Thursday, March 28, 2024
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अध्याय – 23 : ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत में न्यायिक सुधार

मुगल कालीन न्याय व्यवस्था का ह्रास

मुगल कालीन न्याय व्यवस्था कुरान के सिद्धांतों पर अवलम्बित थी किंतु उसका दण्ड विधान हिन्दुओं पर भी लागू किया गया था। अकबर के काल में काजी न्याय करते थे तथा मीर अदल का सम्बन्ध ऐसे मामलों से होता था जो दोनों समुदायों की धार्मिक विधि में सम्मिलित नहीं थे। मुगल प्रशासन के उत्तरार्द्ध में भूमि सुपुर्दगी प्रथा से समृद्ध भू-स्वामियों की शक्ति बढ़ने लगी। इससे न्याय व्यवस्था भी कई तरह से प्रभावित हुई। नई स्थिति में न्याय-प्रशासन केवल बड़े शहरों तक ही सीमित रह गया, जहाँ गवर्नरों की शक्ति अधिक थी। अन्य क्षेत्रों में न्याय से सम्बन्धित अधिकारियों के स्थान जमींदारों, धनी किसानों और लगान अधिकारियों ने प्राप्त कर लिये। दीवानी और फौजदारी अदालतों पर जमींदारों का अधिकार स्थापित हो गया। इस प्रकार 1757 ई. में प्लासी के युद्ध के पहले ही न्याय प्रबन्ध बिगड़ता जा रहा था, जो कम्पनी के शासन के आरम्भिक वर्षों में और अधिक बिगड़ गया।

बंगाल में द्वैध शासन के अंतर्गत न्याय व्यवस्था

बक्सर के युद्ध के बाद 1765 ई. में कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी के अधिकार प्राप्त हुए। दीवानी का तात्पर्य था कि कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा में लगान वसूल करे और दीवानी मुकदमों का फैसला करे। निजामत (सैनिक शक्ति और फौजदारी मुकदमों का अधिकार) नवाब ने पहले ही कम्पनी को दे दिया था। लॉर्ड क्लाईव इतनी सारी जिम्मेदारी कम्पनी पर नहीं डालना चाहता था, क्योंकि वह जानता था कि कम्पनी इतनी बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर पायेगी। इसीलिए क्लाइव ने वैदेशिक सम्बन्ध, सैनिक शक्ति तथा राजस्व प्राप्त करने के अधिकार कम्पनी के पास रखे किन्तु न्याय व्यवस्था भारतीयों के जिम्में छोड़ दी। इस कार्य के लिए बंगाल और बिहार में दो नायब दीवान नियुक्त किये गये। इस प्रकार कम्पनी इन क्षेत्रों में शासक तो थी, किन्तु अपने शासन के लिए उत्तरदायी नहीं थी। यह व्यवस्था वारेन हेस्टिंग्ज की नियुक्ति तक चलती रही।

वारेन हेस्टिंग्ज के पहले न्याय-प्रबन्ध में जो भी परिवर्तन किये गये वे केवल लगान बढ़ाने के उद्देश्य से प्रेरित थे। 1769 ई. में कम्पनी की सलेक्ट कमेटी ने यूरोपीय पर्यवेक्षकों की नियुक्ति की जिनका कार्य न्याय प्रणाली पर नियंत्रण रखना था, क्योंकि लगान अधिकारियों और जमींदारों द्वारा न्यायिक अधिकारों का मनमाने ढंग से प्रयोग किया जा रहा था और न्याय अधिकारियों के पद वंशानुगत हो जाने से लोगों को न्याय मिलने की संभावना कम होती जा रही थी। दूसरी ओर राजस्व के मामलों में न्याय प्रदान करने के उद्देश्य से कम्पनी ने दो राजस्व नियंत्रक कौंसिलें, मुर्शिदाबाद और पटना में स्थापित कीं। ये अपील के मुकदमों में उच्च न्यायालय के समान थीं किन्तु उनके कार्य करने का ढंग वैसा ही मनमाना और अनियमित था जैसा कि लगान अधिकारियों और जमींदारों का था। एक ओर मुगल न्याय व्यवस्था बिगड़ रही थी और दूसरी ओर कम्पनी की न्याय व्यवस्था विकसित नहीं हो पा रही थी। कम्पनी की सलेक्ट कमेटी और प्रेसीडेन्ट एवं कौंसिल के बीच लगातार होने वाले झगड़ों, मराठा और मैसूर के युद्धों और बंगाल के भयंकर अकालों के कारण कम्पनी सरकार न्याय-प्रबन्ध की ओर ध्यान नहीं दे सकी।

हेस्टिंग्ज द्वारा किये गये उपाय

न्याय-व्यवस्था में सुधार लाने की दृष्टि से वारेन हेस्टिंग्ज का काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। भारत में ब्रिटिश न्याय प्रणाली की स्थापना इसी काल में हुई। कानून का शासन तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता इस प्रणाली की विशेषताएँ थीं। कानून के शासन से अभिप्राय था- निरंकुश शक्ति के स्थान पर नियंत्रित और निश्चित विधि की सर्वोच्चता एवं प्रधानता तथा कानून के समक्ष समस्त व्यक्तियों और वर्गों की बराबरी। स्वतंत्र न्याय व्यवस्था का अर्थ था- न्याय व्यवस्था में कार्यपालिका का हस्तक्षेप न होना तथा न्यायाधीशों की सुरक्षा। ये विचार इंग्लैण्ड में 18वीं शताब्दी में संविधान का अंग बन चुके थे। भारत में ये सिद्धान्त लागू होते ही न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अनेक विवाद उठ खड़े हुए। सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना से ये झगड़े और अधिक बढ़ गये। इन्हें रोकने के लिए विशेष कानून बनाये गये। भारत में उठने वाले विवाद विदेशी शासन के परिणाम थे। ये विवाद मुख्यतः अँग्रेज वकीलों एवं न्यायाधीशों, प्रशासकों और व्यापारियों के बीच थे, जिनमें भारतीयों की भूमिका मूक दर्शक की थी। इन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए हेस्टिंग्ज ने प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारने का भरसक प्रयत्न किया।

दीवानी अदालतों की स्थापना

क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त कर कम्पनी ने दीवानी का उत्तरदायित्व स्वयं ग्रहण कर लिया, जिसमें दीवानी न्याय व्यवस्था भी सम्मिलित थी। उसने मुगल व्यवस्था पर आधारित न्याय प्रणाली को अपनाने का प्रयत्न किया। सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था को पुनर्गठित किया गया तथा प्रत्येक अदालत का कार्यक्षेत्र निर्धारित किया गया। सिविल और फौजदारी मामलों के लिये अलग अदालतें थीं। दस रुपये तक के मामलों में प्रधान या मुखिया निर्णय ले सकता था। प्रत्येक जिले में दीवानी अदालत स्थापित की गई जिसकी अध्यक्षता यूरोपीय कलेक्टर करता था। इनमें 500 रुपयों तक के मामलों पर निर्णय किया जाता था। इस दीवानी अदालत में अलग-अलग प्रकार के मामले आते थे, यथा- सम्पत्ति के विवाद, वंशानुगत अधिकार, विवाह, जाति, कर्ज, हिसाब, किराए, साझेदारी, संविदा आदि से सम्बद्ध झगड़े। दीवानी अदालत के ऊपर कलकत्ता में सदर दीवानी अदालत स्थापित की गई। इन सुधारों के साथ ही हेस्टिंग्ज ने मुर्शिदाबाद और पटना की राजस्व कौंसिलें समाप्त कर दीं। इसके बाद भी न्याय प्रणाली पर लगान विभाग का प्रभाव बना रहा। 1774 ई. के बाद यह प्रभाव और अधिक बढ़ गया। जब कलेक्टरों को वापिस बुलाने के बाद छः प्रान्तीय कौंसिलें बनाई गईं तो न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार बढ़ गया।

फौजदारी अदालतों की स्थापना

कम्पनी फौजदारी मामलों में हस्तक्षेप करना नहीं चाहती थीं, क्योंकि इस क्षेत्र में उत्तरदायित्व अधिक था और आय नहीं थी। इसलिए यह क्षेत्र भारतीय अधिकारियों- मुहम्मद रजा खाँ और सिताबराय पर छोड़ दिया गया। इस क्षेत्र में हस्तक्षेप केवल अराजकता रोकने और कानून व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से किया जाता था। फौजदारी क्षेत्र में केवल इस्लामी कानून लागू किये गये थे तथा दण्ड भी उन्हीं के आधार पर दिया जाता था। इस व्यवस्था की विरुद्ध अँग्रेज पर्यवेक्षकों को अनेक प्रकार की शिकायतें थीं। अतः हेस्टिंग्ज ने फौजदारी विभाग को सुधारने के उद्देश्य से 1772 ई. में एक नई योजना बनाई। उसने प्रत्येक जिले में फौजदारी अदालत स्थापित की जिसमें काजी, मुफ्ती तथा मौलवी नियुक्त किये गये। सबसे ऊपर सदर निजामत अदालत बनाई गई जिसका संचालन दरोगा-ए-अदालत, प्रधान काजी, प्रधान मुफ्ती तथा तीन मौलवी करते थे। जिला स्तर पर न्याय व्यवस्था, यूरोपीय कलेक्टर द्वारा नियंत्रित थी किन्तु वह स्वयं न्यायालय का सदस्य नहीं था। सदर निजामत अदालत कुछ समय के लिए मुर्शिदाबाद से कलकत्ता लाई गई जिससे उस पर कम्पनी का अधिक नियंत्रण रखा जा सके किन्तु हेस्टिंग्ज ने मुहम्मद रजा खाँ को पुनः नायब नियुक्त किया, जिसने गवर्नर जनरल की अनुमति से फौजदारी अदालतों का पुनर्गठन किया। कुल मिलाकर 23 जिला फौजदारी अदालतें बनाई गईं। बड़े जिलों के प्रमुख नगरों में फौजदारी थाने स्थापित किये गये। फौजदारी अदालतों और थानों के साथ जेलें भी बनाई गईं किन्तु हेस्टिंग्ज का यह प्रयोग भी सफल नहीं माना जा सकता, क्योंकि अदालतों को अपना निर्णय लागू करने के लिए न तो पर्याप्त अधिकार दिये गये और न साधन।

कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना

वारेन हेस्टिंग्ज के काल में रेगुलेटिंग एक्ट द्वारा कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय स्थापित किया गया। इसका कार्यक्षेत्र कलकत्ता नगर के नागरिकों तक सीमित था। इस न्यायालय में बाहर के मामलों की सुनवाई तभी हो सकती थी, जब दोनों पक्ष इसके लिए तैयार हों। कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय में ब्रिटिश कानून लागू होते थे जबकि सदर दीवानी और सदर निजामत में मुस्लिम या हिन्दू कानून लागू होते थे। सदर दीवानी और सदर निजामत न्यायालयों के कार्यक्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय से टकराते थे जिसे सुलझाने के लिए हेस्टिंग्ज ने इम्पे को सदर दीवानी अदालत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जो सर्वोच्च न्यायालय का भी प्रधान न्यायाधीश था। कम्पनी के संचालकों द्वारा आपत्ति करने के कारण 1782 ई. में इम्पे ने त्याग-पत्र दे दिया। इस प्रकार न्याय व्यवस्था में भी द्वैधता चलती रही। हेस्टिंग्ज ने अपने शासन काल के अंतिम वर्षों में न्याय व्यवस्था में सुधार का एक और प्रयत्न किया। उसने एक न्यायिक योजना प्रस्तुत की तथा उसके द्वारा न्याय और भू-राजस्व के कार्यों को पृथक् करने का प्रयत्न किया किन्तु यह प्रयोग बहुत ही कम समय तक चला। इस काल में हिन्दू विधि संहिता तथा मुस्लिम विधि का अँग्रेजी भाषा में अनुवाद किया गया। 1781 ई. की संहिता द्वारा न्याय व्यवस्था का केन्द्रीयकरण किया गया। इससे पुरानी न्याय प्रणाली की सरलता समाप्त हो गई और पाश्चात्य सिद्धान्तों के प्रभाव से जटिलता बढ़ गई। अब न्याय एवं कानून एक ऐसी विशेष व्यवस्था बन गया जिसका संचालन केवल वकील ही कर सकते थे।

कार्नवालिस के न्यायिक सुधार

सितम्बर 1786 में लॉर्ड कार्नवालिस गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। उसने कानूनी विशेषज्ञ सर जॉन विलियम की सहायता से न्यायिक सुधार किये। कार्नवालिस से पहले, दीवानी न्यायाधीश केवल न्यायिक कार्य करते थे, उनका लगान वसूली से कोई सम्बन्ध नहीं था। 1786 ई. मेेें संचालक मण्डल ने आदेश दिया कि मजिस्ट्रेट, कलेक्टर और जज के कार्य एक ही व्यक्ति द्वारा किये जायें। अतः जून 1787 में कार्नवालिस ने इन तीनों पदों को एक साथ मिला दिया।

राजस्व न्यायालयों की समाप्ति

1793 ई. में भूमि का स्थायी बन्दोबस्त लागू किया गया। इसके साथ ही भू-राजस्व वसूल करने के काम को पुनः न्याय से अलग कर दिया गया। कार्नवालिस की 1793 ई. की योजना द्वारा समस्त राजस्व न्यायालय समाप्त कर दिये गये। कलेक्टरों से न्यायिक अधिकार छीन लिए गये तथा सम्पूर्ण दीवानी न्यायालयों का श्रेणीकरण कर दिया गया।

मुंसिफ अदालतें

नए न्याय प्रबन्ध में 50 रुपये तक के मामलों को मुंसिफ अदालतों में निबटाया जाने लगा। इसके ऊपर रजिस्ट्रार अदालतें थीं जिन्हें 200 रुपये तक के मामलों की सुनवाई करने का अधिकार था। इनमें यूरोपीय न्यायाधीश नियुक्त किये जाते थे।

जिला अदालतें

रजिस्ट्रार अदालतों में दिये गये निर्णयों के विरुद्ध अपील नगर या जिला अदालतों में होती थी जहाँ यूरोपीय न्यायाधीश, भारतीय अधिकारियों की सहायता से मुकदमों की सुनवाई करते थे।

प्रान्तीय अदालतें

जिला अदालतों के ऊपर कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, ढाका और पटना में चार प्रान्तीय अदालतें बनाई गईं। कुछ मामलों में ये न्यायालय प्रथम अधिकार क्षेत्र का कार्य भी करते थे। यहाँ यूरोपीय न्यायाधीश की अध्यक्षता में 1000 रुपये तक के मामले सुने जाते थे।

सदर दीवानी अदालत

प्रान्तीय अदालतों के ऊपर कलकत्ता में सदर दीवानी अदालत थी जिसमें गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल के सदस्य निर्णय लेते थे। पाँच हजार रुपये से अधिक के मामलों की अपील किंग-इन-कांउसिल के समक्ष की जा सकती थी।

फौजदारी न्यायालायों में सुधार

कार्नवालिस द्वारा फौजदारी न्यायालायों में भी कई सुधार किये गये। हेस्टिंग्ज मुगल न्याय प्रणाली को हटाने के पक्ष में नहीं था, वह मुगल प्रणाली के दोषों को ही दूर करना चाहता था। दूसरी ओर कार्नवालिस व्यापक सुधार लाने के पक्ष में था। फौजदारी अदालतों में सुधार लाने के उद्देश्य से 3 दिसम्बर 1790 को एक विस्तृत मसौदा तैयार किया गया। इसमें मुसलमान न्यायाधिकारियों के मार्ग-दर्शन के लिए एक नियम बनाया गया जिसके अनुसार हत्या के मामलों में हत्या के अस्त्र या ढंग की बजाय हत्यारे की मंशा पर अधिक बल दिया गया। मृतक के अभिभावकों की इच्छा से क्षमा करना अथवा रक्त का मूल्य निर्धारित करना बन्द कर दिया गया। यह निश्चय किया गया कि साक्षी के धर्म का, वाद पर कोई प्रभाव नहीं होगा। इस्लामी कानून में मुसलमानों की हत्या के मामलों में अन्य धर्म वाले साक्षी नहीं माने जाते थे।

सदर निजामत की पुनः स्थापना

कार्नवालिस ने न्याय संगठन में भी कई सुधार किये। मुहम्मद रजा खाँ के पद को समाप्त करके कलकत्ता में पुनः सदर निजामत अदालत स्थापित की गई।

सर्किट अदालतें

गवर्नर जनरल और कौंसिल के अधीन जिला फौजदारी अदालतें समाप्त करके चार चलती-फिरती अदालतें (सर्किट अदालतें) स्थापित की गईं। इनके लिए साल में दो बार आन्तरिक प्रदेशों का दौरा करना आवश्यक था। केवल यूरोपियन व्यक्ति ही इनकी अध्यक्षता कर सकते थे। इन्हें मृत्यु दण्ड देने का अधिकार था परन्तु उसकी पुष्टि सदर निजामत अदालत से होनी आवश्यक थी। गवर्नर जनरल को क्षमादान का अधिकार था। 

कार्नवालिस कोड

कार्नवालिस ने जो सुधार किये उन्हें कार्यान्वित करने के लिए एक संहिता भी तैयार करवाई गई जिसे कार्नवालिस कोड कहा जाता है। कार्नवालिस कोड की दो मुख्य विशेषताएँ थीं- (1.) निजामत अदालतों में अँग्रेज न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा (2.) न्याय व्यवस्था को प्रशासन से अलग करना। कार्नवालिस के आने के पूर्व जिले में कलेक्टर, राजस्व प्रशासन का मुख्य अधिकारी था तथा जिले का प्रधान न्यायाधीश भी। एक ओर वह राजस्व का निर्धारण करता था और उसे वसूल करता था, वहीं दूसरी ओर उसी के राजस्व निर्धारण व वसूली के निर्णय के विरुद्ध न्यायाधीश के रूप में मुकदमों की सुनवाई भी करता था। कार्नवालिस कोड द्वारा कलेक्टर को केवल राजस्व निर्धारण व उसकी वसूली का कार्य सौंपा गया और न्यायिक कार्य दूसरे अधिकारी को सौंप दिये गये। कार्नवालिस कोड लागू होने से पहले, फौजदारी मामलों में मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं की गवाही को स्वीकार नहीं किया जाता था किन्तु कार्नवालिस कोड में यह स्पष्ट नियम बना दिया कि गवाही देने के लिये धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति पर प्रतिबन्ध नहीं होगा। कार्नवालिस कोड में अंग-भंग, सूली पर चढ़ाना आदि अमानुषिक दण्ड समाप्त कर दिये गये तथा कठोर कारावास की सजा देने की व्यवस्था की गई। वकीलों को लाईसेन्स देने की व्यवस्था की गई। लाइसेंस प्राप्त वकील ही वकालत कर सकता था। वकीलों की फीस भी निश्चित कर दी गई। यदि कोई वकील निर्धारित से अधिक फीस लेता था तो उसे वकालत के लिए अयोग्य घोषित किया जा सकता था। कार्नवालिस कोड में व्यवस्था की गई कि यदि कम्पनी के अधिकारी गैर-कानूनी कार्य करें तो उन पर भी मुकदमा चलाया जाये। ऐसे मामलों में केवल ऐसे अँग्रेज जज ही जाँच कर सकते थे, जो सरकार से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में आर्थिक लाभ प्राप्त न करते हों।

कार्नवालिस की न्याय-प्रणाली पश्चिमी न्यायिक धारणाओं पर आधारित थी। इसमें राजाओं के निजी कानूनों तथा धार्मिक कानूनों का स्थान धर्म-निरपेक्ष कानून ने ले लिया। विधि की सर्वोच्चता स्थापित की गई। कार्नवालिस कोड के तात्कालिक परिणाम लाभदायक सिद्ध नहीं हुए। नये कानून इतने जटिल थे कि साधारण लोग इन्हें समझ नहीं पाते थे। इस प्रणाली में न्याय प्राप्त करने में इतना समय लगता था और यह इतना महँगा पड़ता था कि यह निर्धन लोगों के योग्य नहीं था। वकीलों की चालबाजियों के कारण मुकदमेबाजी बहुत बढ़ गई। झूठे गवाह बनाये जाने लगे, न्यायालय का काम बढ़ने से निर्णय सुनाने में बहुत समय लगने लगा। स्वयं कार्नवालिस ने स्वीकार किया कि उसके काल में 60,000 से अधिक मुकदमे न्यायालयों में फँसे पड़े थे। इस प्रणाली में, परम्परागत न्याय प्रणाली के पंचायत, जमींदार, काजी, फौजदार तथा निजामत आदि व्यवस्थाओं एवं अधिकारियों का स्थान यूरोपीय न्यायाधीशों ने ले लिया जिन्हें भारतीय रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं की जानकारी नहीं थी। भारतीय न्यायाधीशों के स्थान पर अँग्रेज न्यायधीशों की नियुक्ति करना इस व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष था। कार्नवालिस का एकमात्र उद्देश्य यह था कि भारतीयों के स्थान पर अँग्रेज न्यायाधीशों की नियुक्ति करके कम्पनी की सर्वोच्चता स्पष्ट कर दी जाये। इतिहासकार मिल ने स्वीकार किया है कि अँग्रेजी न्यायालयों से अपराधों की संख्या बढ़ी तथा लोगों में भय व आंतक फैल गया।

कार्नवालिस कोड के दोषों को दूर करने के लिए कम्पनी सरकार ने 1793 ई. से 1813 ई. के बीच अनेक कदम उठाये। छोटे मुकदमों को शीघ्र निपटाने के आदेश दिये गये। न्यायिक अधिकारियों को प्रोत्साहित करने के लिए उनके वेतन बढ़ाये गये। इन अधिकारियों को हेलीबरी कॉलेज में प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की गई तथा उन्हें भारतीय भाषाओं, न्याय और सरकारी कानूनों की जानकारी दी गई। साथ ही न्याय प्रणाली में केन्द्रीयकरण करने के लिए विभिन्न योजनाएँ बनाई जाने लगीं।

कार्नवालिस कोड का विरोध

मद्रास प्रेसीडेन्सी में जब कार्नवालिस कोड लागू करने का प्रश्न उठा तो टॉमस मुनरो ने इसका विरोध किया। उसके विचार में कार्नवालिस प्रणाली कृत्रिम और विदेशी थी जिसने परम्परागत संस्थाओं को हटा दिया था। मुनरो, ग्राम पंचायतों एवं सरपंचों को दीवानी और फौजदारी के छोटे मामलों में सुनवाई के अधिकार देकर उन्हें प्रोत्साहित करता रहा। जिला प्रशासन में भी परम्परागत ढंग से कार्यपालिका को शक्तिशाली बनाया गया। कलेक्टर को मजिस्ट्रेट और पुलिस अधिकारों के साथ किराये और सीमा सम्बन्धी झगड़ों को निपटाने का अधिकार दिया गया। दिल्ली के रेजीडेन्ट मेटकॉफ ने भी इसी व्यवस्था को अपनाया। इसमें परम्परागत मुगल संस्थाओं को बनाये रखा गया तथा राज्य शक्तियों में केन्द्रीयकरण लाया गया।

कार्नवालिस के जाने के बाद यह प्रयत्न किया गया कि लोगों को उपलब्ध न्याय की सुविधा में कमी कर दी जाये। इसलिए 1795 ई. में मुकदमा दायर करते समय धन जमा कराने की पुरानी प्रणाली पुनः आरम्भ की गई तथा स्टाम्प पेपर का प्रयोग अनिवार्य कर दिया गया। 1797 ई. में अपील की सुविधाएँ भी कम कर दी गईं। यद्यपि न्याय को दुर्लभ एवं अधिक महँगा बना दिया गया फिर भी मुकदमों की संख्या बढ़ती ही गई। लोगों की जान-माल की सुरक्षा का भय ज्यों-का-त्यों बना रहा। अतः जान-माल की सुरक्षा के लिए 1807 ई. में जमींदारों को पुनः दायित्व सौंपना पड़ा।

लॉर्ड हेस्टिंग्ज के न्यायिक सुधार

1813 ई. में लॉर्ड हेस्टिंग्ज गवर्नर जनरल बनकर भारत आया जिसने प्रचलित व्यवस्था में संशोधन किया। 1814 ई. में प्रत्येक थाने में एक मुंसिफ की नियुक्ति की गई जो 64 रुपये तक के मामले निपटा सकता था। प्रत्येक जिले में एक सदर अमीन की नियुक्ति की गई जो 150 रुपये तक के मामलों की सुनवाई कर सकता था। सदर अमीन के निर्णय के विरुद्ध अपील दीवानी अदालत में तथा यहाँ से अपील प्रान्तीय न्यायालय में की जा सकती थी। जो मुकदमे सीधे दीवानी अदालत में दायर होते थे, उनकी अपील सदर दीवानी अदालत में की जा सकती थी। कार्य का बोझ कम करने तथा कार्य प्रणाली को सरल बनाने की दृष्टि से कुछ मामलों में अपील करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया और कुछ मामलों में केवल एक बार अपील करने की सुविधा दी गई। 1821 ई. में मुंसिफ को 150 रुपये तक के मामले तथा सदर अमीन को 500 रुपये तक के मामले सुनने का अधिकार दिया गया। दीवानी अदालतों के रजिस्ट्रार को 50 रुपये तक के मामले तथा विशेष परिस्थिति में दीवानी अदालतों द्वारा प्रेषित 500 रुपये तक के मामलों की सुनवाई करने का अधिकार दिया गया। यहाँ से अपील सीधे ही प्रान्तीय न्यायालय में की जा सकती थी। 500 रुपये से ऊपर के मामले जिला दीवानी अदालतों में तथा 5,000 रुपये से ऊपर के मामले सीधे प्रान्तीय न्यायालय में दायर किये जा सकते थे। सदर दीवानी अदालत, कोई मुकदमा जिला दीवानी अदालत से प्रान्तीय अपील न्यायालय में स्थानान्तरित कर सकती थी। लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने कलेक्टर और मजिस्ट्रेट के पद को पुनः मिला दिया जिसे कार्नवालिस ने स्थायी बन्दोबस्त के बाद पृथक् कर दिया था। कार्नवालिस कोड में भी महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गये। मद्रास व बम्बई में भारतीय जजों के वेतन में वृद्धि की गई ताकि वे ईमानदारी से कार्य करें। यद्यपि बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल ने भारत में पुनः प्राचीन संस्थाओं को स्थापित करने तथा पंचायतों को पुनर्जीवित करने की अनुशंसा की थी, किन्तु इन अनुशंसाओं को कार्यान्वित नहीं किया गया।

लॉर्ड विलियम बैंटिक के न्यायिक सुधार

बैंटिक के आने के समय तक भी न्याय व्यवस्था में अनेक दोष थे। कम्पनी ने अब तक भारत में विशाल क्षेत्र प्राप्त कर लिया था तथा न्याय प्रशासन का मुख्यालय कलकत्ता में था। विभिन्न भागोंसे कलकत्ता की दूरी अधिक होने के कारण न्याय प्रशासन ठीक से नहीं चल रहा था। अपील एवं भ्रमण की चार अदालतें अधिक खर्चीली थीं और इनका कोई विशेष लाभ भी नहीं था। इन पर मकदमों का बोझ भी अधिक था, जिससे शीघ्र न्याय प्रदान करना संभव नहीं था। डिवीजनल न्यायालयों व प्रान्तीय अपील न्यायालयों में अकुशलता एवं अनियमितताएँ व्याप्त थीं जिनके कारण न्यायालयों में मुकदमों के ढेर लगे हुए थे। इन मुकदमों के अभियुक्त महीनों तक जेल में पड़े रहते थे। कार्नवालिस ने भारतीयों को न्यायालय के उच्च पदों व उत्तरदायित्वों से अलग रखा था जिससे भारतीयों में रोष था। न्यायालय की भाषा फारसी थी तथा मुकदमा दर्ज करने वाले को अपनी भाषा में बात कहने का अधिकार नहीं था। बैंटिक ने इन दोषों को दूर करने का प्रयास किया। ऐसा करने का एक कारण यह भी था कि ब्रिटिश सरकार, चार्टर एक्ट-1833 ई. पर विचार करने जा रही थी जिस पर कम्पनी का भविष्य निर्भर करता था। इसलिए कम्पनी के प्रशासनिक दोषों को दूर करना आवश्यक था, ताकि संसद को शिकायत करने का अवसर न मिल सके। न्यायिक सुधार, व्यापक सुधारों का केवल एक भाग था।

बैंटिक ने न्यायिक सुधारों के द्वारा अपील एवं भ्रमण की चार अदालतें समाप्त कर दीं। साथ ही दंड विधान की कठोरता को कम कर दिया। अपराधियों को कोड़े लगवाने की प्रथा समाप्त कर दी। यह सुधार बैंथम की उस अवधारणा पर आधारित था कि अपराधी को सजा, सुधारने के लिए दी जानी चाहिए, बदले के लिये नहीं। उसने कमिशनरों के फौजदारी अधिकार जिला न्यायाधीश को सौंप दिये और जिला न्यायाधीश ने अपने मजिस्ट्रेट के अधिकार कलेक्टर के लिए छोड़ दिये। मजिस्ट्रेट को दो वर्ष की सश्रम कारावास की सजा देने का अधिकार दिया गया। इसके विरुद्ध सिविल न्यायालय में अपील की जा सकती थी। कलेक्टरों को लगान सम्बन्धी मामले निपटाने के अधिकार दिये गये। इसकी अपील सिविल न्यायालयों में की जा सकती थी। अपील का मुकदमा स्वयं कलेक्टर के विरुद्ध होता था। 1831 ई. में बैंटिक ने जिला एवं सत्र न्यायालय स्थापित किया। 1831 ई. में ही भारतीयों को सदर अमीन के पद पर नियुक्त किया गया जो जिला व शहरी न्यायालय के विरुद्ध अपीलें सुन सकते थे। न्यायिक क्षेत्र में किसी भारतीय को दिया जाने वाला सदर अमीन का पद सर्वोच्च था किन्तु यूरोपियन अथवा अमेरिकन से सम्बन्धित मुकदमे, मुन्सिफ या सदर अमीन की अदालत में नहीं सुने जा सकते थे। 

कम्पनी राज्य का विस्तार धीरे-धीरे पश्चिम की ओर होता जा रहा था। इसलिए आगरा प्रान्त बनाया गया जो कलकत्ता से काफी दूर था। न्याय पाने के लिए कलकत्ता जाने में समय और धन बर्बाद होते थे। इसलिए आगरा में ही अपील अदालत की स्थापना की गई। इसी उद्देश्य से इलाहाबाद में सदर दीवानी और सदर निजामत अदालतें स्थापित की गईं, जिससे दिल्ली और उत्तर पश्चिमी प्रान्त में आसानी से न्याय प्रशासन चल सके। अदालतों में फारसी भाषा के स्थान पर प्रान्तीय भाषाओं का प्रयोग होने लगा। बंगाल में जूरी प्रणाली आरम्भ की गई, ताकि यूरोपियन जजों को भारतीयों की सहायता उपलब्ध हो सके। 1832 ई. के नियम में यह भी कहा गया कि यूरोपियन जज किसी मामले को प्रतिष्ठित भारतीयों की पंचायत के पास भेज सकेंगे और पंचायत मामले की जाँच कर अपनी रिपोर्ट जजों के पास भेजेगी। जज अपने लिये भारतीय सहायक नियुक्त कर सकते थे, जो प्रत्येक मामले में अपनी अलग राय दे सकते थे।

न्याय क्षेत्र में सुधार कार्यक्रम को लागू करने में लॉर्ड मैकाले का महत्त्वपूर्ण योगदान था। 1833 ई. के चार्टर एक्ट में स्पष्ट कहा गया था कि विधि-प्रणाली के दोष समाप्त किये जाने चाहिए। सुधार लाना इसलिए भी आवश्यक हो गया था कि इस एक्ट द्वारा ब्रिटिश नागरिकों को भारत में सम्पत्ति खरीदने-बेचने के पूर्ण अधिकार दे दिये गये थे जिसकी भारत में कोई कानूनी व्यवस्था नहीं थी। इस समस्या का मैकाले के पास एक ही समाधान था- विधि का संहिताकरण। संहिताकरण के कार्य में मैकाले को प्रिंसेप सहित अनेक प्रशासकों के विरोध का सामना करना पड़ा। बहुमत मिलेट के विधि संग्रह के पक्ष में था किन्तु मैकाले ने बड़ी चतुराई से इस विवाद को विधि आयोग के लिए छोड़ दिया। बैंटिक ने विधि आयोग का अध्यक्ष मैकाले को ही बनाया। संहिताकरण कार्य में उसने व्यवहारिकता और आवश्यकता को प्राथमिकता दी। मैकाले की सबसे बड़ी सफलता उसकी नई दंड संहिता थी।

विलियम बैंण्टिक के बाद न्यायिक सुधार

लॉर्ड डलहौजी के शासनकाल में 1853 ई. के चार्टर एक्ट के समय विधि-संहिता का प्रश्न पुनः उठाया गया और दूसरा विधि आयोग बनाया गया। इसके परिणाम स्वरूप 1859 से 1861 ई. के बीच दण्डविधि, सिविल कार्य विधि तथा दण्ड प्रक्रिया पारित की गई। इन सुधारों ने सम्पूर्ण भारत के लिये एक विधि प्रणाली प्रदान की। विभिन्न क्षेत्रों में थोड़ा-बहुत अन्तर बना रहा। दूसरी ओर यूरोपीय अधिकारियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये न्याय संगठन में परिवर्तन करने की बात भी उठाई गई जिससे भारतीय न्याय प्रणाली, ब्रिटिश न्याय प्रणाली के अनुकूल होती गई। 1861 ई. में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम द्वारा पुराने सर्वोच्च न्यायालय और सदर अदालतों को समाप्त कर कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में उच्च न्यायालयों की स्थापना की गई।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की स्थापना

1866 ई. में एक और उच्च न्यायालय आगरा में स्थापित किया गया जिसे 1875 ई. में इलाहाबाद स्थानान्तरित कर दिया गया। बाद में लाहौर और पटना में भी ऐसे ही उच्च न्यायालय स्थापित किये गये।

संघीय न्यायालय की स्थापना

इस न्याय प्रणाली में अन्तिम महत्त्वपूर्ण सुधार 1935 ई. में किया गया जब संघीय न्यायालय की स्थापना की गई। इसने उच्चतम न्यायालय का स्थान ग्रहण कर लिया। कहने को यह भारत का सर्वोच्च न्यायालय था किंतु वास्तविक अर्थों में यह सर्वोच्च न्यायालय नहीं था क्योंकि अनेक मामलों में सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय के विरुद्ध लन्दन स्थित प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी।

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