Tuesday, May 21, 2024
spot_img

अध्याय – 1 – सभ्यता एवं संस्कृति का अर्थ (अ)

अगर इस धरती पर कोई जगह है जहाँ सभ्यता के आरम्भिक दिनों से ही मनुष्यों के सारे सपने आश्रय पाते रहे हैं, तो वह हिन्दुस्तान है।  – रोम्या रोलां।

‘सभ्यता’ का शाब्दिक अर्थ ‘सभा में बैठने की योग्यता’ से होता है- ‘सभायाम् अर्हति इति।’ भौतिक रूप से सभ्यता, मनुष्यों की एक ऐसी बस्ती है जो प्रकृति की गोद में स्वतः जन्म लेती है। सामाजिक रूप से सभ्यता मनुष्यों की एक ऐसी बस्ती है जिसमें सामूहिक जीवन की भावना होती है।

सभ्यता

बौद्धिक रूप से सभ्यता विचारवान मनुष्यों की एक ऐसी संरचना है जिसमें समस्त मनुष्यों के विचार एक-दूसरे पर प्रभाव डालकर उस बस्ती अथवा समूह के लोगों की साझा समझ का निर्माण करते हैं। यह साझा समझ ही उस समूह के लोगों के आचरण, व्यवहार एवं आदतों का निर्माण करती है। मनुष्यों की साझा समझ के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाले आचरण, व्यवहार एवं आदतों को सम्मिलित रूप से संस्कृति कहा जाता है।

इस प्रकार प्रत्येक सभ्यता की एक विशिष्ट संस्कृति होती है जो अन्य स्थानों पर विकसित होने वाली संस्कृति से अलग होती है।

इस प्रकार प्राकृतिक परिवेश, सभ्यता, विचार एवं संस्कृति परस्पर अटूट सम्बन्ध रखते हैं। ये एक दूसरे से असंपृक्त अथवा विरक्त होकर नहीं रह सकते। इनमें मित्रता का भाव होना आवश्यक है। यही भाव मनुष्य सभ्यता को सामूहिक जीवन की ओर अग्रसर करते हैं। एकाकी जीवन जीने वाला व्यक्ति किसी सभ्यता या संस्कृति का निर्माण नहीं कर सकता।सभ्य समाज

वर्तमान समय में ‘सभ्यता’ शब्द का प्रयोग मानव समाज के एक सकारात्मक, प्रगतिशील और समावेशी विकास को इंगित करने के लिए किया जाता है। अतः वर्तमान समय में सभ्यता का आशय ‘सभ्य समाज’ से है। यह सभ्य समाज क्या है? आधुनिक युग में यदि सभ्य समाज को समझने का प्रयास किया जाए तो ‘सभ्य समाज उन्नत कृषि, लंबी दूरी के व्यापार, व्यावसायिक विशेषज्ञता, नगरीकरण और वैज्ञानिक प्रगति आदि की उन्नत स्थितियों का द्योतक है।’

इन मूल तत्त्वों के साथ-साथ, सभ्यता कुछ माध्यमिक तत्त्वों, जैसे विकसित यातायात व्यवस्था, लेखन, मापन के मानक, संविदा एवं नुकसानी पर आधारित विधि-व्यवस्था, कला शैलियों, स्थापत्य, गणित, उन्नत धातुकर्म एवं खगोलविद्या आदि की स्थिति से भी परिभाषित होती है।

संस्कृति

संस्कृति शब्द का निर्माण मूलतः ‘कृ’ धातु से हुआ है जिसका अर्थ है- ‘करना’। इसके पूर्व ‘सम्’ उपसर्ग तथा ‘क्तिन्’ प्रत्यय लगने से लगने से ‘संस्कार’ शब्द बनता है जिसके अर्थ- पूरा करना, सुधारना, सज्जित करना, मांज कर चमकाना, शृंगार, सजावट करना आदि हैं। इसी विशेषण की संज्ञा ‘संस्कृति’ है। वाजसनेयी संहिता में ‘तैयार करना’ या ‘पूर्णता’ के अर्थ में यह शब्द आया है तथा ऐतरेय ब्राह्मण में ‘बनावट’ या ‘संरचना’ के अर्थ में इसका प्रयोग हुआ है।

महाभारत में ‘श्रीकृष्ण’ के एक नाम के रूप में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार संस्कृति शब्द का अर्थ साफ या परिष्कृत करना है। संस्कृति क्या है? इस विषय पर विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग मत प्रस्तुत किए हैं। वर्तमान में संस्कृति शब्द अंग्रेजी के ‘कल्चर’ शब्द का पर्याय माना जाता है।

संस्कृति की परिभाषाएं

To purchase this book please click on photo.

पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है- ‘संस्कृति, शारीरिक मानसिक शक्तियों के प्रशिक्षण, सुदृढ़़ीकरण या विकास परम्परा और उससे उत्पन्न अवस्था है।’

मैथ्यू आर्नोल्ड ने लिखा है- ‘संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गई हैं, उनसे अपने आपको परिचित करना संस्कृति है।’

 ई. वी. टॉयलर ने लिखा है- ‘संस्कृति एक जटिल सम्पूर्णता है जिसमें समस्त ज्ञान, विश्वास, कलाएँ, नीति, विधि, रीति-रिवाज तथा अन्य योग्यताएँ समाहित हैं जिन्हें मनुष्य किसी समाज का सदस्य होने के नाते अर्जित करता है।’

अमेरिका के प्रसिद्ध दार्शनिक और शिक्षा विशेषज्ञ डॉ. व्हाइटहैड के अनुसार ‘संस्कृति का अर्थ है- मानसिक प्रयास, सौन्दर्य और मानवता की अनुभूति।’

बील्स तथा हॉइजर के अनुसार ‘मानव समाज के सदस्य व्यवहार करने के जो निश्चित ढंग व तरीकों को अपनाते हैं, वे सम्पूर्ण रूप से संस्कृति का निर्माण करते है।’

प्रसिद्ध समाजशास्त्री गिलिन के अनुसार ‘प्रत्येक समूह तथा समाज में आन्तरिक व बाह्य व्यवहार के ऐसे प्रतिमान होते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते हैं तथा बच्चों को सिखलाए जाते हैं, जिनमें निरन्तर परिवर्तन की सम्भावना रहती है।’

ग्रीन के अनुसार ‘संस्कृति ज्ञान, व्यवहार, विश्वास की उन आदर्श पद्धतियों को तथा ज्ञान एवं व्यवहार से उत्पन्न हुए साधनों की व्यवस्था को, जो कि समय के साथ परिवर्तित होती है, कहते हैं, जो सामाजिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती है।’

एक अन्य विद्वान ने कहा है- ‘संस्कृति का उद्गम संस्कार शब्द है। संस्कार का अर्थ है वह क्रिया जिससे वस्तु के मल (दोष) दूर होकर वह शुद्ध बन जाय। मानव के मल-दोषों को दूर कर उसे निर्मल बनाने वाली प्रक्रियाओं का संग्रहीत कोष ही संस्कृति है।’

एक अन्य परिभाषा में कहा गया है कि ‘संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढ़़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है।’

एक विद्वान की दृष्टि में ‘संस्कृति मन, आचार अथवा रुचियों की परिष्कृति या शुद्धि है।’

इसी प्रकार संस्कृति की एक परिभाषा यह भी है कि ‘यह सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना है।’ 

इस प्रकार संस्कृति शब्द का व्यापक अर्थ, समस्त सीखे हुए व्यवहारों अथवा उस व्यवहार का नाम है जो सामाजिक परम्परा से प्राप्त होता है। इस अर्थ में संस्कृति को सामाजिक प्रथाओं का पर्याय भी कहा जा सकता है। संकीर्ण अर्थ में संस्कृति का आशय ‘सभ्य’ और ‘सुसंस्कृत’ होने से है।

राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में लिखा है- ‘संस्कृति जिंदगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, जिसमें हम जन्म लेते हैं।’

उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि किसी भी क्षेत्र में निवास करने वाले मनुष्यों की जीवन शैली, उस क्षेत्र की संस्कृति का निर्माण करती है। उस क्षेत्र में निवास करने वाले मनुष्यों की आदतें, विचार, स्वभाव, कार्य-कलाप, रीति-रिवाज, परम्पराएं, खान-पान, वस्त्र-विन्यास, तीज-त्यौहार, खेल-कूद, नृत्य-संगीत, चाक्षुष कलाएं, जन्म-मरण के संस्कार एवं विधान आदि विभिन्न तत्त्व उस क्षेत्र की संस्कृति को आकार देते हैं।

मानव द्वारा सीखा गया समस्त व्यवहार संस्कृति नहीं

डॉ. सम्पूर्णानंद ने समस्त सीखे हुए व्यवहार को संस्कृति का अंग नहीं माना है। उनके अनुसार- ‘मानव का प्रत्येक विचार संस्कृति नहीं है। पर जिन कामों से किसी देश विशेष के समस्त समाज पर कोई अमिट छाप पड़े, वही स्थाई प्रभाव ही संस्कृति है।’

चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य ने भी मानव जाति द्वारा समस्त सीखे हुए व्यवहार को संस्कृति नहीं माना है। उन्होंने लिखा है- ‘किसी भी जाति अथवा राष्ट्र के शिष्ट पुरुषों में विचार, वाणी एवं क्रिया का जो रूप व्याप्त रहता है, उसी का नाम संस्कृति है।’

संस्कृति का निर्माण

संस्कृति का निर्माण किसी एक कालखण्ड में अथवा कुछ विशेष लोगों द्वारा अथवा कुछ विशेष घटनाओं द्वारा नहीं होता। यह किसी भी समाज के भीतर घटने वाली बौद्धिक घटनाओं का एक चिंरतन प्रवाह है। यही कारण है कि किसी देश की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है।

किसी देश के विभिन्न कालखण्डों में, उस देश के समस्त नागरिकों द्वारा व्यवृहत किए जाने वाले आचार-विचार से संस्कृति रूपी वृक्ष में नित्य नए पत्ते लगते हैं। बौद्धिकता केवल असाधारण प्रतिभा से सम्पन्न व्यक्तियों में ही नहीं होती अपितु समाज का साधारण से साधारण व्यक्ति और असाधारण से असाधारण व्यक्ति देश की संस्कृति के निर्माण में अपना सहयोग देता है। 

इस प्रकार एक समुदाय में रहने वाले विभिन्न मनुष्य, विभिन्न स्थानों पर रहते हुए, विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थाओं, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म, दर्शन, लिपि, भाषा तथा कलाओं का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करते है। संस्कृति किसी भी समाज का समग्र व्यक्तित्त्व है, जिसका निर्माण उस समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के विचार, भावना, आचरण तथा कार्यकलाप से होता है।

एक व्यक्ति या एक युग की कृति नहीं है संस्कृति

कुछ लोग चाहे कितने ही प्रभावशाली एवं युगांतकारी व्यक्तित्त्व के स्वामी क्यों न हों, वे संस्कृति का परिष्कार तो कर सकते हैं किंतु अकेले ही किसी देश या समाज की संस्कृति का निर्माण नहीं कर सकते। क्योंकि संस्कृति कभी भी किसी एक व्यक्ति के प्रयत्न का परिणाम नहीं होती, अपितु वह ‘लोक’ अर्थात् समाज के अनगिनत व्यक्तियों के सामूहिक प्रयत्नों एवं व्यवहारों का परिणाम होती है और यह प्रयत्न अथवा व्यवहार भी ऐसा, जिसे भविष्य में आने वाली पीढ़ियां निरन्तर अपनाती रहती हैं अर्थात् व्यवहार में लाती रहती हैं और उसमें कुछ नया जोड़ती जाती हैं।

यही कारण है कि संस्कृति का विकास धीरे-धीरे होता है। वह किसी एक युग की कृति नहीं होती अपितु विभिन्न युगों के विविध मनुष्यों के सामूहिक एवं अनवरत श्रम का परिणाम होती है। वस्तुतः मनुष्य अपने मन, वचन एवं कर्म द्वारा अपने जीवन को सरस, सुन्दर और कल्याणमय बनाने के लिए जो प्रयत्न करता है, उसका सम्मिलित परिणाम ‘संस्कृति’ के रूप में प्रकट होता है।

सभ्यता एवं संस्कृति का सम्बन्ध

सभ्यता और संस्कृति का सम्बन्ध बहुत गहरा है। पहले मानव सभ्यता विकसित होती है और उसके बाद मानव सभ्यता ही संस्कृति को जन्म देती है। आकार की दृष्टि से सभ्यता, किसी भी मानव समूह का स्थूल रूप है जबकि संस्कृति, मानव समूह का सूक्ष्म रूप है। हमारे प्राचीन साहित्य में सभ्यता का अन्तर्भाव ‘अर्थ’ से लिया गया है जबकि संस्कृति का आशय ‘धर्म’ से लिया गया है। सभ्यता के बिना कोई संस्कृति जन्म नहीं ले सकती और संस्कृति के बिना कोई सभ्यता जीवित नहीं रह सकती।

सभ्यता एवं संस्कृति में भेद

आजकल बहुत से लोग सभ्यता और संस्कृति को पर्याय के रूप में प्रयुक्त करते हैं जबकि इनमें अंतर है। सभ्यता, मानव समाज की बाह्य उन्नति का बोध कराती है जबकि संस्कृति, मानव समाज की आंतरिक उन्नति को इंगित करती है। सभ्यता से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की और संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। हमने किसी विशेष प्रकार के वस्त्र क्यों धारण किए हैं तो इसका आधा जवाब हमारी सभ्यता से और आधा जवाब हमारी संस्कृति से मिलेगा।

हमारे कपड़े सस्ते हैं या महंगे, इसे हमारी सभ्यता तय करेगी जबकि हमारे कपड़ों के रंग भड़कीले हैं या शांत, अथवा हमारे कपड़े हमारा कितना शरीर ढकते हैं, इन बातों को हमारी संस्कृति तय करेगी। एक समाज के द्वारा दूसरे समाज की सभ्यता की नकल की जा सकती है किंतु एक समाज के द्वारा दूसरी संस्कृति की नकल नहीं की जा सकती, हाँ एक समाज, दूसरे समाज की संस्कृति की कुछ बातों को अपना सकता है। सभ्यता को मापा जा सकता है और उसका मापदण्ड उपयोगिता है जबकि संस्कृति को मापा नहीं जा सकता।

संस्कृति का मनुष्य जाति पर प्रभाव

संस्कृति की शास्त्रीय व्याख्या के अनुसार मनुष्य आज जो कुछ भी है, वह संस्कृति की देन है। यदि मनुष्य से उसकी संस्कृति छीन ली जाए तो मनुष्य श्री-हीन हो जाएगा। विद्वानों का मानना है कि आज ‘मनुष्य’ इसलिए ‘मनुष्य’ है क्योंकि उसके पास ‘संस्कृति’ है। स्वामी ईश्वरानंद गिरि के अनुसार ‘संस्कृति मनुष्य की आत्मोन्नति का मापदण्ड भी है और आत्माभिव्यक्ति का साधन भी।’ संस्कृति को केवल बाह्य रूप या क्रिया ही नहीं मान लेना चाहिए।

उसका आधार ‘जीवन के मूल्यों’ में है और पदार्थों के साथ ‘स्व’ को जोड़ने की सूक्ष्म कला में है। श्यामाचरण दुबे ने लिखा है– ‘संस्कृति के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन की पूर्ण पृष्ठभूमि में अपना स्थान पाता है और संस्कृति के द्वारा उसे जीवन में रचनात्मक संतोष के साधन उपलब्ध होते हैं।’

कहने का अर्थ यह कि मानव जब जन्म लेता है, तब वह मानव की देह में होते हुए भी पूर्ण अर्थों में मानव नहीं होता। संस्कृति उसका परिष्कार करके उसे वास्तविक मानव बनाती है। संस्कृति, मानव को मानव बना देने वाले विशिष्ट तत्त्वों में सबसे महत्त्वपूर्ण है।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source