जैन धर्म
जैन-धर्म का जन्म कब हुआ, इसके बारे में ठीक से नहीं कहा जा सकता। जैन साहित्य के अनुसार जैन-धर्म आर्यों के वैदिक धर्म से भी पुराना है किंतु जैन-धर्म का प्रादुर्भाव वैदिक धर्म की प्रतिक्रिया में हुआ था इसलिए जैन-धर्म वैदिक धर्म से पुराना नहीं हो सका। जैन-धर्म की स्थापना एवं विकास में योग देने वाले तपस्वी सन्यासियों को तीर्थंकर कहा जाता है।
जैन-धर्म के पहले तीर्थंकर ऋषभदेव तथा दूसरे तीर्थंकर अरिष्टनेमि का नाम ऋग्वेद के सूक्तों से ग्रहण किया गया है। विष्णु-पुराण एवं भागवत् पुराण में भी ऋषभदेव की कथा का उल्लेख है जहाँ ये नारायण के अवतार माने गए हैं। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे। प्रथम बाईस तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है क्योंकि उनके बारे में निश्चित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते किंतु तेईसवें एवं चौबीसवें तीर्थंकर निश्चित रूप से ऐतिहासिक व्यक्ति थे।
भगवान पार्श्वनाथ
जैन साहित्य के अनुसार पार्श्वनाथ का जन्म महावीर से लगभग 250 वर्ष पूर्व आठवीं सदी ईसा पूर्व में हुआ था। उनका उल्लेख ब्राह्मण साहित्य में भी मिलता है। वे काशी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। उनकी माता का नाम वामा था। भारतीय पुराणों में अश्वसेन नामक एक नागराजा का उल्लेख मिलता है। जैन मूर्तियों में मिलने वाला नाग पार्श्वनाथ का प्रतीक है।
पार्श्वनाथ का विवाह कुशस्थल की राजकन्या प्रभावती के साथ हुआ था। 30 वर्ष की अवस्था तक उन्होंने वैभव-विलास का जीवन व्यतीत किया। फिर गृहस्थ जीवन को त्याग कर सत्य की खोज में निकल गए। 83 दिनों की घोर तपस्या के बाद उन्हें वाराणसी के सम्मेद पर्वत पर ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्ति के बाद लगभग 70 वर्ष तक उन्होंने धर्म प्रचार का काम किया। 100 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।
पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित मार्ग का अनुसरण करने वाले ‘निग्रन्थ’ कहलाए, जिसका अर्थ होता है- ‘सांसरिक बन्धनों से मुक्त हो जाने वाले।’ इस प्रकार जैन-धर्म का पुराना नाम ‘निग्रन्थ धर्म’ है जिसमें राग-द्वेष का कोई स्थान नहीं है।
पार्श्वनाथ के अनुयाइयों की संख्या बहुत अधिक थी। जैन साहित्य में पार्श्वनाथ की अनुयाई स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है। महावीर स्वामी के माता-पिता भी पार्श्वनाथ के अनुयाई थे। पार्श्वनाथ ने अपने अनुयाइयों को संगठित करके चार गणों की स्थापना की तथा उन्हें अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह नामक चार सिद्धान्तों पर चलने को कहा।
पार्श्वनाथ ने ब्राह्मणों के बहुदेववाद और यज्ञवाद का विरोध किया। वे वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं रखते थे तथा हिंसात्मक यज्ञों के विरोधी थे। जन्म आधारित वर्ण-व्यवस्था में भी उनका विश्वास नहीं था। पार्श्वनाथ के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी है। अतः स्पष्ट है कि महावीर स्वामी, जैन-धर्म के संस्थापक नहीं थे।
उनके जन्म से सैंकड़ों वर्ष पूर्व जैन-धर्म संगठित हो चुका था। उसके अपने विधि-विधान थे। जीवन-यापन की विशेष व्यवस्था थी। उनके अपने चार संघ थे। प्रत्येक संघ एक-एक गणधर की देखरेख में काम करता था। महावीर स्वामी ने उनकी मौजूदा व्यवस्था में सुधार करके उसे लोकप्रिय बनाया। इसीलिए उन्हें जैन-धर्म का सुधारक माना जाता है।
महावीर स्वामी
जैन-धर्म के 24वें तथा अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म ई.पू. 599 में वैशाली के निकट कुण्डग्राम के ज्ञातृक क्षत्रिय कुल में हुआ। कुछ स्रोत महावीर का जन्म ई.पू. 540 में होना बताते हैं। उनके पिता सिद्धार्थ, ज्ञातृक क्षत्रियों के छोटे से राज्य कुण्डग्राम के राजा थे। महावीर की माता का नाम त्रिशला था जो लिच्छवी वंश के प्रसिद्ध राजा चेटक की बहिन थी।
महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धनाम था। उनके जन्म पर ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि बड़ा होने पर वह या तो चक्रवर्ती राजा बनेगा अथवा परमज्ञानी भिक्षु। वर्धमान को बाल्यकाल में क्षत्रियोचित शिक्षा दी गई। युवावस्था में उनका विवाह यशोदा नामक सुन्दर राजकन्या के साथ किया गया।
इस वैवाहिक सम्बन्ध से उनके एक पुत्री भी हुई जिसका विवाह जमालि नामक क्षत्रिय सरदार के साथ किया गया। वर्धमान जब 30 वर्ष के हुए तब उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। इस घटना से उनकी निवृत्तिमार्गी प्रवृत्ति और अधिक मजबूत हो गयी। उन्होंने अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से आज्ञा लेकर घर त्याग दिया और भिक्षु बन गए।
महावीर ने तेरह माह तक भिक्षु के वस्त्र धारण करके घोर तपस्या की। परन्तु उन्हें अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली। इस पर उन्होंने भगवान पार्श्वनाथ के सम्प्रदाय को छोड़़ दिया और अकेले ही तपस्या करने लगे। उनके वस्त्र जीर्ण-शीर्ण होकर गिर गए तब वर्धमान निर्वस्त्र रहने लगे। उनके नग्न शरीर को कीट-पतंग काटने लगे परन्तु वे पूर्णतः उदासीन रहे।
बारह वर्ष तक शरीर की उपेक्षा कर वे सब प्रकार के कष्ट सहते रहे। उन्होंने संसार के समस्त बन्धनों का उच्छेद कर दिया। संसार से वे सर्वथा निर्लिप्त हो गए। अन्त में जम्भियग्राम (जृम्भिका) के समीप उज्जुवालिया (ऋजुपालिका) सरिता के तट पर महावीर को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। तभी उन्हें ‘केवलिन्’ की उपाधि मिली। इन्द्रियों को जीत लेने के कारण वे ‘जिन’ कहलाए। साधना में अपूर्व साहस दिखलाने के लिए वे महावीर कहलाए। समस्त सांसारिक बन्धनों को तोड़ देने से वे ‘निग्रन्थ’ कहलाए।
सत्य का ज्ञान हो जाने के बाद महावीर ने जनसामान्य को जीवनयापन का सही मार्ग दिखाने का कार्य प्रारम्भ किया। वे अपने विचारों का प्रचार करने के लिए स्थान-स्थान पर घूमने लगे। मगध, काशी, कोसल आदि राज्य उनके प्रचार क्षेत्र थे। महावीर स्वामी का कई राजवंशों से निकट का सम्बन्ध था, इसलिए उन्हें अपने विचारों के प्रचार में उन राजवंशों से काफी सहायता मिली।
उनकी सत्यवाणी तथा जीवन के सरल मार्ग से प्रभावित होकर सैंकड़ों लोग उनके अनुयाई बन गए। राजा-महाराजा, वैश्य-व्यापारी तथा अन्य लोग उनके उपदेशों का अनुसरण करने लगे और धीरे-धीरे उनके अनुयाइयों की संख्या काफी बढ़ गई। जैन साहित्य के अनुसार लिच्छवी का राजा चेटक, अवन्ती का प्रद्योत, मगध के राजा बिम्बिसार और अजातशत्रु, चम्पा का राजा दधिवाहन और सिन्धु-सौबीर का राजा उदयन सहित अनेक तत्कालीन राजा, महावीर स्वामी के अनुयाई थे। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार बिम्बिसार और प्रद्योत, महात्मा बुद्ध के अनुयाई थे।
इससे पता चलता है कि उस युग के हिन्दू शासक धार्मिक दृष्टि से काफी उदार तथा सहिष्णु थे और वे ज्ञानी पुरुषों का समान रूप से आदर करते थे। इसी कारण जैन और बौद्ध दोनों धर्मों ने उन्हें अपना-अपना अनुयाई मान लिया। अन्त में ई.पू.527 में 72 साल की आयु में पावापुरी (पटना) में महावीर स्वामी को मोक्ष प्राप्त हुआ। कुछ स्रोत उनका निधन ई.पू. 467 में होना मानते हैं। उनके निधन के बाद भी जैन-धर्म उनके बताए सिद्धांतों पर चलता रहा तथा उनके मुख्य शिष्य जैन-संघ का प्रबंध करते रहे।
पार्श्वनाथ एवं महावीर के सिद्धांतों में अंतर
भगवान पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी के सिद्धान्तों में विशेष अंतर नहीं था। पार्श्वनाथ ने चार व्रतों की आवश्यकता पर जोर दिया था, महावीर स्वामी ने उनके साथ ‘ब्रहाचर्य’ नामक एक और व्रत जोड़ दिया। पार्श्वनाथ ने अपने अनुयाइयों को वस्त्र पहनने की स्वीकृति दे दी थी परन्तु महावीर स्वामी ने जैन भिक्षुओं को निर्वस्त्र रहने को कहा। महावीर अपने बताए सिद्धांतों में से दो सिद्धांतों- ब्रह्मचर्य एवं वैराग्य पर अधिक जोर देते थे।
जैन गण
महावीर के शिष्यों में साधु एवं गृहस्थ, स्त्री एवं पुरुष, धनी एवं निर्धन सभी थे। ये शिष्य आगे चलकर 11 समूहों में बंट गए जिन्हें ‘गण’ कहते थे। प्रत्येक समूह का नेता ‘गणधर’ कहलाता था। इस प्रकार के 13 गणों का उल्लेख पाया जाता है।