पूरी मुगल सेना में हड़कम्प मचा हुआ था। जिसे देखो वही कुछ न कुछ नवीन सूचना बांटने में लगा हुआ था। जितने मुँह उतनी बातें। कोई कहता था कि खानखाना मलिक अम्बर के सामने समर्पण करने जा रहा है। कोई कहता था कि खानखाना ने जौहर करने का फैसला किया है। कोई कहता था कि बादशाह की कुमुक अहमदाबाद तक आ गयी है, इसलिये खानखाना उस कुमुक की प्रतीक्षा तक चुपचाप बैठा है। इतनी सारी बातों के बावजूद कोई भी सैनिक यह कहने की स्थिति में नहीं था कि इन सारी बातों में से कौन सी बात सही है।
इन चर्चाओं को विराम तभी लगा जब शाम के समय खानखाना ने पूरी फौज को एकत्र कर आधिकारिक रूप से घोषणा की कि यदि एक माह के भीतर बादशाही कुमुक नहीं आती है तो खानखाना के सिपाहियों को जौहर करने के लिये तैयार रहना चाहिये। आगे का निर्णय सिपाहियों को करना था कि उनमें से कौन खानखाना का साथ निभाना चाहता है और कौन मोर्चा छोड़कर भागना चाहता है।
हालांकि यह सभी जानते थे कि खानखाना की सेना अपने शत्रुओं और लुटेरों से इस कदर घिर गयी है कि मोर्चे पर से निकल भागना किसी के लिये संभव नहीं है। यहाँ तक कि स्वयं खानखाना के लिये भी नहीं। यदि ऐसा हो पाता तो खानखाना जौहर करने की घोषणा ही क्यों करता!
जब मलिक अम्बर रहमानदाद को मारने में सफल हो गया और दाराबखाँ लाख चाहकर भी मलिक अम्बर को नहीं पकड़ सका तो मलिक अम्बर के हौंसले बुलंद हो गये। उधर उसे यह खबर भी मिली कि बादशाह स्वयं तो कश्मीर में जा बैठा है और उसके दूसरे अमीर-उमराव कोट कांगड़े की लड़ाई में बुरी तरह फंस गये हैं। यह सूचना पाकर मलिक अम्बर ने खुल्लमखुल्ला बगावत कर दी।
मलिक अम्बर ने खुर्रम के साथ की हुई सारी संधियों को तोड़ डाला। उसे देखकर दूसरे दक्खिनियों ने भी मुगलों से विद्रोह कर दिया। खानखाना बहुत प्रयास करता था किंतु वह मलिक को दबा नहीं पाता था। शहनवाजखाँ और रहमानदाद के न रहने से खानखाना की ताकत बहुत घट गयी थी।
खानखाना ने बादशाह को बहुत सी चिठ्ठियाँ भिजवाईं कि कुछ सेना भिजवाई जाये किंतु बादशाह की ओर से कोई जवाब नहीं आया। ऐसा नहीं था कि बादशाह तक चिठ्ठियाँ पहुँची नहीं, चिठ्ठियाँ पहुँची किंतु बादशाह उनका जवाब देने की स्थिति में नहीं रहा था। मेवाड़, कश्मीर और कोट कांगड़े में सेनाएं इस कदर उलझ गयीं थीं कि किसी भी तरह से खानखाना को कुमुक भिजवाया जाना संभव नहीं था। यही कारण था कि जहाँगीर खानखाना को जवाब भिजवाने की बजाय चुप लगा जाना ही अधिक उचित समझ रहा था।
उधर दक्खिनियों ने खानखाना को खदेड़ना आरंभ किया और उसका पीछा करते हुए बुरहानपुर तक चले आये। बुरहानपुर में खानखाना बुरी तरह घिर गया। दक्खिनियों ने रसद की आपूर्ति काट दी। जिससे मुगल सेना के पशु घास और चारे के अभाव में मरने लगे। यहाँ तक कि आदमियों के भी भूखों मरने की नौबत आ गयी।
एक-एक करके सारे प्रदेश हाथ से निकलते जा रहे थे और मुगल सिपाहियों की संख्या घटती जा रही थी। खाने-पीने का सुभीता न देखकर बहुत से सिपाही खानखाना को छोड़कर दक्खिनियों से जा मिले थे। मुगलों की घटती हुई ताकत को देखकर लुटेरों की फौज मुगल सेना के चारों ओर इकट्ठी हो गयी। ये लुटेरे मौका पाते ही मुगलों के डेरे में घुस जाते और उनका माल-असबाब लूट कर भाग खड़े होते।
इस तरह सब काता-कूता कपास होते हुए देखकर खानखाना का मस्तिष्क सुन्न हो जाता था। वह एक ऊँची टेकरी पर घोड़ा खड़ा करके उस पर चढ़कर अपनी बूढ़ी आँखों से घण्टों तक उत्तर दिशा की ओर ताका करता था और किसी भी क्षण कुमुक आने की उम्मीद करता था किंतु वहाँ से कुमुक तो दूर किसी पत्र तक का जवाब नहीं आया।
साठ हजार दक्खिनियों का मुकाबला मुगलों के छः-सात हजार सिपाही किसी भी तरह नहीं कर सकते थे। एक जमाना वह भी था जब खानखाना मुठ्ठी भर सिपाहियों को लेकर मुजफ्फरखाँ जैसे प्रबल शत्रु से जा भिड़ा था और उसके छक्के छुड़ा दिये थे किंतु वक्त के थपेड़ों ने खानखाना के शरीर और मन में इतना दम न छोड़ा था। यहाँ तक कि बराड़ और खानदेश भी उसके हाथ से निकल गये। ये वे क्षेत्र थे जिन्हें खानखाना ने सत्रह साल पहले अपने अधीन किया था।
स्थितियाँ जब एक-दम असह्य हो गयीं तो खानखाना ने जहाँगीर को अंतिम पत्र लिखा कि यदि एक माह में आगरा से कुमुक नहीं भेजी गयी तो मेरे पास हिन्दू वीरों की तरह जौहर करने के अतिरिक्त और कोई उपाय न बचेगा। मैं अपने हरम की औरतों को आग में जला कर स्वयं अपने बेटों-पातों और सिपाहियों सहित शत्रु से जूझता हुआ मृत्यु को प्राप्त होऊंगा। मुगलिया सल्तनत को यही मेरी अंतिम सहायता होगी। शत्रुओं के हाथों अपमानित होने की अपेक्षा तो रण में जूझते हुए मर जाना अधिक श्रेयस्कर है।
खानखाना का पत्र पाकर जहाँगीर के हाथों से तोते उड़ गये। वह एकदम से बेचैन हो उठा। उसने तुरंत ही अपना संदेशवाहक खानखाना को दौड़ाया कि खुर्रम के आने से पहले कोई कदम न उठाये। उसने कोट कांगड़ा के मोर्चे पर फतह हासिल होने का जश्न मना रहे खुर्रम को संदेश भिजवाया कि जिस तरह तुम्हारे दादा जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर ने किसी जमाने में खानेआजम कोका को गुजरातियों के शिकंजे से छुड़ाया था, तुम भी उसी तरह तेज गति से बुरहानपुर पहुँच कर खानखाना को छुड़ाओ और यह शुभ समाचार मुझे तुरंत ही भिजवाओ। जहाँगीर ने अपनी स्वयं की भी लगभग सारी सेना कोकाखाँ के साथ दक्खिन के मोर्चे पर भिजवा दी।
खुर्रम ताबड़तोड़ कूच करता हुआ बुरहानपरु पहुँचा। उसने दक्खिनियों में कसकर मार लगाई और खानखाना को उनके शिकंजे से बाहर निकाला। खुर्रम की प्रबलता देखकर मलिक अम्बर ने पुनः दीनता दिखाते हुए मुगलों के अधिकार वाले पुराने क्षेत्र खुर्रम को समर्पित कर दिये।