दिल्ली एवं आगरा में लाल किलों का निर्माण दिल्ली के तोमर शासकों ने करवाया था किंतु कम्युनिस्ट लेखकों द्वारा उनके निर्माता होने का श्रेय मुगलों को दे दिया गया। जब तक मुसलमान और अंग्रेज इस किले में रहे, हिन्दू जनता लाल किले को गुलामी का प्रतीक मानती रही किंतु जब मुसलमान और अंग्रेज दोनों ही लाल किले से बाहर कर दिए गए, तब दिल्ली का लाल किला भारतीय सम्प्रभुता का प्रतीक बन गया। !
जनवरी 1946 में लाल किला ट्रायल पूरी हुई किंतु इसके बाद भारत की गोरी सरकार शांति की सांस नहीं ले सकी। उसके बिस्तर स्वतः ही गोल होने लगे। लाल किला अब किसी भी गतिविधि का केन्द्र नहीं था किंतु वह रह-रह कर भारत के लोगों के दिलों में धड़कता था। विशेषतः भारत का मुस्लिम समुदाय लाल किले को भारत में मुस्लिम सत्ता का प्रतीक मानता था।
मानव सभ्यता के इतिहास में 100-200 साल की अवधि कोई बहुत बड़ी नहीं होती। ई.1757 में भारत में जिस ब्रिटिश सत्ता की नींव पड़ी, और जिस नींव पर भारत के लगभग सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र पर ब्रिटिश सत्ता का भव्य भवन खड़ा हुआ, ई.1947 के आते-आते वह सत्ता बिखर गई और 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों की भारत से विदाई का समय आ गया।
जिस प्रकार मुगलों को दिल्ली के लाल किले ने अंतिम विदाई दी थी, उसी प्रकार अंग्रेजों की अंतिम विदाई का साक्षी भी लाल किला ही बना। वह उन अंग्रेजों को सूनी आंखों से विदाई दे रहा था जिन अंग्रेजों ने एक दिन लाल किले को पूरी तरह नष्ट करने का षड़यंत्र रचा था।
भारत में रह रहे लगभग 60 हजार अँग्रेजों में कोई सिपाही था तो कोई आई.सी.एस. अधिकारी, कोई पुलिस इंस्पेक्टर था तो कोई रेलवे इंजीनियर, कोई वेतन अधिकारी था तो कोई संचार लिपिक। इन सभी लोगों ने भारत छोड़ने से पहले अपने घरेलू सामान को उन दुर्लभ वस्तुओं से बदलने का निर्णय लिया जो इंग्लैण्ड में आसानी से नहीं मिलती थीं। हजारों अंग्रेज अपनी कीमती वस्तुओं को लेकर लाल किले के सामने के मैदान से लेकर चांदनी चौक में एकत्रित होने लगे।
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बहुत से अंग्रेज अपने रेफ्रिजिरेटर या कार के बदले भारतीय कालीन, हाथी-दांत, तथा सोने-चांदी की वस्तुएं लेना चाहते थे। भारतीय व्यापारियों ने उदारता पूर्वक उनका सामान ले लिया और उन्हें उनकी इच्छित वस्तुएं प्रदान कर दीं। बहुत से अंग्रेजों ने पोलो खेलने के काम आने वाले घोड़े बेच दिए और उनके बदले में भारतीय शेर की खालें और मसाले भरे हुए जानवर ले लिए।
कुछ अंग्रेजों ने अपने घोड़ों को गोली मार दी क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके श्रेष्ठ घोड़े बग्घियों अथवा तांगों में जुतें। धीरे-धीरे करके अंग्रेज दिल्ली से विदा होने लगे।
15 अगस्त 1947 को लाल किले की प्राचीर पर भारत की स्वतंत्रता का प्रथम समारोह मनाया गया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लाल किले के लाहौरी गेट पर तिरंगा फहराया। भारत सरकार को इस समारोह में 30 हजार पाठकों के आने का अनुमान था किंतु पांच लाख भारतीयों के पहुंच जाने से लाल किले के सामने इतनी भीड़ हो गई कि स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड माउण्टबेटन एवं उनके परिवार को भी समारोह के मुख्य स्थल तक पहुंचना कठिन हो गया।
माउण्टबेटन दम्पत्ति की 15 साल की युवा पुत्री पामेला माउण्टबेटन इस भीड़ में फंस गई। इस पर उदार भारतीयों ने उसे अपने कंधों पर पैर रखकर चलने की सुविधा दी। पामेला ने हाई हील की अपनी सैण्डलें हाथ में ले लीं और वह नंगे पांव, लोगों के कंधों पर चलती हुई समारोह के मुख्य मंच तक पहुंची। भारतीयों की इस उदारता को पामेला अपनी 94 साल की लम्बी आयु में कभी भुला नहीं सकी।
भारत की स्वतंत्रता के साथ ही भारत को दो भागों में बांटा गया। ब्रिटिश भारत के हिन्दू बहुल जनसंख्या वाले 7 प्रांत तथा उनसे संलग्न 565 देशी रियासतें भारत में रखे गए जबकि मुस्लिम बहुल जनसंख्या वाले 2 ब्रिटिश प्रांत एवं उनसे संलग्न 12 देशी रियासतें पाकिस्तान में शामिल की गईं। भारत में आने वाले 7 ब्रिटिश प्रांतों से संलग्न रियासतों को भारत में रहना था किंतु भोपाल, जूनागढ़ तथा हैदराबाद के मुस्लिम शासकों ने भारत की बजाय पाकिस्तान में मिलने की घोषणा की। भारत सरकार ने इन मुस्लिम शासकों की रियासतों को पाकिस्तान में जाने की अनुमति नहीं दी। इस पर जूनागढ़ का मुस्लिम शासक पाकिस्तान भाग गया।
भोपाल के नवाब को उसकी बेटी आबिदा ने पाकिस्तान जाने से रोक लिया जबकि हैदराबाद रियासत के मुस्लिम रजाकारों के नेता कासिम रिजवी ने भारत सरकार को धमकी दी कि वे सम्पूर्ण भारत को जीतकर दिल्ली के लाल किले पर निजाम का आसफजाही झण्डा फहरायेंगे।
इस पर सरदार पटेल ने सशस्त्र पुलिस कार्यवाही करके हैदराबाद के रजाकार विद्रोहियों एवं हैदराबाद की सेना को मार गिराया तथा हैदराबाद को भारत में सम्मिलित कर लिया। इस प्रकार हैदराबाद के रजाकारों का लाल किले पर झण्डा फहराने का सपना अधूरा ही रह गया।
देश के विभाजन के साथ ही सेना का भी विभाजन किया गया। 6 अगस्त 1947 को लाल किले में भारतीय सेना के अधिकारियों ने, पाकिस्तान जाने वाले सैनिक अधिकारियों को विदाई पार्टी दी। इस अवसर पर भारतीय सेना की ओर से जनरल करिअप्पा ने तथा पाकिस्तानी फौज की ओर से ब्रिगेडियर रजा ने विदाई भाषण दिये।
भारत की अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू तथा रक्षामंत्री सरदार बलदेवसिंह भी लाल किले में उपस्थित थे। इस प्रकार लाल किला भारतीय सेना के विभाजन का भी साक्षी बना। यही वह स्वर्णिम क्षण था जब लाल किला गुलामी का जुआ अपने कंधों से उतार करभारतीय सम्प्रभुता का प्रतीक बना।
यह एक आश्चर्य की ही बात थी कि ई.1947 में पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों ने यह आवाज उठाई कि ताजमहल हमारी धरोहर है इसलिए उसे उखाड़कर पाकिस्तान ले जाना चाहिए किंतु लाल किले के लिए पाकिस्तान जाने वाले किसी भी व्यक्ति ने ऐसी मांग की। हालांकि दिल्ली का लाल किला पाकिस्तानियों के दिमाग से कभी उतर नहीं सका।
ईस्वी 1965 के भारत पाक युद्ध में पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह अय्यूब खाँ ने अपनी सेना को आदेश दिया कि वे भारत पर हमला बोलें, हम सुबह का नाश्ता कराची में और दोपहर का लंच लाल किले में करेंगे किंतु मोहम्मद अयूब का यह सपना कभी पूरा नहीं हो सका।
22 दिसम्बर 2000 को पाकिस्तान के आतंकी समूह लश्करे तैय्यबा ने लाल किले में बड़ा आतंकी हमला किया किंतु भारतीय सेना की सजगता से लाल किला बच गया। इस हमले में दो भारतीय सैनिक एवं एक नागरिक की मृत्यु हुई। हमले के 17 साल बाद गुजरात एटीएस एवं दिल्ली पुलिस ने इस हमले के मास्टर माइण्ड बिलाल अहमद कावा को दिल्ली एयरपोर्ट से पकड़ा।
कई बार तोपों की भीषण बमबारी झेल चुका और जीवन के चार सौ बसंत और चार सौ पतझड़ देख चुका दिल्ली का लाल किला आज भी बड़ी शान से दिल्ली में खड़ा है जहाँ भारत के प्रधानमंत्री प्रत्येक 15 अगस्त को झण्डा फहराते हैं तथा भारत की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा समारोह आयोजित किया जाता है। तिरंगे की गौरवमय उपस्थिति के कारण आज यह किला भारतीय सम्प्रभुता का प्रतीक है।
इस 228वीं कड़ी के साथ ही लाल किले की दर्द भरी दास्तां नामक यह धारावाहिक पूर्ण होता है। मैं देश-विदेश में फैले अपने उन लाखों दर्शकों को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने बड़े उत्साह के साथ इस लम्बी यात्रा में मेरा साथ दिया तथा इस धारावाहिक को सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता