बलबन के पोते कैकुबाद को दिल्ली पर शासन करते हुए तीन साल ही हुए थे कि अत्यधिक शराब पीने के कारण उसे लकवा मार गया तथा अमीरों ने कैकुबाद के अल्पवयस्क पुत्र क्यूमर्स को सुल्तान बना दिया।
पाठकों को स्मरण होगा कि लकुआ मारने से कुछ समय पहले ही पूर्व सुल्तान कैकुबाद ने मंगोलों के विरुद्ध लगातार युद्ध जीत रहे सेनापति जलालुद्दीन खिलजी को दिल्ली बुलाकर उसे आरिज-ए-मुमालिक अर्थात् सेना का निरीक्षक नियुक्त किया था और उसे शाइस्ता खाँ की उपाधि दी थी। कैकुबाद खिलजियों के माध्यम से तुर्की अमीरों पर नियंत्रण रखता था। इस कारण कैकुबाद के शासनकाल में दिल्ली सल्तनत की राजनीति में खिलजियों का बोलबाला हो गया था जबकि दिल्ली के अमीर उन्हें तुर्क नहीं मानते थे।
कैकुबाद को लकवा होने के बाद तुर्की अमीरों ने गैर-तुर्की सरदारों को जान से मार डालने की योजना बनाई। इस सूची में जलालुद्दीन खिलजी का नाम सबसे ऊपर था। जलालुद्दीन खिलजी को तुर्की अमीरों के षड़यंत्र का पता चल गया। वह तुरंत दिल्ली से बाहर, बहारपुर नामक स्थान पर चला गया जो कि दिल्ली से अधिक दूर नहीं था।
तुर्की अमीरों ने जलालुद्दीन खिलजी को फिर से दिल्ली में लाने का षड़यंत्र किया।
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तुर्की अमीरों की तरफ से मलिक कच्छन, जलालुद्दीन खिलजी को बुलाने उसके शिविर में गया। जलालुद्दीन खिलजी मलिक कच्छन की मीठी बातों में नहीं आया तथा खिलजियों ने मलिक कच्छन की हत्या कर दी। इसके बाद जलालुद्दीन खिलजी के पुत्र दिल्ली में घुस गए और महल में घुसकर शिशु सुल्तान क्यूमर्स को उठा लाए। इस पर मलिक सुर्खा तथा अन्य तुर्की अमीरों ने खिलजियों का पीछा किया किंतु वे भी मार दिए गए।
इस घटना के कुछ दिन बाद खिलजी पुनः दिल्ली में घुसे। खिलजी मलिक ने कीलूगढ़ी के महल में घुसकर लकवे से पीड़ित सुल्तान कैकूबाद को लातों से पीट-पीट कर मार डाला तथा उसका शव एक चादर में लपेटकर यमुनाजी में फैंक दिया। इसके बाद जलालुद्दीन खिलजी शिशु सुल्तान क्यूमर्स का संरक्षक तथा वजीर बनकर शासन करने लगा। जलालुद्दीन खिलजी ने कुछ दिनों तक परिस्थितियों का आकलन किया तथा परिस्थितियाँ अपने अनुकूल जानकर कुछ ही दिनों बाद क्यूमर्स को कारागार में पटक दिया और 13 जून 1290 को दिल्ली के तख्त पर बैठ गया।
इस प्रकार भारत पर लगभग 90 वर्ष के दीर्घकालीन शासन के बाद अपमानपूर्ण ढंग से इल्बरी तुर्कों के शासन का अंत हुआ। जलालुद्दीन खिलजी ने कुछ समय पश्चात् शिशु सुल्तान क्यूमर्स की भी हत्या कर दी। इसी के साथ दिल्ली सल्तनत से गुलाम वंश का भी अंत हो गया। दिल्ली के तख्त से गुलाम वंश की विदाई एक स्वाभाविक घटना थी। आश्चर्य इस बात पर नहीं होना चाहिए कि बलबन के मरते ही केवल तीन साल में उसके वंश का अंत हो गया, आश्चर्य इस बात पर होना चाहिए कि बलबन के अयोग्य वंशज तीन साल तक उसके तख्त पर टिके कैसे रहे!
तुर्की शासकों में न तो उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम था और न कोई भी अमीर सुल्तान के प्रति निष्ठा रखता था। अतः प्रत्येक सुल्तान की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के लिए संघर्ष आरम्भ हो जाता था। इस संघर्ष का राज्य की शक्ति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता था। इस संघर्ष से सुल्तान का पद कमजोर हो जाता था और अमीर तथा मलिक अधिक ताकतवर बन जाते थे।
तुर्की वंश के सुल्तानों के शासन का आधार स्वेच्छाचारी सैनिक शासन था जिसकी नींव सदैव निर्बल होती है। यह सैनिक-अंशाति का युग था। किसी रचनात्मक सुल्तान के स्थान पर कोई युद्धप्रिय सेनापति ही दिल्ली सल्तनत पर शासन कर सकता था।
अब तक के तुर्की शासकों ने भारत के बहुसंख्यक हिन्दुओं से कोई तारतम्य स्थापित नहीं किया था। वे हिन्दुओं की तो कौन कहे उन मुसलमानों को भी अपने से नीचा समझते थे जो हिन्दू से मुसलमान बन गए थे। दूसरी ओर हिन्दू राजवंश अपनी खोई हुई स्वतन्त्रता को भूले नहीं थे और उसे प्राप्त करने के लिए सदैव सचेष्ट रहते थे। वे प्रायः विद्रोह कर देते थे। फलतः हिन्दुओं की सहायता तथा सहयोग गुलाम वंश के सुल्तानों को नहीं मिल सका।
गुलाम सुल्तानों के शासन काल में भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों के आक्रमणों की झड़ी लगी हुई थी जिसके कारण सुल्तान का ध्यान उसी ओर लगा रहता था और वह सल्तनत में ऐसी संस्थाओं का निर्माण करने में सफल नहीं हो पाता था जो सल्तनत के साथ-साथ सुल्तान एवं उसके वंश को भी स्थायित्व दे सके। विद्रोहों को दबाने के लिए प्रान्तीय शासकों के नेतृत्व में विशाल सेनाएं रखनी पड़ती थीं। विद्रोही हाकिम इन सेनाओं का उपयोग प्रायः सुल्तान के विरुद्ध करने लगते थे।
बलबन के दुर्भाग्य से उसके उत्तराधिकारी निर्बल तथा अयोग्य थे। उन्होंने तुर्की अमीरों का प्रभाव कम करने के लिए खिलजियों को दिल्ली में बुलाकर बहुत बड़ी भूल की। जब तुर्की सरदारों ने खिलजियों को नष्ट करने का षड़यंत्र रचा तो खिलजियों ने न केवल प्रभावशाली तुर्की अमीरों को मार डाला अपितु सुल्तान से भी छुटकारा पाकर उसकी सल्तनत हड़प ली।
बहुत से इतिहासकारों ने यह प्रश्न उठाया है कि गुलाम वंश के शासकों में सबसे सफल सुल्तान कौन था? इस प्रश्न के उत्तर में कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश, रजिया, नासिरुद्दीन एवं बलबन के नाम लिए जाते हैं। वस्तुतः इन सभी सुल्तानों ने दिल्ली सल्तनत को सीमित स्थायित्व दिया था। सुल्तान के रूप में कुतुबुद्दीन ऐबक तथा रजिया के शासन काल लगभग चार-चार साल से भी कम रहे फिर भी उनकी सैनिक उपलब्धियां उल्लेखनीय थीं। इल्तुतमिश ने 25 साल, उसके पुत्र नासिरुद्दीन ने 19 साल तथा बलबन ने 21 साल शासन किया था। इनमें से नासिरुद्दीन एक कमजोर शासक था तथा शासन की वास्तविक शक्ति बलबन के हाथों में थी। सुल्तान के रूप में इल्तुतमिश एवं बलबन ने सल्तनत को न केवल सुरक्षित रखा अपितु उसे मजबूती भी प्रदान की। अतः कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश, रजिया सुल्तान एवं बलबन में से किसी एक को सफल बताना, अन्य तीन सुल्तानों के प्रति अन्याय होगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता