Sunday, December 8, 2024
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अध्याय – 97 : भारत में विलय के प्रश्न पर काश्मीर की समस्या

भारत के उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र में 2,10,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाला जम्मू-कश्मीर राज्य सामरिक दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। इसकी सीमाएं भारत, पाकिस्तान, चीन और अफगानिस्तान से सटी हुई हैं और सोवियत रूस भी अधिक दूर नहीं है। जम्मू कश्मीर रियासत 1846 ई. में अस्तित्व में आई। यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा देशी राज्य था। जम्मू-कश्मीर रियासत का डोगरा शासक हरिसिंह, हिन्दू क्षत्रिय वंश से था किन्तु उसकी लगभग 75 प्रतिशत जनता मुस्लिम थी। इस राज्य की सीमाएं भारत और पाकिस्तान दोनों से मिली हुई थीं। वह चाहे जिससे मिल सकता था किंतु डोगरा शासक हरिसिंह ने भारत अथवा पाकिस्तान में मिलने के स्थान पर स्वतन्त्र रहने का निश्चय किया।

पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर के डोगरा शासक का निर्णय अच्छा नहीं लगा। सामरिक एवं भौगोलिक स्थिति, हिन्दू राजवंश, बहुसंख्यक मुस्लिम जनता, कश्मीर नरेश की अनिश्चित नीति और पाकिस्तान की लोलुप दृष्टि, इन समस्त तत्त्वों ने मिलकर जम्मू-कश्मीर की समस्या को अत्यधिक गम्भीर बना दिया। पाकिस्तान ने कश्मीर की आर्थिक नाकेबन्दी करके जम्मू-कश्मीर राज्य को अनाज, नमक, पैट्रोल, केरोसीन आदि आवश्यक सामग्री पहुंचना बन्द कर दिया परन्तु पाकिस्तान सरकार की यह कार्यवाही जम्मू-कश्मीर सरकार को झुकाने में असफल रही। तब पाकिस्तान सरकार ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के कबाइलियों को जम्मू-कश्मीर में घुसकर मारकाट मचाने के लिये भेजा। कबाइलियों ने 22 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर राज्य की सीमा में प्रवेश करके गांवों पर आक्रमण किया। ज्यों-ज्यांे कबाइली आगे बढ़ते गये, स्थानीय मुल्ला-मौलवियों के उकसाने पर राज्य के मुस्लिम सैनिक एवं सिपाही भी उनके साथ होते गये। चार दिन में ही कबाइली, कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से 15 मील दूर बारामूला में पहुँच गये जिससे राजधानी खतरे में पड़ गई।

संकटापन्न अवस्था जानकर डोगरा शासक हरिसिंह ने भारत सरकार से सैनिक सहायता भेजने का अनुरोध किया किंतु भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू उस समय तक कश्मीर को सैनिक सहायता देने के लिए तैयार नहीं हुए जब तक कि राज्य के मुख्य राजनीतिक दल- नेशनल कान्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला ने पं. नेहरू को यह आश्वासन नहीं दिया कि राज्य में संवैधानिक शासन की शर्त पर वह और उनका दल कश्मीर को भारत में सम्मिलित किये जाने के पक्ष में है। स्पष्ट है कि नेहरू चाहते थे कि कश्मीर का भारत में विलय न केवल हिन्दू शासक की इच्छा से हो ,अपितु बहुसंख्यक मुस्लिम जनता की स्वीकृति के साथ हो। जब नेहरू की इच्छा-पूर्ति कर दी गई तो कश्मीर को भारत में सम्मिलित करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। यह भी निश्चित किया गया कि युद्ध समाप्ति के बाद कश्मीर में इस विषय पर जनमत-संग्रह कराया जायेगा। इस समझौते के पश्चात् 27 अक्टूबर 1947 को हवाई मार्ग से भारतीय सेना को श्रीनगर पहुंचाया गया जिसने दुश्मन के जबरदस्त आक्रमण से श्रीनगर को बचा लिया। कश्मीर को अपने हाथ से निकलते देखकर पाकिस्तान की सेना ने कबाइलियांे के नाम पर युद्ध में हस्तक्षेप किया परन्तु भारतीय सेना ने उसे पीछे धकेल दिया। परन्तु पं. नेहरू की देरी का नुकसान भारत को उठाना पड़ा। लगभग 35,000 वर्ग मील क्षेत्रफल पाकिस्तान के अधिकार में चला गया जिसे पाकिस्तान ने आजाद कश्मीर कहना आरम्भ कर दिया।

1 जनवरी 1948 को भारत ने सुरक्षा परिषद् में शिकायत की कि भारत के एक अंग कश्मीर पर सशस्त्र कबाइलियों ने आक्रमण कर दिया है और पाकिस्तान प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष, दोनों तरीकों से उन्हें सहायता दे रहा है। उनके आक्रमण से अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो गया है। अतः पाकिस्तान को अपनी सेना वापस बुलाने तथा कबाइलियों को सैनिक सहायता न देने को कहा जाये और पाकिस्तान की इस कार्यवाही को भारत पर आक्रमण माना जाये।

भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल इस मामले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाने के पक्ष में नहीं थे परन्तु माउण्टबेटन की सलाह पर पं. नेहरू इस मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गये। 15 जनवरी 1948 को पाकिस्तान ने भारत के आरोपों को अस्वीकार कर दिया और भारत पर बदनीयती का आरोप लगाते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय असंवैधानिक है और इस मान्य नहीं किया जा सकता। सुरक्षा परिषद् ने इस समस्या के समाधान के लिए पांच राष्ट्रों की एक समिति गठित की और इस समिति को मौके पर स्थिति का अवलोकन करके समझौता कराने को कहा। संयुक्त राष्ट्र समिति ने कश्मीर आकर मौके का निरीक्षण किया और 13 अगस्त 1948 को दोनों पक्षों से युद्ध बन्द करने और समझौता करने हेतु निम्न सुझाव प्रस्तुत किये-

(1) पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना हटा ले। पाकिस्तान कबाइलियों तथा गैर-कश्मीरियों को भी कश्मीर से हटाने का प्रयास करे।

(2) सेनाओं द्वारा खाली किये गये क्षेत्रों का शासन प्रबन्ध, स्थानीय अधिकारी संयुक्त राष्ट्र समिति की देखरेख में करें।

(3) जब समिति भारत को सूचित कर दे कि पाकिस्तान ने उपर्युक्त शर्तें पूरी कर ली हैं, तो भारत भी समझौते के अनुसार अपनी अधिकांश सेना वहाँ से हटा ले।

(4) अन्तिम समझौता होने तक भारत युद्ध-विराम की सीमा के अन्दर उतनी ही मात्रा में सैनिक रखे, जितने कि स्थानीय अधिकारियों को शान्ति एवं व्यवस्था को स्थापित रखने के लिए आवश्यक हो।

इन बिंदुओं के आधार पर दोनों पक्षों के बीच लम्बी वार्त्ता हुई जिसके बाद 1 जनवरी 1949 को दोनों पक्ष युद्ध-विराम के लिए सहमत हो गये। यह भी तय किया गया कि अन्तिम फैसला जनमत-संग्रह के माध्यम से किया जायेगा। इसके लिए एक अमरीकी नागरिक चेस्टर निमित्ज को प्रशासक नियुक्त किया गया परन्तु पाकिस्तान ने समझौते की शर्तों का पालन नहीं किया और जनमत-संग्रह नहीं हो पाया। निमित्ज ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद इस समस्या को सुलझाने के लिए अनेक प्रयास किये गये परन्तु सफलता नहीं मिली। 1954 ई. में पाकिस्तान, पश्चिमी गुट में सम्मिलित हो गया और उसे अमेरिका से भारी सैनिक सहायता मिलने लगी। अब पश्चिमी देश, कश्मीर समस्या पर पाकिस्तान का पक्ष लेने लगे। दूसरी तरफ सोवियत संघ, भारत के पक्ष में आ गया। इससे कश्मीर-समस्या शीत युद्ध का अंग बन गई। अगस्त 1965 में पाकिस्तान ने कच्छ और कश्मीर पर आक्रमण किया परन्तु भारत के हाथों पाराजित होकर उसे ताशकन्द समझौता करना पड़ा। 1971 ई. में पाकिस्तान ने एक बार पुनः भारत पर आक्रमण किया और उसे परास्त होकर शिमला समझौता करना पड़ा। 1999 ई. में कारगिल में घुसपैठ के माध्यम से पाकिस्तान ने पूरे कश्मीर को हड़पने का प्रयास किया किंतु उसे इस बार भी सफलता नहीं मिली। भारत की संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया कि पाकिस्तान के कब्जे वाली भारतीय भूमि को वापस लिया जायेगा किंतु उसके लिये विगत 66 वर्ष में भारत सरकार द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया है। इस प्रकार कश्मीर की समस्या अभी तक अधर में पड़ी है और आजाद कश्मीर क्षेत्र पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा स्थापित है।

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