महमूद के दरबारी लेखक उतबी ने लिखा है- ‘महमूद ने पहले साजिस्तान पर आक्रमण करने का विचार किया किंतु बाद में उसने हिन्दुस्तान के विरुद्ध जेहाद करना ही अधिक उचित समझा।’
उतबी से उलट, अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हबीब ने लिखा है- ‘जीवन के प्रति महमूद का दृष्टिकोण पूर्णतः सांसारिक था और अंधभक्तिपूर्ण मुस्लिम उलेमाओं की आज्ञाओं का पालन करने के लिए तैयार नहीं होता था। महूमद धर्मान्ध नहीं था किंतु इस्लाम में उसकी श्रद्धा थी और वह यह भी समझता था कि अकारण ही भारतीय काफिरों पर आक्रमण करके मैं इस्लाम की सेवा कर रहा हूँ।’
अर्थात् हबीब एक ही सांस में दो तरह की बात कर रहे हैं एक तरफ तो कह रहे हैं कि वह धर्मान्ध नहीं था और दूसरी तो लिखते हैं कि भारत के काफिरों को नष्ट करके वह इस्लाम की सेवा कर रहा था।
कोई प्रोफेसर हबीब से पूछे कि धर्मान्ध होना फिर और क्या होता है! महमूद ने जीवन भर जो कुछ भी किया, क्या वह उसकी धर्मान्धता का परिचायक नहीं है!
प्रोफेसर हबीब ने लिखा है- ‘महमूद का उद्देश्य भारत में इस्लाम का प्रसार करना था तथा इस्लाम लूट और आततायीपन का समर्थन नहीं करता है। महमूद एक पवित्र शासक था जो अपने धर्म के नियमों का सावधानी पूर्वक पालन करता था।’
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कोई प्रोफेसर हबीब से पूछे कि इस पवित्र शासक ने भारत में बर्बरता के अतिरिक्त और क्या किया था!
प्रोफेसर हबीब ने लिखा है- ‘उस काल के सभी मुस्लिम शासक महमूद को अपना आदर्श मानत थे तथा इस विषय पर एकमत थे कि भारत पर आक्रमण करके महमूद ने इस्लाम की सेवा ही नहीं की थी अपितु उसके गौरव को बहुत बढ़ाया था।’
कोई प्रोफेसर हबीब से पूछे कि चूंकि इस्लाम लूट और आततायीपन का समर्थन नहीं करता तो फिर महमूद ने भारत में लूट और आततायीपन करके इस्लाम का सम्मान कैसे किया था!
आगे चलकर प्रोफेसर हबीब स्वयं ही लिखते हैं- ‘ऐसा करके महमूद ने इस्लाम का अपकार किया था!’
वस्तुतः जब तथ्य कुछ और कह रहे हों तथा निष्कर्ष कुछ और निकाले जा रहे हों तो इतिहासकार वैसी ही कलाबाजियां खाता है, जैसी प्रोफेसर हबीब ने खाई हैं। दुर्भाग्य से हिन्दू इतिहासकारों ने अरबी और फारसी का अध्ययन नहीं किया, इस कारण मध्यकालीन भारत का इतिहास उन मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा तैयार किया गया जिन्हें अरबी और फारसी आती थी। ऐसे इतिहासकारों ने भारत के प्रति सहानुभूति न रखकर महमूद के प्रति हमदर्दी दिखाई जिसके कारण सच-झूठ सब एक-मेव हो गया।
वर्तमान समय में अरबी एवं फारसी लेखकों की पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवाद सामने आए जिनसे सच्चाइयां उजागर हुई हैं। अब उन्हीं अंग्रेजी अनुवादों से हिन्दी अनुवाद तैयार किए जा रहे हैं।
हबीब जैसे कुछ लेखकों ने लिखा है कि महमूद का दरबारी लेखक उतबी प्रसिद्ध विद्वान था तथा महमूद और उसके युद्ध की ऐतिहासिक जानकारी के लिए हम उसकी योग्यता के ऋणी हैं। जबकि तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि उतबी का लेखन झूठ के पुलिंदे के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उसकी अपेक्षा अलबरूनी तथा इस्लाम वैराकी के वर्णन अधिक निष्पक्ष हैं जिन्हें पढ़कर ही यह सिद्ध हो जाता है कि महमूद गजनवी ने ई.1001 से लेकर पूरे 27 वर्ष तक भारत में हिंसा, लूट, बलात्कार, रक्तपात और विध्वंस का नंगा नाच किया।
भारत के कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि महमूद स्वयं सुसंस्कृत था और विद्वानों तथा कलाकारों का संरक्षक था। वह विद्वान् था और कविता में भी उसकी रुचि थी। गजनी को उसने सुंदर महलों, मस्जिदों, विद्यालयों और समाधियों से सुशोभित किया। उसने गजनी में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की।
कहा जाता है कि महमूद गजनवी के दरबार में फिरदौसी नामक फारसी लेखक रहता था। महमूद ने फिरदौसी से कहा कि वह शाहनामा लिखे जिसके लिए फिरदौसी को प्रत्येक रुबाई के लिए एक स्वर्ण मुद्रा दी जाएगी किंतु जब यह ग्रंथ पूरा हो गया तो महमूद ने फिरदौसी को स्वर्ण-मुद्राएं देने से इन्कार कर दिया। इस पर फिरदौसी ने महमूद को अपमानित करने वाली कुछ पंक्तियां लिखीं। इन पंक्तियों में महमूद की माता के लिए कुछ अपमानजनक बातें कही गई थीं। जब महमूद को यह बात ज्ञात हुई तो उसने फिरदौसी को स्वर्ण मुद्राएं भिजवाईं किंतु तब तक फिरदौसी मर चुका था और उसकी बेटी ने महमूद की स्वर्ण मुद्राएं लेने से मना कर दिया।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है कि उस युग के भारतीय महमूद गजनवी को शैतान का अवतार मानते थे। उनकी दृष्ट में वह एक साहसी डाकू, लालची लुटेरा तथा कला का निर्दयी नाशक था। क्योंकि उसने हमारे दर्जनों समृद्धशाली नगरों को लूटा तथा अनेक मंदिरों को जो कला के आश्चर्यजनक आदर्श थे, धूल में मिला दिया। वह सहस्रों निर्दोष स्त्रियों और बच्चों को दास बना कर ले गया।
डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने यह भी लिखा है कि महमूद जहाँ भी गया, उसने अत्यंत निर्दयतापूर्वक हत्याकाण्ड किए तथा हमारे हजारों देशवासियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध मुसलमान बनाया। जो विजेता अपने पीछे उजड़े हुए नगरों, गांवों तथा निर्दोष मनुष्यों की लाशें छोड़ जाता है उसे भावी पीढ़ियां केवल आततायी राक्षस समझकर ही याद रख सकती हैं, अन्य किसी प्रकार से नहीं। शासक की हैसियत से भारत के इतिहास में महमूद का कोई स्थान नहीं है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता