हम एक दीप जलाएं तथा उसकी ज्योति को ध्यान से देखें, इस ज्योति में कई रंग दिखाई देते हैं। इन रंगों में नीले, श्वेत, पीले, लाल एवं भगवा रंग प्रमुख होते हैं। ज्योति के भीतर स्थित विभिन्न रंग वस्तुतः ज्योति की प्रचण्डता की विभिन्नता के कारण दिखाई देते हैं।
ज्योति के जिस भाग में नीला रंग होता है, उसकी प्रचण्डता सर्वाधिक होती है। यही कारण है कि ऋषियों ने भगवान विष्णु का रंग नीला बताया है।
दीपक की ज्योति में जो श्वेत रंग दिखाई देता है, इसकी प्रचण्डता नीले रंग की ज्वाला से कम होती है। भगवान शिव का रंग ‘कर्पूर गौरम्’ अर्थात् कर्पूर की तरह श्वेत है, माता पार्वती का नाम ‘गौरा’ है, अर्थात् वे भी श्वेत रंग की हैं। सीताजी भी गोरी हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि भगवान शिव, माता पार्वती एवं माता सीता भगवान विष्णु के अपेक्षाकृत शांत स्वरूप हैं।
ज्योति में जो पीला रंग दिखाई देता है, वह प्रचण्डता की दृष्टि से तीसरे नम्बर पर आता है। लक्ष्मणजी का रंग पीला है। ज्योति में जो लाल रंग दिखाई देता है, वह प्रचण्डता की दृष्टि से चौथे नम्बर पर आता है, हनुमानजी का रंग लाल है।
ज्योति में दिखाई देने वाला पांचवां रंग जो कि लाल और पीले के मिश्रण से बनता है, उसे हम भगवा रंग कहते हैं। यह रंग ही भगवान के सबसे शांत स्वरूप का दर्शन कराता है। इसी कारण हमने ‘भगवा’ रंग वाले ईश्वर को ‘भगवान’ कहा।
नीले रंग वाले अत्यंत प्रचण्ड ज्योर्तिस्वरूप से ही भगवान के क्रमशः शांत होते हुए स्वरूपों का प्रादुर्भाव होता है। भगवान के विभिन्न स्वरूपों के रंग अलग-अलग इसलिए हैं, क्योंकि भिन्न प्रचण्डताओं वाले ज्योतिस्वरूप ईश्वरीय स्वरूप मिलकर इस सृष्टि को संभव बनाते हैं।
जब ज्योतिर्मय भगवान की प्रचण्डता कम होती हुई भगवा होने लगती है, तब वह शक्ति संसार में अत्यल्प स्थूल रूप में (लगभग न के बराबर) दिखाई देने लगती है। इसे ही भग कहा जाता है। जिसका अर्थ होता है- ‘आंख!’
‘भगवान’ शब्द की व्युत्पत्ति इसी ‘भग’ से हुई है। इसका आशय है कि भग वाले अर्थात् ‘आँख’ वाले को भगवान कहते हैं। अर्थात् ‘भगवान्’ ईश्वर का ऐसा स्वरूप है जो हमें देखता है।
हम प्रायः भगवान शिव के चित्र में तीसरे नेत्र को भी देखते हैं। यह नेत्र दीपशिखा अथवा ज्योति के सदृश्य बनाया जाता है। अर्थात् भगवान की तीसरी आंख जो कि ज्योतिर्मय है, यह ज्योति ही संसार का निर्माण करती है, उसका पालन करती है और संहार करती है।
जब ज्योति प्रचण्ड रूप धारण करती है तो उसे अग्नि कहा जाता है। ज्योति स्वरूप भगवान भी वस्तुतः प्रचण्ड अग्नि ही हैं। ‘राम’ शब्द का निर्माण भी ‘र’ तथा ‘ओम’ से मिलकर हुआ है जिसमें ‘र’ का अर्थ अग्नि है तथा ‘ओम’ का अर्थ ईश्वर है। इस प्रकार का अर्थ हुआ- वह ईश्वर जो अग्नि स्वरूप है।
यह ईश्वर रूपी अग्नि ही समस्त जीवों में व्याप्त है। सकल निर्जीव पदार्थ भी इसी अग्नि से बने हैं। इसीलिए हिन्दू अग्नि को भगवान को भगवान के रूप में देखते और समझते हैं।
हिन्दू साधु-संत अग्नि के रंग धारण करते हैं जिनमें लाल, पीले और भगवा रंग प्रमुख हैं। श्वेत और काले रंग भी इसी अग्नि में समाहित हैं। सज्जन प्रकृति के सांसारिक व्यक्ति श्वेत रंग धारण करते हैं जो वस्तुतः भव्यता का प्रतीक है। तामसिक प्रकृति के लोग काला रंग धारण करते हैं जो दूसरों पर अधिकार जमाने की प्रवृत्ति का प्रतीक है।
साधु-संन्यासी एवं योगी परमात्मा के अत्यंत शांत स्वरूप अर्थात् ज्योति के जिस रंग को धारण करते हैं, वही भगवा रंग है। योगियों, तपस्वियों एवं उदासियों का रंग होने के कारण इस रंग को जोगिया रंग भी कहा जाता है। इसीलिए हिन्दुओं में भगवा रंग की अत्यंत प्रतिष्ठा है।
भगवा रंग किसी भी दृष्टि से उग्र प्रवृत्ति का नहीं, अपितु शांत प्रवृत्ति का द्योतक है। यह आक्रामकता का नहीं, अभयदान का प्रतीक है। यह अधर्म से दूर रहने तथा धर्म की स्थापना के संकल्प का प्रतीक है। अतः जब भी हम भगवा रंग देखें, भगवान को नमन् करें। भगवा रंग ही इस सम्पूर्ण सृष्टि की अस्मिता है।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता