हिन्दुस्थान से अपना दाना-पानी उठ गया जानकर हुमायूँ हिन्दुस्थान छोड़कर कंधार की ओर रवाना हुआ। हुमायूँ का भाई कामरान उसका रास्ता रोककर बैठ गया। वह नहीं चाहता था कि हुमायूँ सही सलामत हिन्दुस्थान से बाहर जा सके। मंझला भाई अस्करी भी कामरान के षड़यंत्र में शामिल हो गया। बैरामखाँ के गुप्तचर जी बहादुर को इस षड़यंत्र की खबर लग गयी। बैरामखाँ ने कामरान के षड़यंत्र को विफल कर दिया। उसने हुमायूँ को सलाह दी कि इस समय मिर्जा अस्करी आसानी से पकड़ में आ सकता है उसका खून कर देना चाहिये लेकिन हुमायूँ ने बाबर को दिये हुए वचन का पालन किया कि वह कभी भी अपने भाईयों की जान नहीं लेगा इसलिये उसने अस्करी को खुला छोड़ दिया।
मिर्जा अस्करी परले दरजे का मक्कार था। जान बख्श दिये जाने पर भी उसने हुमायूँ का बुरा किया और हुमायूँ के अमीरों को रिश्वत देकर अपनी ओर मिला लिया। हुमायूँ के बहुत से सैनिकों और अमीरों ने अस्करी को ताकतवर जानकर हुमायूँ का साथ छोड़ दिया और अस्करी की सेवा में चले गये। ऐसे कठिन समय में भी बैरामखाँ ने इखलास[1] बनाये रखा और हुमायूँ के साथ ही रहा। कामरान से जान बचाने के लिये हुमायूँ हमीदाबानू को घोड़े पर बैठाकर भाग खड़ा हुआ। इस समय उसके पीछे केवल बैरामखाँ और उसके सिपाही ही थे। बैरामखाँ हुमायूँ को कामरान के चंगुल से निकाल कर कंधार ले गया।
बैरामखाँ की मदद से हुमायूँ तो किसी तरह कामरान के फंदे से बच निकला किंतु एक साल का अकबर पीछे छूट गया।[2] असकरी ने वह बालक कामरान को सौंप दिया। जब हुमायूँ को कामरान के भय से कांधार भी छोड़ देना पड़ा तो कामरान बालक को अपने साथ कांधार ले गया।
बैरामखाँ हुमायूँ को लेकर ईरान चला गया और वहाँ के शासक तुहमास्प से शरण मांगी। तुहमास्प ने कहा कि यदि तुम्हारा बादशाह शिया हो जाये तो उसे वह सब कुछ मिल सकता है जो वह चाहता है और यदि वह तुहमास्प की बात नहीं मानेगा तो उसे बलपूर्वक शिया बनाया जायेगा। बैरामखाँ तुहमास्प की बातें सुनकर घबराया नहीं। उसने शाह की बातों का धैर्य पूर्वक सामना किया और विश्वास दिलाया कि वह अपने बादशाह को आपकी बातें मानने के लिये राजी करेगा किंतु आपको भी मेरे बादशाह की बातें मानने के लिये तैयार रहना चाहिये।
बैरामखाँ जानता था कि फारस के शाह की बातें हुमायूँ से मनवाना आसान न होगा किंतु फिर भी उसने हिम्मत नहीं छोड़ी। बैरामखाँ ने दोनों बादशाहों के बीच में पड़कर संधि करवाई और येन-केन प्रकरेण हुमायूँ का बादशाहों जैसा रुतबा बनाये रखा बैरामखाँ के व्यवहार से प्रसन्न होकर शाह ने उसी समय भोजन के 1200 थाल और नौ घोड़े भेंट किये। इनमें से तीन घोड़े हुमायूँ के लिये, एक घोड़ा बड़े अमीर बैरामखाँ बहादुर के लिये तथा पाँच घोड़े हुमायूँ के अन्य सरदारों के लिये थे।
बैरामखाँ के प्रयत्नों से हुमायूँ शिया हो गया। उसने शियाओं जैसा लम्बा लबादा पहन लिया और हसरत अली के मजार की यात्रा पर गया। इसके बदले में बैरामखाँ ने तुहमास्प से हुमायूँ के लिये तुहमास्प की बेटी, बारह हजार घुड़सवार और शाह के अंगरक्षक दल के दो हजार विशेष सैनिक मांगे। तुहमास्प ने बैरामखाँ की सारी शर्तें स्वीकार कर लीं। दोनों बादशाहों ने मिलकर कई दिनों तक जंगलों में शिकार खेला और बहुत से जानवर मारे। एक दिन दोनों बादशाहों ने चोगानबाजी[3] और कबलअंदाजी[4] की। उस दिन बैरमबेग को खानका[5] का खिताब दिया गया।
[1] विश्वास।
[2] अकबर का जन्म 15 अक्टूबर 1542 को अमरकोट सिंध के थारपारकर जिले में राणा वीरसाल के महल में हमीदा बानू के पेट से हुआ।
[3] घोड़े पर बैठकर गेंद खेलना। आजकल इसे पोलो कहते हैं।
[4] निशाने उड़ाना। आजकल इसे शूटिंग कहते हैं।
[5] बैरमबेग को बैरामखाँ तो बहुत पहले से ही कहा जाने लगा था किंतु बादशाह की ओर से उसे यह उपाधि अब प्रदान की गयी।