20 अप्रेल 1526 को पानीपत की लड़ाई में काबुल के बादशाह बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी की सेना को परास्त कर दिया। यह युद्ध प्रातः 9-10 बजे आरम्भ हुआ और मध्याह्न समाप्त होने से पहले समाप्त हो गया था।
बाबर ने लिखा है- ‘जब शत्रु की पराजय हो गई तब उसकी सेना का पीछा करके शत्रु-सैनिकों को घोड़ों से गिराना आरम्भ किया गया। हजारों सैनिकों के सिर काट दिए गए तथा हजारों सैनिक बंदी बना लिए गए। हमारे आदमी प्रत्येक श्रेणी के अमीर तथा सरदार को बंदी बनाकर लाए। महावतों ने हाथियों के झुण्ड के झुण्ड पकड़कर मेरे समक्ष प्रस्तुत किए।’
इब्राहीम के विषय में बाबर के सेनापतियों एवं मंत्रियों का मानना था कि वह युद्ध-क्षेत्र से भाग गया। इसलिए बहुत से सैनिक एवं सेनापति विभिन्न दिशाओं में दौड़ाए गए ताकि उसे पकड़ा जा सके। कुछ सरदारों को आगरा तक भेजा गया तथा कुछ सैनिकों ने इब्राहीम लोदी के सैनिक शिविर की बारीकी से जांच की।
शाम होने से पहले ही बाबर के मंत्री निजामुद्दीन अली मुहम्मद खलीफा का छोटा साला ताहिर तीबरी इब्राहीम लोदी का सिर लेकर आया। यह सिर लाशों के एक ढेर में पड़ा था। अब्दुल्ला नामक एक लेखक ने लिखा है- ‘वह शोकप्रद दृश्य देखकर बाबर कांप उठा और इब्राहीम के शरीर को मिट्टी में से उठाकर कहा, तेरी वीरता को धन्य है। उसने आदेश दिया कि जरवफ्त के थान लाए जाएं और मिश्री का हलुआ तैयार किया जाए तथा सुल्तान के जनाजे को नहलाकर वहाँ दफ्न किया जाए, जहाँ वह शहीद हुआ था।’
नियामतुल्ला ने लिखा है- ‘इब्राहीम की मजार पर बहुत से मुसलमान शुक्रवार के दिन एकत्रित हुआ करते थे और नरवर तथा कन्नौज के यात्री भी श्रद्धांजलि अर्पित करने आते थे।’
युद्ध की समाप्ति के बाद बाबर मृतक शत्रुओं के सिरों का चबूतरा बनवाया करता था जिसे मुडचौरा कहा जाता था। पानीपत में भी बाबर ने मुडचौरा बनवाया।
‘ग्वालियर के तोमर’ नामक पुस्तक में हरिहर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- ‘चूंकि इस युद्ध में शत्रुओं के सिर कम थे इसलिए दोनों ओर के मृतकों के सिरों से मुडचौरा बनवाया गया।’
उसी दिन अर्थात् 20 अप्रेल 1526 को हुमायूँ को एक छोटी सेना लेकर तेजी से आगरा पहुंचने तथा आगरा के किले में रखे खजाने पर पहरा लगाने के आदेश दिए गए। महदी ख्वाजा को आदेश दिया गया कि वह एक छोटी सेना लेकर तुरंत दिल्ली पहुंचे तथा वहाँ के खजाने को अपनी सुरक्षा में ले ले। 21 अप्रेल को बाबर स्वयं भी सम्पूर्ण सेना के साथ दिल्ली के लिए रवाना हुआ तथा दिल्ली से बाहर यमुनाजी के निकट डेरा लगाया। 24 अप्रेल को वह यमुनाजी के तट पर स्थित निजामुद्दीन औलिया की मजार पर पहुंचा तथा उसी रात उसने दिल्ली के किले में प्रवेश करके, रात्रि विश्राम वहीं किया।
25 अप्रेल 1526 को बाबर अपने मंत्रियों को साथ लेकर ख्वाजा कुतुबुद्दीन काकी की मजार पर गया। उसने सुल्तान गयासुद्दीन बलबन तथा सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के मकबरों, उनके द्वारा बनवाए गए महलों, कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाई गई कुतुबमीनार, शम्सुद्दीन इल्तुतमिश द्वारा बनवाया गया हौजे शम्सी, अलाउद्दीन खिलजी द्वारा बनवाया गया हौजे खास, सुल्तान बहलोल लोदी का मकबरा, सुल्तान सिकंदर लोदी का मकबरा एवं सिकंदर लोदी द्वारा बनवाए गए बागीचों की सैर की। इसके बाद बाबर बड़े ठाठ से यमुनाजी में नौका विहार करने के लिए निकला। नौका में बैठकर उसने अरक पिया।
अगले दिन बाबर ने वली किजील नामक एक सेनापति को दिल्ली का शिकदार एवं दोस्तबेग को दिल्ली का दीवान नियुक्त किया और किले के खजाने पर मुहर लगाकर वह खजाना शिकदार एवं दीवान की सुरक्षा में सौंप दिया। 26 अप्रेल को बाबर ने यमुना नदी पर तुगलुकाबाद के सामने पड़ाव किया।
27 अप्रेल 1526 को शुक्रवार था। उस दिन बाबर के सिपाहियों, सेनापतियों एवं सैनिकों ने दिल्ली की मस्जिदों में सामूहिक नमाज पढ़ी तथा बाबर के नाम का खुतबा पढ़ा। इस अवसर पर फकीरों में धन वितरित किया गया। 28 अप्रेल को बाबर आगरा के लिए रवाना हो गया।
हुमायूँ बाबर से सात दिन पहले ही आगरा पहुंच चुका था। जब हुमायूँ ने आगरा के किले में प्रवेश करना चाहा तो आगरा के किलेदार ने किले के फाटक नहीं खोले। इस पर हूमायू ने आगरा नगर के चारों ओर की सड़कों पर कड़ा पहरा लगा दिया ताकि कोई भी व्यक्ति आगरा के किले से खजाना लेकर न भाग सके। अन्ततः हुमायूँ ने दबाव बनाकर आगरा दुर्ग के फाटक खुलवा लिए। इब्राहीम लोदी का विशाल खजाना इसी किले में मौजूद था।
ग्वालियर के राजा विक्रमादित्य तोमर का परिवार भी अपने खजाने के साथ इसी किले में रहता था। विक्रमादित्य तोमर का पूरा इतिहास हम ‘दिल्ली सल्तनत की दर्दभरी दास्तान’ में विस्तार पूर्वक बता चुके हैं।
राजा विक्रमादित्य तोमर ही पानीपत के मैदान में सुल्तान इब्राहीम लोदी का एकमात्र सच्चा साथी था जिसके लिए बाबर ने लिखा है कि वह भी (अर्थात् राजा विक्रमादित्य तोमर) इस युद्ध में नरकगामी हुआ।
राजा विक्रमादित्य की विधवा रानी को अपना सारा खजाना हुमायूँ को समर्पित करना पड़ा। इसमें कोहिनूर का विख्यात हीरा भी सम्मिलित था। हुमायूँ ने यह हीरा बाबर को समर्पित कर दिया। बाबर ने इस हीरे का मूल्य ‘संसार के ढाई दिन के भोजन के बराबर’ लगाया तथा हीरा वापस हुमायूँ को दे दिया।
हुमायूँ के सैनिकों ने आगरा के लाल किले के महलों का बहुत सा अनुपयोगी सामान बाहर निकाला ताकि उसमें आग लगाई जा सके क्योंकि लाल किले के पुरानी स्वामी अर्थात् लोदी हमेशा के लिए नष्ट हो गए थे और अब यह सामान नए स्वामियों अर्थात् मुगलों के किसी भी काम का नहीं था। जब इस सामान में आग लगाई जा रही थी तब संयोगवश हुमायूँ भी वहाँ पहुंच गया।
हुमायूँ की दृष्टि इस कबाड़ में पड़े एक चित्र पर पड़ी। यह एक हिन्दू संत की तस्वीर थी जिनके चेहरे का तेज हुमायूँ को प्रभावित किए बिना नहीं रह सका। हुमायूँ ने उस चित्र को उस ढेर से उठवा लिया तथा स्थानीय लोगों से पूछताछ करवाई कि यह चित्र किसका है! लाल किले के पुराने दास-दासियों ने बताया कि यह चित्र हिंदुओं के गुसाईं वल्लभाचार्य का है जिसे सुल्तान सिकंदर लोदी ने संत को अपने सामने बैठाकर बनवाया था।
सेवकों की बात सुनकर हुमायूँ ने उस चित्र को सुल्तान के महल की उसी दीवार पर फिर से लगवा दिया जिस पर वह लोदी सुल्तानों के समय में लगा हुआ था। आज गुसाईं वल्लभाचार्यजी का केवल यही एक चित्र उपलब्ध है जिसके आधार पर वल्लभाचार्यजी के अन्य चित्र बनाए गए हैं।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता