Saturday, December 7, 2024
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अध्याय -35 – भारतीय मूर्ति-कला

सर्वोत्तम भारतीय मूर्ति सर्वोत्तम यूनानी मूर्ति की अपेक्षा अनुभूति के गहनतर स्वर और उत्कृष्ट मनोभावों को स्पर्श करती है।                     

– ई. बी. हावेल।

सैन्धव-मूर्तियाँ

सैन्धव सभ्यता के काल से ही आग में पकी हुई मिट्टी की मूर्तियाँ, चूड़ियाँ, बर्तन, खिलौने एवं मुहरें बड़ी संख्या में मिलने लगती हैं। पूजा में प्रयुक्त होने वाले लिंग, योनियाँ, बड़े कूबड़ एवं विशाल सींगों वाले बैलों के अंकन वाली मुहरें, योगी एवं योगिनी के अंकनों से युक्त मुहरें प्राप्त हुई हैं जिनसे उस काल के केशविन्यास, मुद्राएं, बाट, खिलौने, नृत्य, संगीत आदि विभिन्न कलाओं की जानकारी मिलती है।

ये मृण्मूर्तियाँ सैंधव संस्कृति को अन्य पूर्ववर्ती अथवा समकालीन सभ्यताओं से पूरी तरह अलग करती हैं। इन मूर्तियों से ज्ञात होता है कि सिंधु सभ्यता के निवासियों ने लेखन कला, मूर्तिकला, चित्रकला, नृत्यकला एवं संगीतकला आदि विविध कलाओं का विकास कर लिया था।

सिंधु सभ्यता की लिपि को अभी तक ठीक से नहीं पढ़ा जा सका है किंतु उस काल की मूर्तियों, मुद्राओं, लिंगों, योनियों, आभूषणों, बर्तनों एवं भवनावशेषों से उस काल की सभ्यता पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इन मुद्राओं पर परमपुरुष, परमनारी एवं प्रजनन देवी की आकृतियां अंकित हैं। बहुत सी मूर्तियों के दोनों ओर दो प्याले अथवा दीपक प्रदर्शित हैं और इन मूर्तियों के अग्रभाग पर धूम्र के निशान भी मिले हैं।

मौर्य कालीन मूर्तिकला

पाटलिपुत्र, मथुरा, विदिशा तथा अन्य कई क्षेत्रों से मौर्यकालीन पत्थर की मूर्तियाँ मिली हैं। इन पर मौर्य काल की विशिष्ट चमकदार पॉलिश मिलती है। इन मूर्तियों में यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियाँ सर्वाधिक सजीव एवं सुंदर हैं। इन्हें मौर्यकालीन लोककला का प्रतीक माना जाता है। इनमें सबसे प्रसिद्ध दीदारगंज (पटना) से प्राप्त चामरग्राहिणी यक्षी की मूर्ति है जो पौने सात फुट ऊँची है।

यक्षी का मुखमण्डल अत्यंत सुंदर है। अंग-प्रत्यंग में समुचित भराव कला की सूक्ष्म छटा है। मथुरा के परखम गांव से प्राप्त यक्ष-मूर्ति भी 8 फुट 8 इंच की है। इसके कटाव में सादगी है तथा अलंकरण कम है। बेसनगर की स्त्री मूर्ति भी इस काल की मूर्तियों में विशिष्ट स्थान रखती है। अशोक के स्तम्भ शीर्षों पर बनी हुई विभिन्न पशुओं की मूर्तियाँ उस काल की सर्वश्रेष्ठ मूर्तियाँ हैं।

पटना, अहिच्छत्र, मथुरा, कौशाम्बी आदि में मिले भग्नावशेषों से बड़ी संख्या में मौर्यकालीन मृण्मूर्तियाँ प्राप्त की गई हैं। ये कला की दृष्टि से सुंदर हैं तथा मौर्य काल के परिधान, वेशभूषा एवं आभूषणों की जानकारी देती हैं। बुलंदीबाग (पटना) से प्राप्त मौर्य कालीन नर्तकी की मृण्मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

मूर्तिकला पर विदेशी प्रभाव

मौर्य साम्राज्य के बिखर जाने के बाद भारत में यूनानी, शक, कुषाण, हूण पह्लव एवं सीथियन आदि जातियाँ प्रवेश कर गईं। इन्होंने भारत के विभिन्न भागों में छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए थे। इस कारण भारतीय कला पर विदेशी कला, विशेषकर गान्धार-शैली का बहुत प्रभाव हो गया।

कनिष्क कालीन मूर्तिकला

रॉलिसन ने लिखा है- ‘भारतीय संस्कृति के इतिहास में कुषाण काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण युग है।’ कनिष्क के काल में मूर्तिकला की खूब उन्नति हुई। मथुरा में इस काल की कई मूर्तियाँ मिली हैं। कनिष्क काल की मथुरा शैली की मूर्तियाँ सरलता से पहचानी जाती हैं क्योंकि इनके निर्माण में लाल पत्थर का प्रयोग हुआ है जो मथुरा के निकट ‘सीकरी’ से प्राप्त होता था।

मथुरा शैली की मूर्तियाँ आकार में विशालाकाय हैं। इन मूर्तियों पर मूंछें नहीं हैं। बालों और मूछों से रहित मूर्तियों के निर्माण की परम्परा विशुद्ध रूप से भारतीय है। मथुरा की कुषाणकालीन मूर्तियों के दाहिने कंधे पर वस्त्र नहीं रहता। दाहिना हाथ अभय की मुद्रा में उठा हुआ होता है। मथुरा शैली की कुषाण कालीन मूर्तियों में बुद्ध सिंहासन पर बैठे हुए दिखाये गये हैं।

कनिष्क काल में मूर्तिकला की गान्धार-शैली की भी बड़ी उन्नति हुई। कनिष्क तथा उसके उत्तराधिकारियों ने जो बौद्ध-मूर्तियाँ बनवाईं, उनमें से अधिकांश मूर्तियां, पाकिस्तान के गान्धार जिले में मिली हैं। इसी से इस कला का नाम गान्धार-कला रखा गया है। गान्धार-कला की बहुत सी प्रतिमाएँ मुद्राओं पर भी उत्कीर्ण मिलती हैं।

 गान्धार-कला को इण्डो-हेलेनिक कला अथवा इण्डो-ग्रीक कला भी कहा जाता है, क्योंकि इस पर यूनानी कला की छाप है। बुद्ध की मूर्तियों में यवन देवताओं की आकृतियों का अनुसरण किया गया है। इस कला को ग्रीक बुद्धिष्ट शैली भी कहा जाता है। इस शैली की मूर्तियों में बुद्ध कमलासन मुद्रा में मिलते हैं किंतु मुखमण्डल और वस्त्रों से बुद्ध, यूनानी राजाओं की तरह लगते हैं। बुद्ध की ये मूर्तियाँ यूनानी-देवता अपोलो की मूर्तियों से काफी साम्य रखती हैं। इनमें बुद्ध को यूरोपियन वेश-भूषा तथा रत्नाभूषणों से युक्त दिखाया गया है।

गुप्तकालीन मूर्ति-कला

गुप्त-काल में शिल्प-कला की बड़ी उन्नति हुई। गुप्तकाल की मूर्तिकला शैली को कनिष्ककालीन मथुरा शैली का ही विकसित रूप माना जाता है। गुप्त कालीन शिल्प-कला के सम्बन्ध में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है- ‘गुप्त काल के शिल्पकारों की कृतियों की यह विशेषता है कि उनमें ओज, अंसयम का अभाव तथा शैली का सौष्ठव पाया जाता है।’

गुप्त काल की शिल्पकला तथा चित्रकला के सम्बन्ध में डॉ. नीलकान्त शास्त्री ने लिखा है- ‘शिल्प कला तथा चित्रकला के क्षेत्र में गुप्त कालीन कला भारतीय प्रतिभा में चूड़ान्त विकास की प्रतीक है और इसका प्रभाव सम्पूर्ण एशिया पर दीप्तिमान है।’

डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने गुप्त कालीन शिल्प की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- ‘सामान्यतः उच्चकोटि का आदर्श और माधुर्य तथा सौन्दर्य की उच्चकोटि की विकसित भावना गुप्त काल की शिल्प कला की विशेषता है।’

अपने पूर्ववर्ती युगों की अपेक्षा गुप्त काल में मूर्ति-पूजा का प्रचलन बहुत बढ़ गया था। इसलिये इस काल में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बड़ी संख्या में बनाई गईं। इस काल की मूर्तिकला की कई विशेषताएँ हैं-

(1.) इस काल की मूर्तियाँ बहुत सुन्दर हैं।

(2.) वे विदेशी प्रभाव से मुक्त हैं और विशुद्ध भारतीय हैं।

(3.) इनमें नैतिकता पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है।

(4.) इस काल में नग्न मूर्तियों का निर्माण बन्द हो गया और उन्हें झीने वस्त्र पहनाए गए।

(5.) ये बड़ी ही सरल हैं। इन्हें अत्यधिक अलंकृत करने का प्रयत्न नहीं किया गया।

(6.) गुप्तकाल की स्त्री प्रतिमाएं अधिक मांसल हैं तथा उनमें स्थूल स्तनों का अंकन प्रमुखता से किया गया है।

इस काल की सारनाथ की बौद्ध प्रतिमा बड़ी सुन्दर तथा सजीव है। मथुरा से प्राप्त भगवान विष्णु की मूर्ति गुप्तकाल की कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। गुप्तकाल में बनारस, पाटलिपुत्र एवं मथुरा मूर्तिकला के प्रसिद्ध केन्द्र थे।

हर्षकालीन मूर्ति-कला

हर्ष के शासनकाल में प्रशासनिक कौशल के साथ-साथ कला और साहित्य की भी बड़ी उन्नति हुई। हर्ष स्वयं कला और साहित्य का अनुरागी था। इस काल में भारत में बड़ी संख्या में हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्मों के मंदिर, चैत्य तथा संघाराम बने। मंदिरों के निर्माण के कारण मूर्तिकला का भी पर्याप्त विकास हुआ। बौद्धों ने बुद्ध की तथा हिन्दुओं ने शिव तथा विष्णु आदि देवताओं की सुंदर मूर्तियों का निर्माण किया। इस काल की मूर्तिकला में भारशिव शैली तथा मथुरा शैली का सम्मिलन हो गया तथा गोल मुख के स्थान पर लम्बे चेहरे बनाये जाने लगे। अजन्ता की गुफा संख्या 1 एवं 2 की मूर्तियाँ इसी काल की हैं।

सल्तनत कालीन मूर्तिकला

मुसलमानों के भारत आने से पहले भारत में मूर्तिकला अत्यन्त ही उन्नत अवस्था में थी किन्तु मुस्लिम आक्रान्ता मूर्तियों को तोड़ना इस्लाम धर्म की सेवा तथा धार्मिक कर्त्तव्य मानते थे। अतः उन्होंने भारतीय मूर्तिकला पर घातक प्रहार किया। मुहम्मद गौरी एवं कुतुबुद्दीन ऐबक के आक्रमण में दिल्ली, आगरा, अजमेर आदि में स्थित लगभग समस्त प्राचीन धार्मिक स्थलों की मूर्तियों को नष्ट कर दिया गया।

बहुत से मंदिरों ने अपने मंदिर के बाहर इस्लामिक चिह्न अंकित किये ताकि मुस्लिम आक्रांता उन्हें पूरी तरह नष्ट न कर सकें। फिर भी इन मंदिरों की मूर्तियों को पूर्णतः अथवा अंशतः विक्षत कर दिया गया। सल्तनत काल में मंदिर एवं मूर्तियों के निर्माण पर पूरी तरह रोक लगा दी गई इसलिये उत्तर भारत में मूर्तिकला का विकास ठप्प हो गया। दक्षिण भारत के विजयनगर साम्राज्य सहित उन अन्य राज्यों में मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण होता रहा जहाँ हिन्दू शासक राज्य कर रहे थे।

मुगल कालीन मूर्तिकला

मुगलों के काल में भी भारत की मूर्तिकला का निरंतर ह्रास होता रहा। बाबर और हुमायॅूँ भी कट्टर मुसलमान शासक थे और मूर्ति बनाना पाप समझते थे। उन्होंने अनेक मंदिरों एवं उनकी मूर्तियों को ध्वस्त कर दिया। अकबर ने अपने उदार दृष्टिकोण के कारण मूर्तिकला को प्रोत्साहन दिया। जहाँगीर ने भी कुछ मूर्तियाँ बनवाईं किन्तु शाहजहाँ और औरंगजेब ने इसे कोई प्रोत्साहन नहीं दिया, जिससे मूर्तिकला पतनोन्मुख हो गई। औरंगजेब के शासन काल में मूर्तिकला को सर्वाधिक हानि हुई।

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