Sunday, December 8, 2024
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जहाँदारशाह की हत्या

जहाँदारशाह की हत्या से भारत के मुगलों में बादशाहों की हत्या का एक लम्बा सिलसिला शुरु होता है। हत्याओं के इसी सिलसिले ने मुगल सल्तनत को उसके अंत तक पहुंचा दिया। ईरानी वजीरों ने गद्दारी करके जहाँदारशाह की हत्या करवाई!

मुगल बादशाह जहाँदारशाह ने शासन व्यवस्था में बड़े परिवर्तन करने के प्रयास किए। उसने राज्य की आय को बढ़ाने के लिए लगान वसूली के लिए इजारा व्यवस्था को बढ़ावा दिया। इसके अन्तर्गत इजारेदारों अर्थात् लगान वसूलने वाले ठेकेदारों से निश्चित भू-राजस्व वसूल करने के बदले में सरकार ने उन्हें यह अधिकार दे दिया था कि वे किसानों से जितना चाहे लगान वसूल कर लें।

इस व्यवस्था से मुगल सल्तनत में किसानों का शोषण एवं उत्पीड़न बढ़ गया। जहांदारशाह ने सोने, चांदी तथा ताम्बे के सिक्के भी ढलवाए ताकि लोगों के मन में नए बादशाह की महानता के प्रति विश्वास उत्पन्न हो सके।

यहाँ तक की नीतियों में तो वजीर ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ ने बादशाह का साथ दिया किंतु जैसे ही बादशाह ने ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ की शक्तियों में कमी करनी चाही तो ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ ने बादशाह के विरुद्ध षड़यंत्र रचना प्रारंभ कर दिया। इस कारण बादशाह तथा वजीर के सम्बन्ध खराब हो गए।

ई.1712 में जिस समय जहाँदारशाह ने अपने छोटे भाई अजीमउश्शान को मार डाला था, उस समय अजीमुश्शान के दूसरे नम्बर के पुत्र फर्रूखसियर ने आत्महत्या करने का प्रयास किया था किंतु उसे बचा लिया गया।

फर्रूखसियर इस बात को कभी नहीं भूल सका कि उसके पिता को जहांदारशाह ने युद्ध के मैदान में मार गिराया था। वह अपने ताऊ से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेना चाहता था। उसने अपनी स्वयं की एक सेना बनाने का प्रयास किया किंतु वह सेना इतनी छोटी थी कि मुगल बादशाह की विशाल सेना का सामना नहीं कर सकती थी।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

फर्रूखसियर ने पटना के सूबेदार सैयद हुसैन अली खाँ से इस सम्बन्ध में बात की। सूबेदार सैयद अली ने फर्रूखसियर को आश्वस्त किया कि यदि फर्रूखसियर, जहांदारशाह पर आक्रमण करेगा तो मैं तथा मेरा भाई सैयद अब्दुल्ला खाँ आपकी सहायता करेंगे। जिस प्रकार सैयद अली पटना का सूबेदार था, उसी प्रकार सयैद अब्दुल्ला खाँ इलाहाबाद का सूबेदार था।

सैयदों से यह आश्वासन मिलने पर फर्रूखसियर ने स्वयं को पटना में मुगलों का बादशाह घोषित कर दिया तथा अपने नाम के सिक्के चलाये। इसके बाद वह सेना लेकर आगरा की तरफ बढ़ा। 10 जनवरी 1713 को आगरा के निकट जहाँदारशाह तथा फर्रूखसियर की सेनाओं में युद्ध हुआ।

वजीर ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ तथा उसका बाप वकीले मुतलक असद खाँ भी फर्रुखसीयर और सैयद बंधुओं से मिल गए। जहांदारशाह के दो बड़े वजीर चिनकुलीच खाँ एवं अमीन खाँ, युद्ध से तटस्थ हो गए। मरहूम बादशाह बहादुरशाह का धायभाई कोकतलाश इस युद्ध में जहांदारशाह के साथ रहा।

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यद्यपि जहाँदारशाह की सेना में 70-80 हजार घुड़सवार तथा बड़ी संख्या में पैदल सैनिक थे और फर्रूखसियर के पास इससे एक-तिहाई फौज भी नहीं थी, फिर भी वजीरों, सूबेदारों एवं अपने ही परिवार के लोगों की गद्दारी के कारण जहाँदारशाह बुरी तरह परास्त हो गया। जहांदारशाह युद्ध के मैदान से भाग कर अगारा शहर में पहुंचा तथा अपने महल में न जाकर वकीले मुतलक असद खाँ की हवेली में पहुंचा किंतु असद खाँ ने जहांदारशाह को पकड़कर फर्रूखसियर के हाथों सौंप दिया। फर्रूखसियर ने अपने ताऊ जहांदारशाह को उसकी बेगम लाल कुंवर के साथ लाल किले में एक कोठरी में बंद कर दिया।

11 फरवरी 1713 को फर्रूखसियर ने कुछ पेशेवर हत्यारों के द्वारा जहाँदारशाह की हत्या करवा दी। उसकी प्रेयसी लाल कुंवर को भी उसी के साथ मार डाला गया। जो असद ख़ाँ एवं ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ औरंगजेब और बहादुरशाह के शासनकाल में विश्वसनीयता एवं विनम्रता की प्रतिमूर्ति बने रहते थे, अब उन्होंने ही अपने मालिक से गद्दारी करके उसकी हत्या करवा दी ताकि नए बादशाह के शासन में भी असद ख़ाँ एवं ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ को बड़े पद मिल सकें।

समकालीन मुस्लिम इतिहासकार इरादत ख़ाँ ने जहाँदारशाह के विषय में लिखा है- ‘वह रंगरेलियों में डूबे रहने वाला एक कमज़ोर बादशाह था, जिसने न तो राज्य के कार्यों की चिन्ता की, और न उमरावों में से किसी का उससे लगाव था। जहाँदारशाह के शासनकाल में उल्लू, बाज के घोंसले में रहता था, तथा कोयल का स्थान कौवे ने ले लिया था। वह लम्पट मूर्ख था तथा उसने लाल कुंवर नामक वेश्या को दरबार में हस्तक्षेप करने के अधिकार दे रखे थे।’

इरादत ख़ाँ के आरोप सही प्रतीत नहीं होते क्योंकि जहाँदारशाह ने 11 माह ही शासन किया। इतनी कम अवधि में उसने ऐसा क्या कर दिया था कि ‘उल्लू’ बाज के घोंसले में रहने लगा था, तथा ‘कोयल’ का स्थान कौवे ने ले लिया था। यह एक अनर्गल एवं अनावश्यक टिप्पणी प्रतीत होती है। संभवतः यह मुस्लिम इतिहासकार इरादत खाँ, वजीर जुल्फिकार खाँ के हाथों की कठपुतली था तथा साथ ही साथ धर्मान्ध भी था। इस कारण वह निष्पक्ष रहकर इतिहास नहीं लिख सका।

वास्तविकता यह थी कि उस काल में किसी वजीर को इस बात की चिंता नहीं होती थी कि बादशाह मूर्ख या लम्पट है। वजीर से लेकर तमाम अमीर एवं उमराव तो बादशाह के दुश्मन इसलिए हो गए थे क्योंकि बादशाह ने हिन्दू राजाओं से दोस्ती करके अपने मुस्लिम वजीरों एवं अमीरों पर नकेल कसनी आरम्भ कर दी थी।

मुस्लिम इतिहासकारों का अनुसरण करते हुए अंग्रेज इतिहासकार इरविन ने भी उन्हीं बातों को दोहरा दिया तथा लिखा कि- ‘तैमूर के ख़ानदान में जहाँदारशाह पहला बादशाह था, जिसने स्वयं को बेहद नीचता, क्रूर स्वभाव, दिमाग के छिछलेपन तथा कायरता के कारण शासन करने में पूरी तरह से अयोग्य पाया।’

बाद में जब स्वतंत्र भारत में कम्यूनिस्ट इतिहासकारों का बोलबाला हुआ तो उन्होंने भी बिना सोचे-समझे जहांदारशाह के विरुद्ध यही टिप्पणियां लिख मारीं।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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