सम्राट पृथ्वीराज चौहान के मंत्री प्रतापसिंह ने अपने राजा को धोखा देकर उसे मुहम्मद गौरी के हाथों मरवा दिया। भारत में अधिकांश लोग यह मानते हैं कि मुहम्मद गौरी की मृत्यु गजनी में सम्राट पृथ्वीराज चौहान के शब्दबेधी बाण से हुई थी किंतु ऐतिहासिक साक्ष्य इन तथ्यों की पुष्टि कर चुके हैं कि न तो सम्राट पृथ्वीराज चौहान कभी गजनी गया था और न मुहम्मद गौरी की मृत्यु गजनी में किसी शब्दबेधी बाण से हुई थी।
मुहम्मद गौरी सम्राट पृथ्वीराज चौहान की अजमेर में हत्या करने के बाद लगभग 14 साल तक जीवित रहा और भारत का रक्त पीता रहा। ई.1194 में मुहम्मद गौरी ने कन्नौज के गहड़वाल शासक जयचंद पर आक्रमण किया। चंदावर के मैदान में दोनों पक्षों में भयानक युद्ध हुआ। यह मैदान आगरा तथा इटावा के बीच यमुना के तट पर स्थित था। अब इस स्थान को फीरोजाबाद कहा जाता है।
ई.1349 में लिखित राजशेखर सूरि कृत ‘प्रबंधकोश’ में लिखा है कि सुहावादेवी नामक एक रूपवती एवं बुद्धिमती विधवा राजा जयचंद गाहड़वाल के प्रधानमंत्री पद्माकर द्वारा अन्हिलपुर पाटण अर्थात् गुजरात से लाकर राजा जयचंद को भेंट की गई। महाराज जयचंद ने उस स्त्री के रूप-लावण्य पर मोहित होकर उसे अपनी पासवान बना लिया। इस स्त्री के गर्भ से मेघचंद नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
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जब मेघचंद युवा हुआ तो सुहावादेवी ने महाराज जयचंद से कहा कि वह मेघचंद को युवराज बनाए। महाराज जयचंद इस बात पर सहमत हो गया किंतु जयचंद के मंत्री विद्याधर ने इसे कुल-मर्यादा के विरुद्ध बताकर इस विचार का विरोध किया। इस कारण सुहावादेवी ने कन्नौज राज्य का विनाश करने का निश्चय किया। उसने अपना एक दूत तक्षशिला भेजा, जहाँ इन दिनों मुहम्मद गौरी निवास कर रहा था। सुहावादेवी ने मुहम्मद से कहलवाया कि वह जयचंद पर आक्रमण करे।
महाराज जयचंद के मंत्री विद्याधर को सुहावादेवी के इस षड़यंत्र की जानकारी हो गई तथा उसने महाराज को सुहावादेवी के द्वारा दूत भेजे जाने की सूचना दे दी। जयचंद अपनी पासवान पर विश्वास करता था इसलिए उसने मंत्री की बात पर विश्वास नहीं किया। विद्याधर को अपनी स्वामिभक्ति पर संदेह किए जाने से इतनी अधिक ग्लानि हुई कि उसने गंगाजी में डूबकर प्राण त्याग दिए।
कुछ काल के पश्चात् सुल्तान मुहम्मद गौरी ने कन्नौज राज्य पर आक्रण किया। ‘कन्नौज का इतिहास’ नामक ग्रंथ के लेखक आनंद स्वरूप मिश्र ने लिखा है कि गौरी ने यह आक्रमण किया अवश्य था किंतु सुहावा देवी के कहने पर नहीं किया था। जब राजा जयचंद को मुहम्मद के आने का पता चला तो वह भी एक सेना लेकर मुहम्मद की तरफ बढ़ा। यमुना नदी के तट पर चंदावर के मैदान में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने हो गईं तथा दोनों पक्षों में विकराल युद्ध हुआ।
राजशेखर सूरि का ग्रंथ ‘प्रबंधकोश’ इस बात की सूचना नहीं देता है कि इस युद्ध में महाराज जयचंद की मृत्यु कैसे हुई। ‘प्रबंधकोष’ की रचना ई.1349 में हुई थी जबकि यह युद्ध ई.1194 में हुआ था। अर्थात् यह ग्रंथ इस युद्ध के लगभग 155 वर्ष बाद लिखा गया। इस कारण इस ग्रंथ में जनश्रुति का भी कुछ अंश हो सकता है। ‘प्रबंधचिंतामणि’ से भी सुहावादेवी की घटना का समर्थन होता है। विद्यापति की ‘पुरुष परीक्षा’ में भी लिखा है कि राजा जयचंद को उसकी रानी शुभा देवी ने धोखा देकर उसे शहाबुद्दीन से मरवा दिया।
यहाँ हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि समस्त हिन्दू राजाओं का इतिहास इसी प्रकार विकृत किया गया है। जयचंद पर आरोप लगाया जाता है कि उसने मुहम्मद गौरी को सम्राट पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। यही आरोप अन्हिलवाड़ा के चौलुक्यों पर लगाया जाता है।
जयचंद की पासवान सुहावा देवी पर आरोप लगाया जाता है कि उसने मुहम्मद गौरी को महाराज जयचंद पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। महाराणा सांगा पर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने समरकंद के शासक बाबर को आमंत्रित किया कि वह दिल्ली के इब्राहीम लोदी पर आक्रमण करे। पाठक के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कहीं यह हिन्दू राजाओं को बदनाम करने की सोची-समझी साजिश तो नहीं है!
यदि तत्कालीन मुस्लिम लेखकों के ग्रंथों को देखें तो हम पाएंगे कि किसी भी मुस्लिम लेखकर ने सुहावादेवी के प्रकरण का उल्लेख नहीं किया है जबकि तीन बड़े हिन्दू लेखक सुहावा देवी द्वारा किए गए षड़यंत्र का उल्लेख करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू लेखकों द्वारा अपने राजा को वीर दिखाने एवं उसे शत्रु द्वारा छल से मारे जाने की भावना के वशीभूत होकर ऐसी बातें लिखी गईं। जब एक लेखक ने किसी बात को लिख दिया तो दूसरे लेखकों ने उसका रूप बदल कर उसे अपने ग्रंथों में दोहरा दिया। इस कारण सम्राट पृथ्वीराज की तरह महाराज जयचंद का इतिहास भी झूठ के नीचे दब गया है।
ख्वाजा हसन निजामी ने ‘ताज-उल-मासिर’ में लिखा है कि दिल्ली पर अधिकार करने के दो साल बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने जयचंद पर चढ़ाई की। सुल्तान शहाबुद्दीन भी मार्ग में ऐबक से आ मिला। सेना में 50,000 घुड़सवार थे। कुतुबुद्दीन ऐबक को शाही सेना के हरावल में रखा गया। जयचंद ने इटावा के पास चंदावर में शाही सेना का सामना किया। राजा जयचंद ने हाथी पर बैठकर युद्ध किया। अंत में वह मारा गया। सुल्तान ने असनी के दुर्ग में रखा हुआ राजा जयचंद का खजाना लूट लिया। असनी का दुर्ग गंगा नदी के बाएं तट पर स्थित था। सुल्तान ने आगे बढ़कर बनारस की भी यही दशा की। इस लूट में 300 हाथी मिले जिनमें एक सफेद हाथी भी था।
इब्न अल असीर नामक एक समकालीन लेखक ने लिखा है कि पकड़े गए हाथी सुल्तान को सलाम करने के लिए लाए गए। फीलवानों के निर्देश पर सभी हाथियों ने सुल्तान का अभिवादन किया किंतु सफेद हाथी ने महावत के बार-बार प्रयास करने पर भी मुहम्मद को प्रणाम नहीं किया। अंग्रेज लेखक सर थॉमक होल्डिच ने भी इस घटना का वर्णन किया है।
‘तबकाते नासिरी’ में लिखा है कि हिजरी 590 अर्थात् ई.1194 में सुल्तान शहाबुद्दीन ने अपने दो सेनापतियों कुतुबुद्दीन तथा इजुद्दीन को जयचंद से लड़ने भेजा जिन्होंने चंद्रावर के पास जयचंद को हराया। महाराज जयचंद युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ किंतु उसका मृत शरीर मुहम्मद की सेना के हाथ नहीं लग सका। ‘कामिलुत्तवारीख’ में लिखा है कि हिजरी 590 में शहाबुद्दीन ने चंदावर में जयचंद को हराया और बनारस को लूट लिया। वह बनारस से मिला सामान 1400 ऊंटों पर लादकर गजनी ले गया। यह मुहम्मद गौरी का भारत पर अंतिम अभियान था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता