Saturday, July 27, 2024
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78. जाडा

– ‘हुजूर! महाराणा प्रतापसिंह के भाई जगमाल का वकील जाडा महडू आपकी सेवा में हाजिर हुआ चाहता है।’ गुलाम ने राज्य के वकील खानखाना अब्दुर्रहीम से निवेदन किया। उस समय खानखाना अपने निजी दरबार में व्यस्त था।

– ‘जाडा महडू!’ खानखाना के भीतर स्मृतियों का पिटारा खुला। कहाँ सुना यह नाम? कब? अचानक ही उसे जाडा महडू का प्रसंग याद आ गया, जैसे सोते से जाग पड़ा हो, ‘जा उसे ले आ, यहीं ले आ। बड़ा मजेदार आदमी है।’

अब्दुर्रहीम जब मेवाड़ में था तब उसने इस कवि की बड़ी तारीफ सुनी थी। जाडा महडू का वास्तविक नाम आसकरण चारण था। उसके जैसा चाटुकार जमाने में न था। शरीर से बहुत मोटा होने तथा चारणों की महडू शाखा में होने के कारण इसे मेवाड़ में जाडा महडू कहकर पुकारते थे। उन दिनों तो उसे जाडा से रूबरू होने का अवसर नहीं मिला था किंतु अब्दुर्रहीम के मन में जाडा से मिलने की बड़ी इच्छा थी जो आज अनायास ही पूरी हो रही थी।

जब सेवक जाडा महडू को लेने बाहर गया तो खानखाना ने सरकारी कामों को स्थगित करते हुए, दरबार में उपस्थित सभासदों से कहा- ‘तैयार हो जाओ। दरबार में बड़ा भूकम्प आने वाला है।’ खानखाना की बात से दरबारियों को बड़ा अचंभा हुआ। आखिर यह जाडा महडू चीज क्या है जो खानखाना दरबार में भूकम्प आने की भविष्यवाणी कर रहे हैं! पहले तो कभी इसका नाम सुना नहीं!

थोड़ी ही देर में गुलाम, जाडा महडू को लेकर उपस्थित हुआ। ठीक ही कहा था खानखाना ने। दरबार में उसका प्रवेश किसी भूकम्प से कम नहीं था। एक बहुत स्थूल काया ने दरवाजे से ही बादलों की तरह गरजना आरंभ कर दिया-

‘खानखानाँ नवाब रा अड़िया भुज ब्रह्मण्ड,

पूठै तो है चंडिपुर धार तले नव खण्ड।’   [1]

दरबार में बैठे बहुत से लोग समझ नहीं सके कि वह कह क्या रहा था लेकिन खानखाना डिंगल जानता था। उसे जाडा के छंद में बड़ा आनंद आया। जाडा ने अपनी दोनों भुजाओं को हवा में लहराते हुए कहा-

‘खानखानाँ नवाब रै खांडे आग खिवंत,

जलवासा नर प्राजलै तृणवाला जीवंत। ‘[2]

जाडा एक क्षण के लिये ठहरा और अपने फैंफड़ों में वायु भरकर पूरी ताकत से बोला-

खानखानाँ   नवाब हो  मोहि  अचंभो  एह,

मायो किम गिरि मेरु मन साढ़ तिहस्यी देह। ‘ [3]

जाडा ने आगे बढ़ते हुए तीसरा दोहा पढ़ा-

‘खानखानाँ नवाब री आदमगीरी  धन्न,

यह ठकुराई मरु गिर मनी न राई मन्न। ‘ [4]

अब जाडा खानखाना के ठीक निकट पहुंच चुका था। खानखाना ने अपने आसन से खड़े होकर दोनों हाथ आकाश की ओर उठाते हुए कहा-

‘धर जड्डी अंबर जड्डा, जड्डा महडू जोय।

जड्डा नाम अलाह दा, और न जड्डा कोय। ‘[5]

खानखाना की बात सुनकर जाडा आश्चर्य में पड़ गया। उसने पूछा- ‘खानखाना हुजूर! मैंने तो आपको प्रसन्न करने के लिये दोहा पढ़ा। आपने क्यों पढ़ा?’

– ‘जाडा को प्रसन्न करने के लिये।’ खानखाना ने मुस्कुराकर जवाब दिया।

– ‘मैंने तो अपने स्वार्थ से आपको प्रसन्न करना चाहा था। आप मुझे क्यों प्रसन्न करना चाहते थे।’

– ‘मैं अपने स्वार्थ से तुझे प्रसन्न करना चाहता था।’

– ‘मेरा स्वार्थ तो मुझे मालूम है, किंतु आपका स्वार्थ?’

– ‘जब तू अपना स्वार्थ कहेगा तो तुझे मेरा स्वार्थ भी ज्ञात हो जायेगा।’

– ‘मैं अपने मालिक की तरफ से अर्ज लेकर आया हूँ और अकेले में निवेदन करना चाहता हूँ।’

– ‘ठीक है। जब दरबार बर्खास्त हो जाये तो तू निर्भय होकर अपनी बात कहना। बता तुझे कविता का क्या ईनाम दिया जाये?’

– ‘मेरे स्वामी का काम ही मेरा ईनाम होगा।’ जाडा ने जवाब दिया।

– ‘तेरे स्वामी का काम होने लायक होगा तो मैं वैसे ही कर दूंगा। मेरी इच्छा है कि तूने मेरी प्रशंसा में जो दोहे पढ़े हैं, उस हर दोहे के लिये तुझे एक लाख रुपया दिया जाये।’ खानखाना ने कहा।

– ‘खानखाना की बुलंदी सलामत रहे। मैं अपना ईनाम फिर कभी ले लूंगा, फिलहाल तो अपने स्वामी का ही काम किया चाहता हूँ।’ जाडा भी अपनी तरह का एक ही आदमी था। उसकी इच्छा रखने के लिये खानखाना ने दरबार बर्खास्त कर दिया।

– ‘अब बोल। क्या कहता है?’

– ‘हुजूर। प्रतापसिंह उदैपुर राज्य का मालिक बन बैठा है। मेरे स्वामी जगमाल उसके भाई हैं किंतु मेरे स्वामी को उसने कोई जागीर नहीं दी। यदि खानखाना मेहरबानी करें तो मेरे स्वामी उदैपुर की गद्दी पर बैठ सकते हैं। इसके बदले में मेवाड़ शहंशाह अकब्बर की अधीनता स्वीकार कर लेगा।’

– ‘तेरे मालिक को राज्य चाहिये तो मैं बादशाह से कहकर दूसरा राज्य दिलवा दूंगा लेकिन भाईयों में इस तरह का बैर करना और अपनी मातृभूमि शत्रु को सौंप देना उचित नहीं है जाडा।’

– ‘लेकिन बिना कुछ प्रत्युपकार प्राप्त किये बादशाह सलामत मेरे स्वामी को राज्य क्यों देंगे?’

– ‘प्रत्युपकार का जब समय आयेगा तो वह भी प्राप्त कर लिया जायेगा। बोल क्या कहता है?’

– ‘क्या चित्तौड़ का दुर्ग दिलवा देंगे?’ जाडा ने प्रश्न किया।

– ‘प्रताप मर जायेगा किंतु तेरे मालिक को चित्तौड़ में चैन से नहीं बैठने देगा।’

– ‘तो फिर!’

– ‘जहाजपुर का परगना अभी मुगलों के कब्जे में है। तू कहे तो तेरे मालिक को वह परगना मिल सकता है लेकिन एक शर्त पर।’

– ‘सो क्या?’

– ‘तू भाईयों में बैर नहीं बढ़ायेगा और देश को दुश्मनों के हाथ नहीं बेचेगा।’

खानखाना की बात सुनकर जाडा का मुँह काला पड़ गया। उसने गर्दन नीची करके कहा- ‘वचन देता हूँ।’

– ‘तो ठीक है। तू समझ, जहाजपुर तेरे मालिक को मिल गया।’


[1] खानखानाँ नवाब की भुजा ब्रह्माण्ड में जा अड़ी है, जिसकी पीठ पर चंडीपुर (अर्थात् दिल्ली) है और जिसकी तलवार की धार के नीचे नवों खण्ड हैं।

[2] खानखानाँ की तलवार से ऐसी आग बरसती है जिससे पानीदार वीर पुरुष तो जल मरते हैं लेकिन घास मुख में लिये (शरण में आये) हुए नहीं जलते।

[3] मुझे यह आश्चर्य होता है कि खानखानाँ का मेरु पर्वत जैसा मन साढ़े तीन हाथ की देह में कैसे समाया है।

[4] खानखानाँ नवाब का औदार्य धन्य है कि मेरु पर्वत जैसे अपने प्रभुत्व को वे मन में राई के बराबर भी नहीं मानते।

[5] धरा बड़ी है, आकाश बड़ा है, महडू शाखा का यह चारण बड़ा है और अल्लाह का नाम बड़ा है। इनके अलावा और कोई बड़ा नहीं है।

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