हमने पिछली कड़ी में समुद्र मंथन के दौरान हुए भगवान श्री हरि विष्णु के कूर्म अवतार की चर्चा की थी। समुद्र मंथन से जो चौदह रत्न प्राप्त हुए थे, उनमें से अमृत भी एक था। जब भगवान श्री हरि विष्णु के अंशभूत धन्वन्तरी अपने हाथ में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए तो जम्भ आदि दैत्य अमृत कलश धन्वन्तरि के हाथ से छीन कर भाग गए।
समुद्र मंथन के आरम्भ में निश्चित की गई शर्तों के अनुसार अमृत का बंटवारा देवताओं एवं राक्षसों में होना था किंतु अब देवता और राक्षस दोनों अकेले ही इसका पान करना चाहते थे। न तो राक्षस चाहते थे कि इसे देवता पिएं और न देवता चाहते थे कि इसे राक्षस पिएं। इस कारण देवताओं एवं राक्षसों में युद्ध आरम्भ हो गया।
राक्षसों को अमृत का कलश ले जाते देखकर भगवान विष्णु का चिंता हुई। वे जानते थे कि यदि दुष्ट राक्षसों ने अमृत का पान कर लिया तो वे सृष्टि को बहुत दुख देंगे। इसलिए भगवान श्री हरि विष्णु ने राक्षसों से अमृत छीनकर देवताओं तक पहुंचाने का निश्चय किया।
भगवान श्री हरि विष्णु एक सुंदर स्त्री का रूप धारण करके दैत्यों के मार्ग में जाकर खड़े हो गए। उस मायावी एवं अत्यंत रूपवती स्त्री को देखकर समसत दैत्य मोहित हो गए ओर बोले-‘सुमुखी! तुम हमारी भार्या हो जाओ और यह अमृत लेकर हमें पिलाओ।’
मोहिनी रूप धारी भगवान श्रीहरि ने राक्षसों की यह बात स्वीकार कर ली तथा अमृत का कलश राक्षसों के हाथों से ले लिया। मोहिनी ने राक्षसों एवं देवताओं से कहा- ‘राक्षस और देवता अलग-अलग कतार बनाकर बैठ जाएं।’ भगवान ने अपनी माया से अमृत-कलश में एक तरफ ‘अमृत’ तथा दूसरी तरफ ‘वारुणि’ अर्थात् मदिरा भर दिया। मोहिनी ने देवताओं को अमृत तथा राक्षसों को वारुणि पिलाना आरम्भ कर दिया। राक्षस उस वारुणि को पीकर मदमत्त होने लगे। ‘राहू’ नामक एक राक्षस को इस चालाकी का पता चल गया। वह देवताओं का रूप धारण करके देवताओं की पंक्ति में जाकर बैठ गया।
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जैसे ही राहू ने अमृत पान किया, वैसे ही सूर्य एवं चंद्र नामक देवताओं को ज्ञात हो गया कि यह तो कोई राक्षस है। उन्होंने जोर से चिल्लाकर भगवान विष्णु को यह बात बता दी। भगवान श्रीहरि विष्णु ने उसी समय सुदर्शन चक्र से राहू का मस्तक काट डाला। उस समय तक राहू अमृत का पान कर चुका था। इसलिए उसका सिर और धड़ दोनों ही जीवित रहे। उसके सिर को ‘राहू’ तथा ‘धड़’ को केतु कहा जाता है।
राहू ने भगवान श्रीहरि से कहा- ‘सूर्य और चंद्र ने मेरा मस्तक कटवाया है इसलिए मैं भी बार-बार इन्हें ग्रहण करके कष्ट दूंगा। यदि उस समय संसार के लोग दान देंगे तो इनका कष्ट कम होगा।’
इस कारण तब से ही सूर्य और चन्द्रमा बार-बार राहू द्वारा पकड़ लिए जाते हैं तथा उन पर ग्रहण लगता है। मोहिनी ने राक्षसों को वारुणि तथा देवताओं को अमृत पिलाकर अपना रूप त्याग दिया। अमृत का पान करके देवता पुनः शक्तिशाली हो गए तथा उन्होंने राक्षसों को स्वर्ग से मार भगाया। देवता स्वर्ग में विराजमान हुए और दैत्य पाताल में जाकर छिप गए। जो मनुष्य देवताओं की इस विजयगाथा का पाठ करता है, वह मृत्यु के पश्चात् स्वर्गलोक में जाता है।
देवों एवं दैत्यों के मध्य हुए अमृत-विभाजन के दौरान अचानक हुए मोहिनी अवतार की कथा यहाँ पूरी हो जाती है किंतु अग्नि पुराण, महाभारत, गणेश पुराण, गरुड़ पुराण, गर्ग संहिता, नारद पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त्त पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, भविष्य पुराण, भागवत पुराण, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, रुक्मांगद-मोहिनी आख्यान, व्याघ्रानल असुर वध, कथासरित्सागर आदि ग्रंथों में मोहिनी अवतार की कथा कई रूपों में, कई कारणों सहित तथा कई प्रकार से मिलती है। बहुत से ग्रंथों में विष्णु के 21 अवतारों में मोहिनी को भी एक अवतार माना जाता है। यह भगवान श्रीहरि विष्णु का एकमात्र स्त्री-रूप-अवतार है।
कुछ ग्रंथों में यह कथा आगे तक चलती है। इसके अनुसार जब भगवान श्रीहरि विष्णु का मोहिनी रूप विलुप्त हो गया तो भगवान शिव को मोहिनी रूप का पुनःदर्शन करने की इच्छा हुई। अतः उन्होंने श्रीहरि से अनुरोध किया- ‘भगवन्! आप अपने स्त्री रूप का मुझे पुनः दर्शन करावें।’
देवाधिदेव भोलेनाथ की प्रार्थना पर भगवान् श्रीहरि ने उन्हें अपने मोहिनी रूप का पुनः दर्शन करवाया। मोहिनी को देखते ही भगवान शिव, श्रीहरि की माया के वशीभूत होकर मोहिनी को पकड़ने के लिए दौड़े। उन्होंने नग्न और उन्मत्त होकर मोहिनी के केश पकड़ लिए। मोहिनी अपने केशों को छुड़ाकर वहाँ से चल दी। उसे जाती देखकर महादेव भी उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। इस दौरान भगवान का वीर्य स्खलित होकर पृथ्वी पर गिरने लगा। जहाँ-जहाँ भगवान् शंकर का वीर्य गिरा, वहाँ-वहाँ शिवलिंगों के क्षेत्र एवं सुवर्ण भण्डार बन गए। तत्पश्चात ‘यह माया है’ ऐसा जान कर भगवान् शंकर अपने स्वरूप में स्थित हुए।
तब भगवान श्रीहरि ने प्रकट होकर शिवजी से कहा- ‘रूद्र! तुमने मेरी माया को जीत लिया है। पृथ्वी पर तुम्हारे अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो मेरी इस माया को जीत सके।’
शिव पुराण सहित अनेक पुराणों में भगवान श्रीहरि विष्णु के मोहिनी रूप धारण करने की कथा भस्मासुर राक्षस के संदर्भ में भी मिलती है। इस कथा के अनुसार एक राक्षस भगवान भोलेनाथ की सेवा किया करता था। वह नित्य ही भगवान भोलेनाथ को देह पर रमाने के लिए भस्म लेकर आया करता था। एक बार भोलेनाथ उससे प्रसन्न हो गए तथा उन्होंने राक्षस से कहा कि वह कोई वरदान मांग ले।
राक्षस ने विनीत् भाव से कहा- ‘मुझे आपके लिए भस्म का प्रबंध करने के लिए दूर-दूर तक भटकना पड़ता है। इसलिए आप मुझे वरदान दें कि मैं जिस वस्तु पर हाथ रखूं वह भस्म बन जाए।’
भोलेनाथ ने उस राक्षस को यह वरदान दे दिया। इसके बाद राक्षस जिस भी वस्तु पर हाथ रखता, वह भस्म बन जाती। इससे उस राक्षस का नाम भस्मासुर पड़ गया।
यह वरदान पाकर भस्मासुर को घमण्ड आ गया और वह पार्वतीजी को प्राप्त करने के उद्देश्य से भोलेनाथ को ही भस्म करने के लिए दौड़ा। भोलेनाथ भस्मासुर से बचने के लिए दौड़े तथा उन्होंने भगवान श्रीहरि विष्णु का स्मरण किया। भगवान श्रीहरि विष्णु पुनः मोहिनी रूप धारण करके भस्मासुर के मार्ग में आकर खड़े हो गए। राक्षस भोलेनाथ के पीछे भागना छोड़कर मोहिनी के पीछे भागा। मोहिनी-रूप-धारी श्रीहरि ने भस्मासुर से कहा कि- ‘यदि तू मेरी तरह नृत्य करके दिखाए तो मैं तुझे प्राप्त हो जाउंगी।’ अब भस्मासुर भगवान की माया के वशीभूत होकर मोहिनी के साथ उसी की तरह नृत्य करने लगा। नृत्य के बीच में भगवान विष्णु ने अपने सिर पर हाथ रखा, भस्मासुर ने भी वरदान की बात भूलकर अपने सिर पर हाथ रख लिया और उसी क्षण जलकर भस्म हो गया। कई कथाओं में मोहिनी रूप के विवाह का प्रसंग भी आया है, जिसमें मोहिनी द्वारा भगवान शिव से विवाह करके विहार करने का उल्लेख किया गया है।