Saturday, July 27, 2024
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अध्याय – 15 – जैन-धर्म तथा भारतीय संस्कृति पर उसका प्रभाव (द)

सामाजिक मान्यताओं के सम्बन्ध में महावीर स्वामी के विचार

उपर्युक्त दर्शन के साथ-साथ महावीर स्वामी ने उस युग में प्रचलित धार्मिक और सामाजिक बुराइयों के सम्बन्ध में कई बातें कहीं-

(1.) वेदों के ज्ञान में विश्वास नहीं

महावीर ने जीवन में नैतिकता का पालन करने पर जोर दिया तथा ब्राह्मण धर्म के सिद्धांतों, वेदों, यज्ञों और कर्मकाण्ड का विरोध किया। उनका कहना है था कि यह विश्वास करने का कोई कारण नहीं कि वैदिक ज्ञान ही एकमात्र पूर्ण और निर्विवाद है। उनके अनुसार वेद ईश्वरीय कृति न होकर मानवीय कृति थे। अहिंसावादी होने के कारण महावीर, हिंसक यज्ञों को स्वीकार नहीं कर सकते थे। उनके अनुसार यज्ञ तथा कर्मकाण्ड यांत्रिक थे और उनसे मनुष्य की अन्तःशुद्धि सम्भव नहीं थी।

(2.) ईश्वर के अस्तित्त्व में विश्वास नहीं

महावीर का विचार था कि मनुष्य की आत्मा में जो कुछ महान् है और शक्ति तथा नैतिकता है, वही भगवान् है। इसके आधार पर माना जाता है कि जैन-धर्म ईश्वर के अस्तित्त्व में विश्वास नहीं करता तथा वह ईश्वर को सृष्टि का निर्माता नहीं मानता। जैन-धर्म के अनुसार संसार वास्तविक है और इसका कभी भी विनाश नहीं होता।

संसार छः द्रव्यों का समुच्चय है। ये द्रव्य हैं- (1.) जीव, (2.) पुद्गल, (3.) धर्म, (4.) अधर्म, (5.) आकाश और (6.) काल। ये समस्त द्रव्य शाश्वत, नित्य और अनश्वर हैं। अतः सृष्टि भी अनादि और अनन्त है। उपरोक्त द्रव्यों के संगठन एवं विघटन के कारण इनसे निर्मित पदार्थों के रूप में परिवर्तन होता रहता है।

(3.) आत्मा के अस्तित्त्व में विश्वास

महावीर आत्मा की अमरता में विश्वास करते थे। उनके अनुसार प्रकृति में परिवर्तन हो सकते हैं किन्तु आत्मा अजर-अमर है और सदैव एक सी बनी रहती है। वे जीव को ही आत्मा मानते हैं और उनके अनुसार जीव केवल मनुष्य, पशु और वनस्पति में ही नहीं है, अपितु विश्व के कण-कण में समाया है।

(4.) कर्मफल एवं पुनर्जन्म में विश्वास

महावीर स्वामी का मानना था कि यदि वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली जाए तो कर्मों के बन्धन नष्ट हो सकते हैं और निर्वाण प्राप्त हो सकता है। उनका उपदेश था-‘मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्म-फल का नाश करे और इस जन्म में किसी प्रकार का कर्म-फल संगृहीत न करे, ऐसा करने से मनुष्य को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी।’

इसका अर्थ यह हुआ कि जैन-धर्म कर्म-फल एवं पुनर्जन्म दोनों में विश्वास रखता है। मनुष्य की उन्नति-अवनति स्वयं उसके कर्मों पर निर्भर करती है। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना जीव का छुटकारा नहीं हो सकता। इस प्रकार, कर्म ही पुनर्जन्म का कारण है।

(5.) सामाजिक समानता में विश्वास

महावीर स्वामी ने आर्यों की वर्ण व्यवस्था का विरोध किया और जैन-धर्म का द्वार बिना किसी भेदभाव के समस्त वर्णों के लिए खोल दिया। उनकी मान्यता थी कि समस्त देहधारियों की आत्मा एक जैसी है तथा निर्वाण व्यक्तिगत पुरुषार्थ के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

इसलिए मोक्ष प्राप्ति के सम्बन्ध में किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। महावीर स्वामी के बाद उनके अनुयाई समानता के इस सिद्धान्त को व्यवहार में नहीं ला सके और उनमें जाति-भेद के संस्कार विद्यमान रहे। यही कारण है कि जैन-धर्म शूद्र कही जाने वाली जातियों को नहीं अपना सका।

(6.) स्त्री स्वातन्त्र्य में विश्वास

बाईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने स्त्रियों को निर्वाण-प्राप्ति की अधिकारिणी माना था। महावीर स्वामी ने भी उनके इस विचार का अनुसरण किया तथा अपने धर्म तथा संघ के द्वार स्त्रियों के लिए खोल दिए। इस कारण अनेक स्त्रियों ने जैन-धर्म की दीक्षा ली। पुरुषों की भाँति स्त्रियों के भी दो वर्ग थे- एक श्रमणियों का और दूसरा श्राविकाओं का। इन्हें भी उपासना करने तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयास करने का अधिकार था।

जैन-धर्म का संगठन

अनुश्रुति के अनुसार महावीर स्वामी के शिष्य समुदाय में 14 हजार श्रमण, 36 हजार श्रमणियाँ, 1 लाख 69 हजार श्रावक तथा 3 लाख 18 हजार श्राविकाएं थीं। महावीर ने पावापुरी में जैन-संघ की स्थापना की जिसके अध्यक्ष वे स्वयं थे। महावीर स्वामी के जीवन में 11 गणधर अर्थात् मुख्य प्रचारक थे। जब महावीर का निधन हुआ तब केवल केवल एक गणधर सुधर्मन् ही जीवित बचे थे।

 अगले 22 वर्ष तक यही सुधर्मन् जैन संघ के अध्यक्ष रहे। तदनंतर जम्बू स्वामी जैन संघ के नायक हुए जो लगभग 44 वर्षों तक जैन संघ के प्रमुख रहे। उन्होंने मथुरा तथा शूरसेन में जैन-धर्म का व्यापक प्रचार किया। उनके उपरांत जैन संघ का विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता। मगध के अंतिम नंद शासक के समय सम्भूति विजय जैन संघ के अध्यक्ष थे।

उनके बाद भद्रबाहु जैन संघ के छठे अध्यक्ष हुए जो सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समकालीन थे। भद्रबाहु ने जैन-धर्म के प्रमुख ग्रंथ कल्पसूत्र की रचना की। इसमें तेईस तीर्थंकरों की जीवनियां, जैन संघ के प्रमुखों तथा मतों के विवरण हैं एवं जैन साधुओं के लिए बनाए गए नियम लिखे हुए हैं। जैन-धर्म के इतिहास में आचार्य भद्रबाहु का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

जैन-धर्म का प्रचार एवं प्रसार

महावीर स्वामी के प्रयत्नों से जैन-धर्म का प्रचार बड़े उत्साह से आरम्भ हुआ। लोगों द्वारा इस धर्म को तेजी से अपनाने के कई कारण थे-

(1.) इसका मुख्य कारण स्वयं महावीर स्वामी का इसके प्रचार-प्रसार में भाग लेना था। वे स्वयं साल के आठ माह तक स्थान-स्थान पर घूम-घूमकर अपने मत का प्रचार करते थे तथा वर्षा ऋतु के चार मास किसी एक स्थान पर बिताते थे।

(2.) महावीर स्वामी ने जन-भाषा ‘पालि’ में अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया जिससे लोगों ने उनके उपदेशों एवं विचारों को बड़ी सरलता से समझ लिया। अन्य लोक-भाषाओं में जैन-धर्म के साहित्य की रचना हुई जिससे यह धर्म आसानी से लोकप्रिय बन गया।

(3.) जैन-धर्म के शीघ्र प्रसार का एक महत्त्वपूर्ण कारण सामाजिक समानता की भावना थी। महावीर ने अपने धर्म का द्वार समस्त जाति के लिए समान रूप से खोल रखा था। इस कारण वैदिक धर्म की कठोर वर्ण व्यवस्था में उपेक्षित अनुभव कर रहे लोगों ने महावीर के विचारों को अपना लिया।

(4.) जैन-धर्म के प्रचार-प्रसार में महावीर स्वामी द्वारा संस्थापित जैन-संघों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

(5.) जैन-धर्म के दार्शनिक ग्रंथों ने इस धर्म को जनता की दृष्टि में आदरणीय बना दिया। जैन मुनि इन्द्रभूति, वायुभूति, भद्रबाहु, जिनसेन, गुणभद्र, हेमचन्द्र आदि ने विविध ग्रन्थों की रचना करके इसके प्रचार-प्रसार में विपुल योगदान दिया।

(6.) महावीर की सफलता को ब्राह्मणों के विरुद्ध क्षत्रियों की सफलता के रूप में देखा गया। इस भावना से प्रेरित होकर बहुत से राजाओं, राजपुत्रों एवं क्षत्रियों ने इस धर्म को अपना लिया।

(7.) महावीर स्वामी राजवंश से सम्बन्धित थे और भारत में कई राजवंशों के साथ उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे। इस कारण इस धर्म को राज्याश्रय मिल गया जिसने इस धर्म के प्रचार-प्रसार में बड़ी भूमिका निभाई। ईस्वी सन् के प्रारम्भ होने तक जैन-धर्म लगभग सम्पूर्ण भारत में फैल गया किंतु जैन-धर्म का प्रसार बौद्ध धर्म तथा वैष्णव धर्म की भाँति नहीं हो पाया।

समय-समय पर इसका विकास अवरुद्ध भी होता रहा किंतु यह भारत में स्थायित्व प्राप्त करने में सफल रहा। राजपूतकाल में इसका आंशिक रूप में पुनरुत्थान भी हुआ। आज भी महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात सहित भारत के अनेक प्रांतों में जैन-धर्म के लगभग 45 लाख अनुयाई निवास करते हैं। भारत की जनसंख्या में इनका योगदान लगभग 0.4 प्रतिशत है।

जैन-धर्म को राज्याश्रय

महावीर स्वामी ने समकालीन मगध शासकों- बिम्बिसार, अजातशत्रु और उदायीभद्र अथवा उदयन ने जैन-धर्म को संरक्षण प्रदान किया। अवन्ती, वत्स, अंग, चम्पा, सौबीर आदि राज्यों के शासकों ने भी इसे स्वीकार कर इसके प्रसार में सहयोग दिया। वज्जि, लिछच्वी एवं मगध वंश से महावीर का पारिवारिक सम्बन्ध होने से उस पूरे क्षेत्र में जैन-धर्म का तेजी से प्रसार हुआ।

सिकन्दर के आक्रमण के समय जैन साधु सिंधु-नदी के तट तक विद्यमान थे। जैन जैन ग्रंथों के अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने अंतिम समय में जैन-धर्म स्वीकार कर लिया था। मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त के प्रपौत्र सम्प्रति ने जैन-धर्म को दक्षिण भारत में फैलाने में सहयोग दिया। ईसा पूर्व द्वितीय शती में कलिंगराज खारवेल ने जैन-धर्म ग्रहण किया और विशाल जैन प्रतिमा का निर्माण करवाया।

उज्जैन नरेश गर्दभिल्ल, उसके पुत्र विक्रम तथा जैन मुनि कालकाचार्य के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व पहली शती में मालवा की राजधानी उज्जैन इस धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र थी। कुषाण नरेशों के समय मथुरा में जैन-धर्म का खूब प्रसार हुआ। पांचवीं से बारहवीं शती ईस्वी तक दक्षिण भारत के गंग, कदम्ब, चौलुक्य तथा राष्ट्रकूट राजाओं ने जैन-धर्म को आश्रय एवं प्रोत्साहन दिया।

राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (ई.814-74) ने जैन-धर्म के प्रचार में विशेष रुचि दिखाई। चौलुक्य राजा सिद्धराज एवं उसके पुत्र कुमारपाल, जैन-धर्म के महान् संरक्षक थे। हेमचंद्र नामक प्रसिद्ध जैन मुनि कुमारपाल की सभा में ही था।

राजपूत काल में अनेक चौहान, प्रतिहार, परमार आदि राजपूत राजा भी जैन-धर्म के प्रति आदर का भाव रखते थे और जैन मंदिरों तथा उपाश्रयों को भूमि एवं भेंट आदि प्रदान करते थे। जब भारत भूमि पर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हो गए तब राजपूत राजाओं ने जैन-धर्म को संरक्षण देना लगभग समाप्त कर दिया। इससे जैन-धर्म की क्षति हुई।

जैन-धर्म में विभाजन

महावीर स्वामी के जीवनकाल में ही जैन-धर्म में मतभेद उत्पन्न हो गया। स्वयं उन्हीं के दामाद जमालि क्षत्रिय का महावीर स्वामी से ‘क्रियमाणकृत’ के सिद्धान्त पर मतभेद हो गया और वह जैन-संघ से अलग हो गया। महावीर स्वामी की पुत्री ‘प्रियदर्शना’ भी लगभग 1000 भिक्षुणियों के साथ जैन-संघ से पृथक हो गई परन्तु कालान्तर में वह अपनी समस्त अनुयाइयों के साथ संघ में वापस लौट आई। इस घटना से जैन-धर्म के प्रचार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। महावीर स्वामी के बाद जैन यातियों में भी आचार सम्बन्धी परिवर्तन होने लगे।

महावीर के निर्वाण के 160 वर्ष पश्चात् मगध में 12 वर्ष का लम्बा अकाल पड़ा जिसके फलस्वरूप बहुत से जैन भिक्षुओं को आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में मगध छोड़़कर मैसूर चले जाना पड़ा। बहुत से जैन साधु, आचार्य सम्भूति विजय के शिष्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में मगध में ही रह गए। मगध के इस जैन समुदाय ने प्राचीन जैन ग्रंथों के संकलन के लिए पाटलिपुत्र में एक सम्मेलन बुलाया।

इस सम्मेलन में द्वादष अंगों का संकलन किया गया जिन्हें जैन-धर्म के सिद्धांतों का महत्त्वपूर्ण संकलन माना जाता है। इस संकलन के समय महावीर के बताए सिद्धांतों में बहुत से परिवर्तन कर दिए गए। प्राचीन जैन साधु नग्न रहते थे परन्तु अब कुछ साधु वस्त्र धारण करने लगे।

इस सम्मेलन को ‘प्रथम जैन परिषद्’ एवं ‘पाटलिपुत्र-वाचना’ कहा जाता है। अकाल समाप्त होने के बाद जब भद्रबाहु अपने शिष्यों के साथ पाटलिपुत्र आए तो उन्होंने इन परिवर्तनों को स्वीकार करने से मना कर दिया।

इस कारण जैन-धर्म दो शाखाओं- दिगम्बर और श्वेताम्बर में बंट गया। मगध के जैन साधुओं ने श्वेत वस्त्र पहनने आरम्भ कर दिए थे इसलिए वे श्वेताम्बर कहलाए जबकि नग्न रहने वाले साधुओं को दिगम्बर कहा गया। श्वेताम्बरों की तुलना में दिगम्बर सम्प्रदाय को अधिक लोकप्रियता हुई। इसलिए इन दोनों सम्प्रदायों में मतभेद और बढ़े।

यद्यपि इन दोनों सम्प्रदायों के सिद्धांतों एवं दार्शनिक चिंतन में विशेष अंतर नहीं है तथापि बाह्य स्वरूप में कुछ अन्तर हैं-

क्र.स.दिगम्बर सम्प्रदायश्वेताम्बर सम्प्रदाय
1.दिगम्बर सम्प्रदाय अधिक कट्टरपंथी है और इसके अनुयाई, धर्म के नियमों का पालन कठोरता से करते हैं।श्वेताम्बर सम्प्रदाय उदारवादी है और इसके अनुयाई मानवीय दुर्बलताओं को ध्यान में रखकर, नियम-पालन में अधिक कठोरता नहीं बरत्ते।
2.दिगम्बर सम्प्रदाय के साधु निर्वस्त्र रहते हैं।श्वेताम्बर सम्प्रदाय के साधु श्ेवत वस्त्र धारण करते हैं।
3.दिगम्बर सम्प्रदाय स्त्रियों को इसी जीवन में निर्वाण प्राप्त करने की अधिकारिणी नहीं मानता।श्वेताम्बर सम्प्रदाय उनको निर्वाण की अधिकारिणी मानता है।
4.दिगम्बर सम्प्रदाय का विश्वास है कि ‘कैवल्य ज्ञान’ की प्राप्ति के बाद व्यक्ति को आहार की आवश्यकता नहीं रहती।श्वेताम्बर वालों का मत है कि इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी व्यक्ति को भोजन की आवश्यकता रहती है।
5.दिगम्बर सम्प्रदाय के मतानुसार भगवान महावीर ने विवाह किया ही नहीं था। न उनके कोई पुत्री थी।श्वेताम्बर मत की मान्यता है कि भगवान महावीर ने यशोदा से विवाह किया  था और उनके प्रियदर्शना नामक पुत्री हुई थी।
6.दिगम्बर मत के अनुसार 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ पुरुष थे।श्वेताम्बर मत के अनुसार 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ स्त्री थे।
7.दिगम्बर सम्प्रदाय आगमों को प्रमाण नहीं मानता।श्वेताम्बर सम्प्रदाय आगमों को प्रमाण मानता है।

कालान्तर में जैन-धर्म की दोनों शाखाएं भी तेरापन्थी, मन्दिर मार्गी, स्थानकवासी आदि अन्य उपशाखाओं में बंट गई और जैन-धर्म भी, हिन्दू-धर्म की भांति अनेक मत-मतान्तरों में विभाजित हो गया।

जैन-धर्म को व्यापक लोकप्रियता न मिलने के कारण

बौद्ध धर्म की तुलना में जैन-धर्म अधिक व्यापक नहीं हो पाया। इसके कई कारण थे-

(1.) जैन-धर्म के सीमित प्रसार का मुख्य कारण इस धर्म में दार्शनिक पक्ष की प्रधानता होना और इसके आचरण सम्बन्धी नियमों में कठोरता का होना था। अहिंसा, नग्नता, केशलुंचन, संथारा तथा काया-क्लेश के सिद्धान्त जनसामान्य के लिए कभी भी आकर्षण का विषय नहीं हो सकते थे।

(2.) महावीर स्वामी ने जाति-प्रथा का विरोध किया था परन्तु उनके अनुयाई इस सिद्धान्त को हृदय से नहीं अपना पाए और संघ में प्रवेश के लिए उच्च जातियों के लोगों को ही प्राथमिकता दी जाती रही। इससे जैन-धर्म निम्न जातियों में अलोकप्रिय हो गया।

(3.) महावीर ने ईश्वर एवं देवी-देवताओं की पूजा का निषेध किया था किंतु जैन धर्मावलम्बियों ने ईश्वर की जगह तीर्थंकरों को पूजना आरम्भ कर दिया तथा अपनी सुविधानुसार नए देवी-देवताओं के अस्तित्त्व की कल्पना कर ली। सामान्य हिन्दू ईश्वर को छोड़़कर तीर्थंकरों तथा वैदिक देवी-देवताओं के स्थान पर जैन देवी-देवताओं को पूजने को तैयार नहीं हुआ।

(4.) ब्राह्मण धर्म की तुलना में जैन-धर्म अधिक लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सका। समय के साथ-साथ जैन-धर्म में ब्राह्मण धर्म की अनेक बातें घुस गईं। ब्राह्मण धर्म की जाति-व्यवस्था, धार्मिक तथा सामाजिक संस्कार, भक्तिवाद और उसके देवी देवता भी जैन-धर्म में प्रवेश पा गए। इसलिए जैन-धर्म का बाह्य स्वरूप हिन्दू-धर्म जैसा ही हो गया और उसमें नवीनता का अभाव हो गया।

(5.) भारतीय जनसमुदाय सैंकड़ों सालों से कर्म-फल के सिद्धांत में विश्वास करता आया था किंतु जैन दर्शन में संचित कर्मों की पुद्गल के रूप में कल्पना की गई जो एक प्रकार का अजीव अर्थात् ‘मैटर’ था। परम्परागत भारतीय समाज पुद्गल के सिद्धांत पर विश्वास नहीं कर सका।

(6.) जैन संघों का संगठन जनतन्त्रात्मक नहीं था। जैन संघों की शक्ति प्रारम्भ से ही धर्माचार्यों अथवा गणधरों के हाथों में केन्द्रित रही। इस कारण अन्य लोगों ने स्वयं को उपेक्षित अनुभव किया।

(7.) जैन संघों में प्रगतिशील वैधानिक व्यवस्था का अभाव था। इसलिए संघों की व्यवस्था पर कुछ लोग हावी हो गए और उन्होंने मनमाने ढंग से कार्य किया जिससे शेष लोग दूर छिटक गए।

(8.) जैन संघों में उद्देश्य के लिए समर्पित ऐसे विद्वानों की कमी रही जो अन्य धर्मों के दार्शनिक विचारों का खण्डन करके अपने धर्म की प्रतिष्ठा स्थापित कर पाते। इस कारण जैन-धर्म अन्य धर्मों की दौड़़ में बहुत पीछे रह गया।

(9.) भारत के कुछ शासकों ने जैन-धर्म को आश्रय अवश्य दिया परन्तु जैन-धर्म को अशोक, कनिष्क तथा हर्ष जैसे आश्रयदाता नहीं मिल पाए जो उसे देशव्यापी बना देते।

(10.) अन्य धर्मों की प्रतिद्वन्द्विता के कारण जैन-धर्म के प्रसार को धक्का लगा। यद्यपि बौद्ध धर्म उसका मुख्य प्रतिद्वन्द्वी था तथापि हिन्दू-धर्म की शैव एवं वैष्णव शाखाओं के उत्थान ने भी जैन-धर्म की प्रगति को अवरुद्ध किया।

(11.) दिगम्बर, श्वेताम्बर, तेरापंथी, मंदिरमार्गी, स्थानकवासी आदि शाखाओं के परस्पर मतभेदों ने भी जैन-धर्म के विकास को अवरुद्ध किया।

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