इस रूबाई से प्रतीत होता है कि बाबर ने ख्वाजा कलां से नाराज होकर, गिरदीज आदि प्रांत वापस छीन लिए जो बाबर ने उसे भारत से रवाना होते समय दिए थे।
बाबर ने लिखा है- ‘दिल्ली और आगरा के किलों (Red fort of Delhi and Red Fort of Agra)पर तो मेरा अधिकार हो चुका था किंतु आसपास के किलों के स्वामियों ने अपने किलों की मजबूती से मोर्चाबंदी कर ली थी। सम्भल में कासिम सम्भली, बयाना में निजाम खाँ, धौलपुर में मुहम्मद जेतून, ग्वालियर में तातार खाँ सारंगखानी, रापरी में हुसैन खाँ नोहानी, इटावा में कुतुब खाँ, कालपी में आलम खाँ तथा मेवात में हसन खाँ मेवाती मेरे विरोधी थे। इनमें सबसे अधिक दुष्ट वही मुलहिद था।’
बाबर (Babur) ने दुष्ट मुलहिद शब्द का प्रयोग हसन खाँ मेवाती के लिए किया है। काफिर की तरह मुलहिद का अर्थ भी विधर्मी होता है। अतः अनुमान होता है मेवात का शासक हसन खाँ मेवाती शिया मुसलमान था। इन शब्दों से बाबर के चरित्र का दोहरापन उजागर होता है। समरकंद के उज्बेकों को जीतने के लिए बाबर ने ईरान के शाह के आदेश पर स्वयं शिया बनना स्वीकार किया था किंतु अब वह भारत आकर शियाओं को मुलहिद अर्थात् काफिर कह रहा था!
बाबर ने लिखा है- ‘कन्नौज तथा गंगापार के अफगान भी मेरा खुल्लम-खुल्ला विरोध कर रहे थे। इन लोगों ने दरया खाँ नोहानी के पुत्र बिहार खाँ को अपना बादशाह बनाकर उसे सुल्तान मुहम्मद की उपाधि दे रखी थी। ये लोग कन्नौज से चलकर आगरा की तरफ दो-तीन पड़ाव आगे आकर डेरा डालकर बैठ गए।’
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता




