बहुत दूर से वे पाँचों नकाबपोश घोड़े फैंकते हुए चले आ रहे थे। बालू के टीले और कंटीले झुरमुट उनका रास्ता रोकते थे किंतु उनकी परवाह किये बिना वे सरपट घोडा़ दौड़ाये चले जा रहे थे। उनके घोड़े थक चुके थे और मुँह से श्वेत फेन बहने लगा था। हालांकि नकाब के कारण अश्वारोहियों के चेहरे दिखाई नहीं देते थे किंतु शरीर के हिलने से अनुमान होता था कि वे स्वयं भी घोड़ों पर बैठे हुए बुरी तरह हाँफ रहे थे। इतना होने पर भी वे अपने पीछे आ रहे शत्रुओं के भय से किसी भी तरह रुकने का नाम नहीं लेते थे। सूरज कंटीली झाड़ियों की ओट में छिपने की तैयारी कर रहा था और प्रकाश भी काफी कम हो चला था। नकाबपोशों को लगने लगा था कि कुछ ही क्षणों में वे घोड़ों से लुढ़क कर जमीन पर आ जायेंगे किंतु उनका नेतृत्व कर रहे नकाबपोश को प्रतीक्षा थी ऐसे झुरमुट की जिसकी ओट लेकर वे अपनी दिशा बदल लें और उनके पीछे आ रहा दुश्मन तेज गति से आगे निकल जाये।
आखिर एक ऐसा झुरमुट आ ही गया। नकाबपोशों का नेता एक बड़ी सी झाड़ी की ओट में होकर कंटीले झुरमुट के भीतर घुस गया। अन्य नकाबपोशों ने भी उसका अनुसरण किया। बचते-बचते भी कांटेदार टहनियाँ उनके वस्त्रों को चीर कर अपनी तीक्ष्णता का बोध करवा ही गयीं। अश्वारोही अपनी तेज गति से चल रही सांसों पर नियंत्रण करने का प्रयास करने लगे। अन्ततः उनकी चाल सफल रही। कुछ ही क्षणों में बीसियों घोड़े सरपट भागते हुए आगे निकल गये। दुश्मन को अनुमान ही नहीं हो सका कि नकाबपोश झुरमुट की ओट में ही खड़े हैं।
– ‘ढूंढते रहेंगे अब वे हमें कई दिनों तक।’ नकाबपोशों के नेता ने अपना नकाब हटाया और झुरमुट के बीचों बीच पसरे बालुई टीले पर कूद गया।
अन्य नकाब पोशों ने भी अपने नकाब हटा लिये और जैसे-तैसे अपने घोड़ों से उतर पड़े। नकाब हटने से ही यह ज्ञात हो सका कि इनके चेहरे आपस में किसी भी तरह मेल नहीं खाते थे। इनमें से दो स्त्रियाँ थीं। एक स्त्री अभिजात्य एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली दिखाई देती थी तो दूसरी उसकी दासी। यह एक विचित्र बात थी कि अभिजात्य दिखायी देने वाली गौरवर्णा स्त्री पालकी, ऊंट अथवा हाथी पर सवारी न करके घोड़े की पीठ पर इतना लम्बा सफर तय कर रही थी।
अभिजात्य दिखाई देने वाली एक स्त्री की पीठ से चार वर्ष का बालक बंधा हुआ था। माँ की पीठ से रगड़ खाकर उसका चेहरा छिल गया था फिर भी बालक अद्भुत धैर्यवान था और पूरी तरह शांत बना हुआ था। दासी दिखायी देने वाली स्त्री की पीठ से एक छोटी सी गठरी बंधी हुई थी जिसमें दैनिक जीवन यापन का कुछ मामूली सा सामान था जो इस समय बहुमूल्य जान पड़ता था। तीन पुरुष चेहरों में से दो फकीरों जैसे दिखायी देते थे और एक चेहरा गुलाम दिखायी देने वाले व्यक्ति का था।
– ‘क्या आज रात यहीं रुकने का इरादा है बाबा?’ अभिजात्य दिखायी देने वाली गौरवर्णा स्त्री ने अपने नेता की ओर मुँह करके पूछा।
– ‘नहीं! यहाँ नहीं बानो। आज की रात हम जाल्हुर[1] मस्जिद में पड़ाव करेंगे। तुम थोड़ा सा सुस्ता लो, तब तक घोड़े भी तैयार हो जायेंगे और वे अफगान लुटेरे भी दूर निकल जायेंगे।’ अपनी लम्बी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए वृद्ध फकीर ने जवाब दिया।
– ‘जाल्हुर? क्या जाल्हुर पास ही है? क्या हम एक ही दिन में पालनपुर से जाल्हुर तक आ पहुँचे?’
– ‘हाँ बानू। वो जो पहाड़ियाँ दिखायी देती हैं, उनके बीच में जाल्हुर बसा हुआ है। हम घंटे भर में वहाँ पहुँच सकते हैं। तब तक पूरी तरह रात हो चुकी होगी और हम आसानी से मस्जिद में आसरा ले सकेंगे।’
क्षुद्र कंटीली झाड़ियों ने अवसर पाते ही दुष्टता की और अंधेरे का जाल इतनी जोर से आकाश में फैंक कर मारा कि दिन भर की यात्रा से थककर चूर हुआ सूरज उस जाल में उलझ कर रह गया। झाड़ियों को इस दुष्टता की सजा़ मिली और वे स्वयं भी अब शैतानी अंधेरे में डूबने लगीं। पाँचों अश्वारोही फिर से घोड़ों पर सवार होकर दूर दिखायी देने वाली पहाड़ियों की ओर बढ़ गये।
यह उनकी यात्रा का अंत न था, मध्य भी न था। पाटन से चलकर अहमदाबाद और पालनपुर होते हुए वे अभी तो केवल जाल्हुर के निकट पहुँचे थे, यहाँ से अजमेर और फिर अलवर होते हुए उन्हें आगरा पहुँचना था। कौन जाने वहाँ पहुँचना हो भी अथवा नहीं! वे तो यह भी नहीं जानते कि आगरा पहुँच कर भी उनकी यात्रा पूरी होगी अथवा नहीं! इस समय तो वे केवल इतनी बात जानते हैं कि उन्हें हर हालत में उस विकट शत्रु से अपने आप को बचाकर आगरा तक ले जाना है जो पाटन से ही उनके पीछे लगा हुआ है और अवसर पाते ही उनके प्राण हर सकता है। उन्हें अपने जीवन की चिंता उतनी न थी जितनी कि बानू की पीठ पर बंधे हुए चार वर्षीय रहीम के जीवन के बारे में थी।
[1] जालौर