Thursday, April 25, 2024
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07. किसी प्राचीन हिमयुग की समाप्ति से जुड़ी है नील वाराह की अवतार कथा!

हमारे सौर मण्डल के समस्त ग्रह सूर्य से टूटकर अलग हुए हैं जिनमें से पृथ्वी भी एक है। आज से लगभग 457 करोड़ वर्ष पूर्व जब पृथ्वी सूर्य से अलग हुई, उस समय यह आग का गोला थी। यह धीरे-धीरे ठण्डी हुई। इस प्रक्रिया में करोड़ों वर्ष लगे। धीरे-धीरे यह इतनी ठण्डी हो गई कि पूरी तरह बर्फ की मोटी पर्त से ढक गई। इसे धरती का पहला हिमयुग कहते हैं। यह घटना आज से लगभग 240 करोड़ वर्ष पहले हुई।

कई करोड़ वर्ष तक पृथ्वी इसी स्थिति में रही। इसके बाद सूर्य के प्रभाव से धरती की बर्फ पिघलने लगी और धीरे-धीरे धरती पर समुद्रों, झीलों एवं नदियों का विकास हुआ। इस काल को गर्म युग कहते हैं। वैज्ञानिकों ने पानी के चिह्नों के आधार पर धरती पर अब तक हुए पाँच बड़े हिमयुगों का पता लगाया है। सबसे अंतिम हिमयुग आज से 26 लाख साल पहले आरम्भ हुआ जो आज से लगभग 20 हजार साल पहले अपने चरम पर पहुंचा तथा आज से लगभग 11,700 वर्ष पहले समाप्त हो गया।

जब भी धरती पर हिमयुग समाप्त होता और गर्म युग आता तो धरती पर वनस्पतियों एवं जीव-जंतुओं का विकास होने लगता था, प्रत्येक हिम युग के साथ पुरानी वनस्पतियों तथा पुराने जीवों का नाश हो जाता था तथा प्रत्येक गर्मयुग में नई प्रकार की वनस्पतियां एवं नए प्रकार के जीव-जंतु विकसित होते थे। ऐसे ही हिम-युगों एवं गर्म-युगों में आज से लगभग 6 करोड़ वर्ष पूर्व मानव जाति का विकास होना आरम्भ हुआ। धरती के प्रारम्भिक मानव, आधुनिक मानवों से इतने भिन्न थे के उन्हें मानव कहने की बजाय विकसित वानर कहा जाना अधिक उचित होगा।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

वैज्ञानिकों के अनुसार आज से लगभग 3 लाख साल पहले ‘होमोसेपियन’ नामक मानव प्रजाति विकसित हुई। आज से लगभग 1 लाख 20 हजार साल पहले ‘होमोसेपियन’ प्रजाति से एक अन्य परिष्कृत मानव जाति ने जन्म लिया जिन्हें वैज्ञानिक ‘होमोसेपियन सेपियन’ कहते हैं। यही होमो सेपियन मनुष्य विकसित होता हुआ आज से लगभग चालीस हजार साल पहले आधुनिक मानव बना जिसे वैज्ञानिक ‘क्रो-मैग्नन मैन’ कहते हैं। मानव जाति के विकास क्रम में हिमयुगों के आने-जाने की घटना ने बड़ी भूमिका निभाई है।

विभिन्न हिन्दू धर्म ग्रंथों में आई भगवान श्रीहरि विष्णु के वराह अवतार की कथाएं कम से कम दो हिमयुगों के समाप्त होने के बाद धरती के जल में समाने और धरती पर नया जीवन आरम्भ होने की घटना से जुड़ी हुई प्रतीत होती है। भारतीय धर्म साहित्य में तीन वराह अवतारों की धारणा प्रस्तुत की गई है- ‘नील-वराह, आदि-वराह एवं श्वेत वराह’। इन तीनों अवतारों की संकल्पना वस्तुतः हिमयुगों एवं गर्मयुगों के आने-जाने की घटनाओं से जुड़ी हुई हैं।

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प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में मानव इतिहास को पाँच कल्पों में बाँटा गया है। इनमें से पहला है- ‘महत्-कल्प’ जिसका अर्थ होता है अंधकार युग। पुराणों के अनुसार इस कल्प की अवधि 1 लाख 9 हजार 800 विक्रम संवत् पूर्व से लेकर 85 हजार 800 विक्रम संवत् पूर्व तक थी। इस काल का इतिहास नहीं मिलता किंतु माना जाता है कि महत्-कल्प में विचित्र प्रकार के प्राणी और मनुष्य थे। शिवजी की बरात में विचित्र प्रकार के भूत-प्रेतों के सम्मिलित होने का प्रसंग मिलता है। संभवतः वे भूत-प्रेत महत्-कल्प के मनुष्य थे। गोस्वामी तुलसीदासजी ने इनके बारे में लिखा है-

कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू।

बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना।

अर्थात्- किसी प्राणी के तो मुख ही नहीं है और किसी के बहुत सारे मुख हैं। किसी प्राणी के कोई हाथ या पैर नहीं है जबकि कुछ प्राणियों के बहुत से हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत सी आंखें हैं तथा कोई नेत्र-विहीन है। कोई प्राणी बहुत हृष्ट-पुष्ट है और कोई अत्यंत पतला है। जब धरती पर महत्-कल्प बीत गया तो ‘महाप्रलय’ हुई जिसमें महत्-कल्प के समस्त प्राणी नष्ट हो गए।

हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार महाप्रलय के समाप्त होने पर दूसरा कल्प अर्थात् ‘हिरण्यगर्भ-कल्प’ आरम्भ हुआ। इसकी अवधि 85 हजार 800 विक्रम संवत् पूर्व से लेकर 61 हजार 800 विक्रम संवत् पूर्व तक थी। हिरण्यगर्भ-कल्प में धरती पीले रंग की थी इसीलिए इसे हिरण्यगर्भ-कल्प कहते हैं। इस काल में धरती पर स्वर्ण के भंडार बिखरे पड़े थे तथा हिरण्यवर्णा लक्ष्मी, हिरण्यानी रैंडी अर्थात् अरंडी, पीले वृक्ष एवं वनस्पति तथा हिरण आदि पशु अधिक थे।

हिन्दू धर्म-ग्रंथों के अनुसार हिरण्यगर्भ कल्प के बाद धरती पर तीसरा कल्प अर्थात् ‘ब्रह्म-कल्प’ आरम्भ हुआ। इस कल्प की अवधि 60 हजार 800 विक्रम संवत् पूर्व से लेेकर 37 हजार 800 विक्रम संवत् पूर्व तक थी। इस कल्प में मनुष्य जाति केवल ‘ब्रह्म’ अर्थात् ईश्वर की उपासक थी। प्राणियों में विचित्रताएं और सुंदरताएं थी। इस काल में धरती पर ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मलोक, ब्रह्मपुर, ब्राह्मी लिपि, ब्राह्मी प्रजाएं, परब्रह्म और ब्रह्मवाद के उपासकों का बाहुल्य था। ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्ड पुराण तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण में इस कल्प का ऐतिहासिक विवरण दिया गया है।

जब ब्रह्मकल्प बीत गया तो धरती पर चौथा कल्प अर्थात् ‘पद्म-कल्प’ आरम्भ हुआ। इस कल्प की अवधि 37 हजार 800 विक्रम संवत् पूर्व से लेकर 13 हजार 800 विक्रम संवत् पूर्व तक थी। इस कल्प का विवरण पद्मपुराण में मिलता है। इस कल्प में धरती पर 16 समुद्र विद्यमान थे। यह कल्प नागवंशियों का था। इस काल में नाग, कोल, कमठ, बानर एवं किरात जातियों का बाहुल्य था और कमल-पत्र एवं कमल-पुष्पों का बहुविधि प्रयोग होता था। इस कल्प में सिंहल द्वीप पर पद्मिनी-प्रजा निवास करती थी।

इन चारों कल्पों के बीत जाने के बाद धरती पर पांचवा एवं वर्तमान कल्प आरम्भ हुआ जिसे ‘वराह-कल्प’ कहते हैं। इस कल्प के आरम्भ होने का विवरण वराह पुराण में मिलता है। इस कल्प में भगवान श्रीहरि विष्णु के वराह अवतार का वर्णन है। इसी कल्प में भगवान विष्णु के 12 अवतार हुए और इस कल्प में वर्तमान समय में वैवस्वत मनु का वंश चल रहा है। इसी कल्प में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने नई सृष्टि की। वराह के तीन अवतारों में पहली कथा नील-वराह के अवतार की है। यह कथा इस प्रकार है-

पद्म-कल्प का अंत हो जाने के बाद धरती पर महाप्रलय हुई। सूर्य के भीषण ताप से धरती के समस्त वन सूख गए। समुद्र का जल भी जल गया। ज्वालामुखी फूट पड़े। सूखा हुआ जल वाष्प बनकर आकाश में मेघों के रूप में स्थिर हो गया। इसके बाद अंत में, न रुकने वाले जल-प्रलय का क्रम आरम्भ हुआ। चक्रवात उठने लगे और देखते ही देखते समस्त धरती जल में डूब गई।  यह देखकर ब्रह्माजी ने चिंतित होकर, जल में निवास करने वाले श्रीहरि विष्णु का स्मरण किया और फिर भगवान श्रीहरि विष्णु ने नील-वराह के रूप में प्रकट होकर धरती के कुछ भागों को जल से मुक्त किया।

 पुराणों के अनुसार नील-वराह ने अपनी पत्नी नयना देवी के साथ अपनी सम्पूर्ण वाराही-सेना को भी प्रकट किया और धरती को जल से बचाने के लिए तीक्ष्ण दरातों, पाद प्रहारों, फावड़ों, कुदालियों और गेंतियों द्वारा धरती को समतल करके उसे रहने योग्य बनाया। भगवान नील-वराह ने पर्वतों तथा रेत के टीलों को तोड़कर गड्ढों में भर दिया ताकि धरती को समतल किया जा सके।

 यह एक प्रकार का यज्ञ था, इसलिए नील-वराह को यज्ञ-वराह भी कहा गया। नील-वराह के इस कार्य को आकाश से देवतागण देख रहे थे। प्रलयकाल का जल उतर जाने के बाद भगवान के प्रयत्नों से अनेक प्रकार के सुगंधित वन, तालाब, झील, सरोवर आदि निर्मित हुए। वृक्ष एवं लताएं उग आईं और धरती पर फिर से हरियाली छा गई। संभवतः इसी काल में मधु और कैटभ का वध किया गया।

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