पिछली कथा में हमने तक्षक द्वारा चंद्रवंशी राजा परीक्षिक को विष से जलाने एवं परीक्षित के पुत्र जनमेजय द्वारा सर्पयज्ञ का आयोजन करने की कथा की चर्चा की थी। ऋषियों द्वारा काले कपड़े पहनकर किए गए इस यज्ञ में संसार भर के सर्प आ-आकर भस्म हो गए थे किंतु वासकि एवं तक्षक जैसे बड़े सांप अब भी जनमेजय के यज्ञकुण्ड की पहुंच से दूर थे।
जब यज्ञ की आंच नागराज वासुकी तक पहुंची तो उसने अपनी बहिन जरत्कारू से कहा- ‘बहिन मेरा अंग-अंग जल रहा है। दिशाएं नहीं सूझतीं। चक्कर आने के कारण बेहोश सा हो रहा हूँ। दुनिया घूम रही है। कलेजा फटा जा रहा है। मुझे ऐसा दीख रहा है कि अब मैं भी विवश होकर धधकती आग में गिर जाउंगा।
इस यज्ञ का यही उद्देश्य है। हमारी माता कदू्र ने हम सर्पों को आग में जलकर भस्म होने का श्राप दिया था। जिसके कारण हम भस्म हो रहे हैं किंतु मैंने इसी संकट से बचने के लिए तुम्हारा विवाह जरत्कारू नामक ब्राह्मण से किया था। तुम्हारा पुत्र आस्तीक सर्पयज्ञ को बंद करवा सकता है। अतः अब तुम हमारी रक्षा करो।’
इस पर जरत्कारू ने अपने पुत्र आस्तीक को बुलाकर कहा कि वह अपने मामा के कुल की रक्षा करे। इस पर आस्तीक ऋषि जो कि अभी बालक ही था, अपने मामा को उनकी सुरक्षा करने का वचन देकर राजा जनमेजय की यज्ञशाला में पहुंचा। बालक आस्तीक को यज्ञशाला के बाहर ही रोक दिया गया।
इस पर आस्तीक ने उच्च स्वर में यज्ञ की स्तुति करनी आरम्भ की। इस स्तुति को सुनकर राजा जनमेजय ने आस्तीक ऋषि को यज्ञशाला के भीतर बुलवाया। आस्तीक ऋषि ने यज्ञशाला में पहुंचकर वहाँ बैठे हुए यजमान, ऋत्विज्, सभासद् तथा अग्नि की स्तुति की जिसे सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग प्रसन्न हो गए।
पूरे आलेख के लिए देखें, यह वी-ब्लॉग-
राजा जनमेजय ने बालक रूपी आस्तीक ऋषि से कहा- ‘हे ब्राह्मण-पुत्र! आप अपनी मनवांछित वस्तु मांगें।’
इसी समय इन्द्र का सिंहासन भी यज्ञकुण्ड की तरफ खिंचने लगा जिससे भयभीत होकर इंद्र ने तक्षक को छोड़ दिया। इन्द्र के जाते ही तक्षक बेहोश हो गया तथा तेजी से अग्नि कुण्ड की तरफ खिंचने लगा।
इस पर बालक रूपी आस्तीक ऋषि ने तक्षक की तरफ हाथ उठाकर कहा- ‘ठहर जा! ठहर जा! ठहर जा!’ इस पर तक्षक आकाश में ही लटक गया।
आस्तीक ऋषि ने राजा जनमेजय से कहा- ‘यदि आप मुझे मेरी मनवांछित वस्तु देना चाहते हैं तो आप इस यज्ञ को इसी समय रोक दीजिए तथा यज्ञकुण्ड की ओर आते हुए नागों एवं सर्पों को अभयदान दीजिए।’
राजा ने देखा कि तक्षक अब भी यज्ञकुण्ड से कुछ दूरी पर रह गया था इसलिए राजा ने रुष्ट होकर कहा- ‘हे ब्राह्मण! तुम्हें सोना, चांदी, गौ एवं भूमि आदि मांगने चाहिए थे। मैं चाहता हूँ कि यह यज्ञ बंद न हो।’
इस पर आस्तीक ने कहा- ‘राजन् मैं चाहता हूँ कि मेरा मातुल कुल नष्ट न हो। अतः आप मुझे यही वर दीजिए।’
इस पर राजा और ऋषि के बीच वाद-विवाद होने लगा। उनके विवाद को सुनकर यज्ञ में बैठे ऋषियों ने राजा से कहा- ‘राजन् आप वचन-बद्ध हो चुके हैं, अतः आप इस बालक को उसका मुंहमांगा वर दीजिए।’
राजा ने सिर झुका कर ऋत्विजों, सभासदों एवं ब्राह्मणों की बात मान ली। सूतजी ने यज्ञ पूर्ण होने की घोषणा की तथा राजा ने सभी उपस्थित लोगों को बहुत सारा दान एवं सम्मान देकर विदा किया। इस प्रकार तक्षक और वासुकी यज्ञकुण्ड की अग्नि में भस्म होने से बच गए। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत काल में भारत में तक्षक जाति निवास करती थी। कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि तक्षक अथवा नाग अनार्य थे और संभवतः शक थे। इनका जातीय चिह्न सर्प था। तिब्बत, मंगोलिया, और चीन के कुछ निवासी भी स्वयं को तक्षक नागों के वंशज कहते हैं। जब श्रीकृष्ण तथा अर्जुन ने खाण्डव वन का दहन करके नागों का नाश किया था तब से ही नागों ने पाण्डुपुत्रों से शत्रुता बांध ली थी।
यही कारण था कि महाराज युधिष्ठिर एवं अर्जुन आदि की मृत्यु के बाद नागों ने राजा परीक्षित पर आक्रमण करके उसे मार डाला था। जब जनमेजय राजा हुआ तो उसने नागों की राजधानी तक्षशिला पर आक्रमण करके तक्षक नागों का विनाश किया था।
संभवतः तक्षकों के राजा तक्षक एवं वासुकी इस युद्ध में जीवित बच गए थे और राजा जनमेजय ने उन्हें प्राणदान दिया था। यही घटना जनमेजय के सर्पयज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुई होगी! यद्यपि चंद्रवंशी राजाओं की शृंखला हजारों वर्षों तक चलती रही तथापि अब उनकी कथाएं दैविक शक्तियों के चमत्कारों से मुक्त हो चुकी थीं। अतः इस कथा के साथ ही चंद्रवंशी राजाओं की कथाओं के क्रम को हम विराम देते हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता