Sunday, December 8, 2024
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अध्याय – 1 : मुगल तथा उनकी स्थापत्य शैली

भारत में मुगलों ने एक नवीन इस्लामी राज्य की स्थापना की जो सभ्यता एवं संस्कृति के स्तर पर अपने पूर्ववर्ती ‘दिल्ली सल्तनत’ से पूर्णतः भिन्न था। भारत का मुगल साम्राज्य ‘इस्लामी-तुर्की-मंगोल’ साम्राज्य था जिसका व्यावहारिक अर्थ यह है कि भारत के मुगल शासकों में मध्य एवं पूर्वी एशिया की दो बड़ी क्रूर एवं लड़ाका जातियों- तुर्क एवं मंगोलों के रक्त का मिश्रण था और वे इस्लाम के अनुयायी थे। मंगोल जाति अत्यंत प्राचीन काल में चीन में अर्गुन नदी के पूर्व के इलाकों में रहा करती थी, बाद में वह बाह्य ख़िन्गन पर्वत शृंखला और अल्ताई पर्वत शृंखला के बीच स्थित मंगोलिया पठार के आर-पार फैल गई। युद्धप्रिय मंगोल जाति ख़ानाबदोशों का जीवन व्यतीत करती थी और शिकार, तीरंदाजी एवं घुड़सवारी करने में बहुत कुशल थी।

भारत पर मंगोलों के आक्रमण

12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मंगोलों के मुखिया ‘तेमूचीन’ ने बड़ी संख्या में बिखरे हुए मंगोल-कबीलों को एकत्र किया और स्वयं उनका नेता बन गया। वह इतिहास में चंगेज़ ख़ान के नाम से जाना गया। इसके बाद मंगोल मध्य एशिया तक बढ़ आए और उनका सामना मुस्लिम-तुर्कों से हुआ। ई.1221 में मंगोलों ने चंगेजखाँ के नेतृत्व में भारत पर पहला बड़ा आक्रमण किया किंतु तब तक भारत में मध्य एशियाई तुर्क अपना शासन जमा चुके थे। उस काल में मंगोल इस्लाम के सबसे बड़े शत्रु थे।

इसलिए वे पूरे तीन सौ साल तक भारत पर आक्रमण करते रहे और भारी रक्तपात एवं बरबादी मचाकर पुनः मध्य ऐशिया को भागते रहे। ई.1221 से लेकर ई.1526 तक मंगोल आक्रमणकारियों की कई लहरें भारत में आईं। इस दौरान वे विदेशी आक्रांता बने रहे। वे नृशंस हत्याओं, भयानक आगजनी तथा क्रूरतम विध्वंस के लिये कुख्यात थे।

इस्लाम के शत्रु ही बने इस्लाम के संरक्षक

प्रारम्भ के मंगोल आक्रांता, इस्लाम के शत्रु थे। इस कारण वे भारत के मुस्लिम शासकों को नष्ट करने के विशेष उद्देश्य से प्रेरित होकर भारत पर आक्रमण करते थे किंतु मध्य एशिया के तुर्कों ने न केवल इन मंगोलों को परास्त किया अपितु उन्हें मुसलमान भी बना लिया। तुर्कों ने मंगोलों से अपनी लड़कियों की शादियां करनी भी आरंभ कर दीं। इस प्रकार धीरे-धीरे मंगोलों में तुर्की-रक्त का मिश्रण हो गया। कुछ ही समय में मंगोल, मध्य-एशिया के ‘उजबेकिस्तान’ नामक देश के समरकंद, ताशकंद तथा फरगना आदि क्षेत्रों पर शासन करने लगे। मध्य-एशिया से ही वे भारत में आए। भारत में मंगोलों को अत्यंत घृणा की दृष्टि से देखा जाता था क्योंकि चंगेज खाँ तथा तैमूर लंग जैसे अनेक मंगोल नेता भारत में भारी रक्तपात और हिंसा करते आए थे।

मुगल स्थापत्य का वास्तविक काल

ई.1526 में मंगोल-वंशी बाबर भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने में सफल हो गया। भारत में बाबर तथा उसके वंशज ‘मुगलों’ के नाम से जाने गए। बाबर के वंशज थोड़े बहुत व्यवधानों के साथ ई.1526 से ई.1765 तक भारत के न्यूनाधिक क्षेत्रों पर शासन करते रहे। ई.1765 में अंग्रेजों ने मुगल बादशाह शाहआलम (द्वितीय) से इलाहाबाद की संधि की जिसके तहत मुगल बादशाह को 26 लाख रुपए की पेंशन देकर शासन के कार्य से अलग कर दिया गया। बाबर के वंशजों में हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ तथा औरंगजेब ही प्रभावशाली शासक हुए तथा उनके समय देश में कई प्रकार के विशाल भवनों का निर्माण हुआ। इनमें से भी औरंगजेब ने अपने शासनकाल ई.1658 से ई.1707 तक बहुत कम भवन बनवाए। अतः मुगलों के स्थापत्य का वास्तविक इतिहास बाबर से आरम्भ होकर शाहजहाँ तक अर्थात् ई.1526 से लेकर ई.1658 तक समाप्त हो जाता है। इतिहास की दृष्टि से यह कालखण्ड बहुत बड़ा नहीं होता किंतु उस काल में बहुत बड़ी संख्या में बने भवन, भारत में मुगल शासन के इतिहास को जीवित रखे हुए हैं।

फारसी और भारतीय शैली के मिश्रण से बनी मुगल शैली

मुगल अपने साथ स्थापत्य कला की कोई विशिष्ट शैली लेकर नहीं आए थे। उनकी स्मृतियों में समरकंद के मेहराबदार भवन, ऊँचे गुम्बद, बड़े दालान, कोनों पर बनी पतली और ऊँची मीनारें तथा विशाल बागीचे थे। उन्हीं स्मृतियों को मुगलों ने हिन्दू, तुर्की एवं फारसी वास्तुकला में थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ मिला दिया। इन सबके मिश्रण से जो स्थापत्य शैली सामने आई उसे मुगल स्थापत्य शैली कहा गया।

हालांकि मुगलों के स्थापत्य की सभी प्रमुख विशेषताएं यथा तिकोने या गोल मेहराब (।तबी), पतली और लम्बी मीनारें, झरोखेदार बुर्ज और गोलाकार गुम्बद पहले से ही तुर्कों के स्थापत्य में समाहित थे। अंतर केवल इतना था कि मुगलों के मेहराब, मीनारें, बुर्ज और गुम्बद पहले की अपेक्षा अधिक बड़े, कीमती पत्थरों से युक्त एवं हिन्दू तथा फारसी विशेषताओं को समेटे हुए थे। मुगल-इमारतों के भीतर विशाल कक्षों का एवं बाहर सुंदर एवं विशाल उद्यानों का निर्माण किया गया।

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दिल्ली सल्तनत के तुर्की सुल्तानों द्वारा निर्मित भवनों के स्थापत्य को मुगलों के स्थापत्य से भिन्न करने के लिए कहा जा सकता है कि तुर्की सुल्तानों के भवनों में पुरुषोचित दृढ़ता का समावेश है जबकि मुगलों के स्थापत्य में स्त्रियोचित-स्थापत्य-सौंदर्य के दर्शन होते हैं।

मुगल वास्तुकला की तुलना मुगलों के काल में भारत में विकसित उर्दू भाषा से की जा सकती है। उर्दू अपने आप में कोई भाषा नहीं है, अपितु मुगलों के सैनिक स्कंधावरों में तैयार हुई विभिन्न भाषाओं का मिश्रण है। मुगलों की सेना में अरब, फारस, उजबेकिस्तान, अफगानिस्तान, तूरान, मकरान, ईरान और भारत आदि देशों के सैनिक भर्ती होते थे। वे सब अपने-अपने देश की भाषा बोलते थे। लम्बे समय तक साथ रहने के कारण वे एक दूसरे की भाषा को समझने लगे और उनकी भाषा में विदेशी भाषाओं के शब्दों का समावेश होने लगा। इस प्रकार उर्दू भाषा तैयार हो गई। यही स्थिति मुगलों के स्थापत्य की थी जिसमें फारसी, तुर्की, अरबी, उजबेकी तथा भारतीय स्थापत्य शैलियां मिश्रित होकर एक नए रूप में सामने आई थीं। इसलिए मुगलों की स्थापत्य शैली को ‘इण्डो सारसेनिक शैली’ भी कहा जाता है।

मुगल शैली की विशेषताएँ

भारत में बने मुगल भवनों के स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-

(1.) विशालाकाय प्याज के आकार के गुम्बद जिनके चारों तरफ चार छोटे गुम्बद बने हुए हों।

(2.) इमारतों में लाल बलुआ पत्थर एवं सफेद संगमरमर का उपयोग।

(3.) पत्थरों पर नाजुक सजावटी अलंकरण, दीवारों के बाहरी एवं भीतरी हिस्सों पर पच्चीकारी एवं दीवारों और खिड़कियों में पत्थरों की अलंकृत जालियों का उपयोग।

(4.) मस्जिदों, मकबरों एवं महलों की भीतरी दीवारों पर फ्रैस्को अर्थात् भित्तिचित्रों का निर्माण।

(5.) चारों ओर उद्यान से घिरे हुए स्मारक भवनों का निर्माण।

(6.) विशाल सहन सहित मस्जिदों का निर्माण।

(7.) फारसी एवं अरबी के अलंकृत शिलालेख, कुरान की आयतों का कलात्मक लेखन।

(8.) भवन परिसर के विशाल मेहराब युक्त मुख्य द्वारों का निर्माण।

(9.) दो तरफ या चार तरफ ईवान का निर्माण।

(10.) भवनों की छतों पर कलात्मक बुर्ज एवं छतरियों का निर्माण।

(11.) भवन के चारों ओर लम्बी एवं पतली मीनारों का निर्माण।

(12.) मुगल शैली में स्थानीय शैलियों के मिश्रण से उप-मुगल शैलियों का निर्माण यथा- राजपूत स्थापत्य शैली, सिक्ख स्थापत्य शैली, इण्डो सारसैनिक स्थापत्य शैली, ब्रिटिश राज स्थापत्य शैली।

मुगल स्थापत्य शैली के सम्बन्ध में विदेशी विद्वानों के मत

बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि मुगल स्थापत्य शैली में भारतीय स्थापत्य की प्रधानता है। हेवेल ने लिखा है- ‘मुगल शैली विदेशी तथा देशी शैलियों का सम्मिश्रण प्रदर्शित करती है। भारतीय शैली अनुपम थी और उसमें विदेशी तत्त्वों को मिलाने की अलौकिक शक्ति थी।’

सर जान मार्शल ने लिखा है- ‘मुगल शैली के विषय में यह निश्चय करना कठिन है कि उस पर किन तत्त्वों का प्रभाव अधिक था।’ 

फर्ग्यूसन तथा कुछ अन्य विद्वानों का विश्वास है कि ‘मुगल कला, पूर्व-मुगलकाल की कला का परिवर्तित और विकसित रूप थी।’ अर्थात् भारतीय कला को विदेशी कला से प्रेरणा प्राप्त हुई थी और विदेशी कला ने भारतीय कला को प्रभावित किया था।

ऑपस ड्यूरा से पीट्रा ड्यूरा

भारत में मुगलों के आने से पहले के मुस्लिम भवनों की सजावट ‘ऑपस ड्यूरा’ शैली में की जाती थी। इस शैली में पत्थर के ऊपर रंगों से डिजाइन, या ज्यामितीय आकृतियां अथवा कुरान की आयतें लिखी जाती थीं किंतु हुमायूँ के काल से मुगल भवनों के बाहर बनने वाले ईवान तथा मेहराब और भवन की भीतरी दीवारों पर ‘पीट्रा ड्यूरा’ शैली की सजावट का प्रयोग किया जाने लगा। पीट्रा ड्यूरा को दक्षिण एशिया में पर्चिनकारी तथा हिन्दी में पच्चीकारी कहा जाता है। पीट्रा ड्यूरा एक विशिष्ट प्रकार की कला है जिसमें उत्कृष्ट पद्धति से कटे संगमरमर आदि पत्थर में तराशे एवं चमकाए हुए पत्थरों, नगीनों, महंगे रत्नों, सोने-चांदी एवं कांच के टुकड़ों की जड़ाई की जाती है।

 इस कार्य को इमारत बनने के बाद, उसके ऊपर पत्थर की चौकियों अथवा पट्टियों के रूप में चिपकाया जाता है। यह कार्य इतनी बारीकी से किया जाता है कि पत्थरों के बीच का महीनतम खाली स्थान भी अदृश्य हो जाता है। जड़े गए पत्थरों के समूह में स्थिरता लाने हेतु इसे जिगसॉ पहेली जैसा बनाया जाता है ताकि प्रत्येक टुकडा़ अपने स्थान पर मजबूती से ठहरा रहे।

यह कला सर्वप्रथम रोम में प्रयोग की गई। ई.1500 के आसपास यह कला चरमोत्कर्ष पर पहुँची। सोलहवीं शती में यह कला यूरोप से बाहर निकलकर मुगलों तक पहुंची जहाँ इस कला को नए आयाम मिले, स्थानीय एवं देशी कलाकारों ने भारत में बने अनेक भवनों में इस कला का उपयोग किया जिसके सबसे उत्कृष्ट उदाहरण एतमादुद्दौला के मकबरे, अगारा के लाल किले के महलों एवं ताजमहल में मिलता है। मुगल भारत में इसे पर्चिनकारी या पच्चीकारी कहा जाता था जिसका आशय नगीना जड़ने से होता है।

लाल बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर

मुगल स्थापत्य शैली की सबसे बड़ी विशेषता उत्तर भारत में बहुतायत से मिलने वाला लाल बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर का व्यापक उपयोग है जिसे काटकर, घिसकर तथा पॉलिश करके सुंदर कलात्मक स्वरूप प्रदान किया गया। मुगलों ने भवन निर्माण में बहुत कम मात्रा में काला संगमरमर, क्वाट्जाईट एवं ग्रेनाइट का उपयोग किया। मुगल भवनों की चिनाई सामान्यतः चूने के गारे में होती थी। दीवारों के भीतरी हिस्से में अनगढ़ पत्थरों को चिना जाता था और बाहरी भाग को लाल बलुआ पत्थर अथवा सफेद संगमरमर की पट्टियों (slabs) से ढक दिया जाता था। कुछ भवनों के निर्माण में ईंटों का भी प्रयोग किया गया।

राजस्थान ने उपलब्ध कराई निर्माण सामग्री

बाबर एवं हुमायूँ के काल के भवनों में राजस्थान के करौली नामक स्थान से मिलने वाले लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग किया गया किंतु जहाँगीर के काल से मुगल स्थापत्य में संगमरमर का उपयोग व्यापक पैमाने पर होने लगा। संगमरमर की आपूर्ति मारवाड़ के मकराना नगर से होती थी। दिल्ली के दीवाने खास, मोती मस्जिद एवं जामा मस्जिद, आगरा के ताजमहल, एतमादुद्दौला का मकबरा एवं मुस्समन बुर्ज, औरंगाबाद का बीबी का मकबरा, आदि भवनों का निर्माण मकराना के संगमरमर से हुआ है। चिनाई के लिए उत्तम कोटि के चूने की आपूर्ति भी राजस्थान के नागौर जिले से होती थी। गहरे नीले रंग का लाजवर्त (Lapis lazuli) अफगानिस्तान से आता था। जबकि महंगे रत्न विश्व के अनेक देशों से मंगवाए जाते थे। मुगलों ने अपने महलों में जलापूर्ति के लिए नहरों, उद्यानों में नालियों एवं फव्वारों का भी बड़े स्तर पर उपयोग किया।

महंगे रत्नों की भरमार

मुगलों ने अपने महलों में नीला लाजवर्त, लाल मूंगा, पीला पुखराज, हरा पन्ना, कत्थई गोमेद, सफेद मोती आदि मूल्यवान एवं अर्द्धमूल्यवान पत्थरों का भरपूर उपयोग किया। शाही महलों एवं शाही मकबरों में संगमरमर में बने फूल-पत्तियों की डिजाइनों में वैदूर्य, गोमेद, सूर्यकान्त, पुखराज और ऐसे ही अनेक कीमती रत्नों को जड़ने का काम मुगल स्थापत्य की विशेषता है। उनसे पहले भारत के मुस्लिम भवनों में रत्नों का प्रयोग कभी नहीं हुआ था। मुगलों की बहुत ही सुंदर और संगमरमर की कलाकृतियों में सोने और कीमती पत्थरों का जड़ाऊ काम भी मिलता है। सोने-चांदी के पतरों में रत्नों की ऐसी जड़ाई प्राचीन हिन्दू स्थापत्य में मिलती थी किंतु मुस्लिम आक्रमणों के कारण हिन्दू स्थापत्य कला का लगभग पूरी तरह विनाश हो चुका था।

नहरों एवं फव्वारों से युक्त मुगल गार्डन्स

मुगलों ने समरकंद के तैमूर शैली के उपवनों के अनुकरण पर भारत में कई बाग बनवाए जिन्हें मुगल उद्यान कहा जाता है। बाबर ने ई.1528 में आगरा में एक बाग बनवाया जिसे आराम बाग कहा जाता था। यह भारत का सबसे पुराना मुग़ल उद्यान था। इसे अब रामबाग कहा जाता है। जहाँगीर काल में निर्मित हुमायूँ का मकबरा एक बड़े चारबाग के भीतर स्थित है। जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ द्वारा निर्मित एतमादुद्दौला का मकबरा भी चारबाग शैली के एक विशाल उद्यान के भीतर बना हुआ है। जहाँगीर ने काश्मीर में शालीमार बाग बनवाया। नूरजहाँ के भाई आसफ खान (जो कि शाहजहाँ का श्वसुर और मुमताज महल का पिता था) ने ई.1633 में कश्मीर में निशात बाग बनवाया। प्रयागराज का जहाँगीर कालीन खुसरो बाग भी चारबाग शैली में बना हुआ है।

शाहजहाँ ने लाहौर में शालीमार बाग बनवाया जिसकी प्रेरणा काश्मीर के शालीमार बाग से ली गई थी। शाहजहाँ द्वारा निर्मित ताजमहल भी चारबाग शैली के एक बड़े उद्यान के बीच स्थित है।

ताजमहल की सीध में यमुना के दूसरी ओर भी शाहजहाँ द्वारा निर्मित एक उद्यान है जिसे मेहताब बाग कहा जाता है। यह भी चारबाग शैली में बना हुआ है। औरंगजेब ने पंजाब में पिंजोर बाग बनवाया जो हरियाणा के पंचकूला जिले में अपने बदले हुए स्वरूप में अब भी मौजूद हैं तथा यदुवेन्द्र बाग कहलाता है।

चारबाग शैली एक विशिष्ट प्रकार की शैली थी जिसमें उद्यान के केन्द्रीय भाग से चारों दिशाओं में चार नहरें जाती थीं जिनसे पूरे उद्यान को जल की आपूर्ति होती थी। ये चार नहरें, कुरान में वर्णित जन्नत के बाग में बहने वाली चार नदियों का प्रतीक होती थीं। भारत में मुगलों द्वारा बनाए गए छः उद्यानों को यूनेस्को विश्व धरोहर की संभावित सूचि में सम्मिलित किया गया हैं। इनमें जम्मू-कश्मीर के परी महल, निशात बाग, शालीमार बाग, चश्म-ए-शाही, वेरिनाग गार्डन तथा अचबल गार्डन सम्मिलित हैं।

भारत में मुगल स्थापत्य के प्रसिद्ध उदाहरण

भारत में मुगल स्थापत्य शैली के उत्कृष्टतम नमूने दिल्ली, आगरा, फतेहपुर सीकरी, लखनऊ, लाहौर (अब पाकिस्तान), काबुल (अब अफगानिस्तान), कांधार (अब अफगानिस्तान) आदि नगरों में हैं। कुछ प्रसिद्ध भवन इस प्रकार हैं-

(1.) मकबरे: एतमादुद्दौला का मकबरा, हुमायूँ का मकबरा, अकबर का मकबरा, जहाँगीर का मकबरा, ताजमहल, अनारकली का मकबरा, बीबी का मकबरा, आदि।

(2.) मस्जिद: दिल्ली, आगरा एवं फतेहपुर सीकरी की जामा मस्जिदें, लाहौर, दिल्ली एवं आगरा की मोती मस्जिदें, आगरा की नगीना मस्जिद, फतेहाबाद की मस्जिद, दिल्ली की किला-ए-कुहना मस्जिद आदि।

(3.) किले: दीन पनाह, आगरा एवं दिल्ली के लाल किले, लाहौर का किला, प्रयागराज का किला, अजमेर का दौलताबाद किला। 

(4.) महलः फतेहपुर सीकरी के महल, आगरा एवं दिल्ली के लाल किलों के महल, आदि।

(5.) उद्यान: बाग-ए-बाबर (लाहौर), आराम बाग (अगरा), शालीमार बाग (काश्मीर), चारबाग (हुमायूँ का मकबरा), निशातबाग (श्रीनगर), आगरा का अंगूरी बाग आदि।

(6.) सरकारी कार्यालय: आगरा, फतेहरपुर सीकरी एवं दिल्ली के दीवान-ए-आम तथा दीवान-ए-खास, फतेहपुर सीकरी की ट्रेजरी।

(7.) दरवाजा: फतेहपुर सीकरी का बुलंद दरवाजा, अजमेर में खामख्वा के दरवाजे, दिल्ली का दिल्ली दरवाजा आदि।

(8.) बारादरियां: अजमेर में आनासागर झील की बारादरियां।

(9.) हवामहल: फतेहपुर सीकरी का पंचमहल।

(10.) सराय: जालंधर की नूमहल सराय।

(7.) बुर्ज: मुसम्मन बुर्ज, जामा मस्जिद की बुर्ज आदि।

(12.) मीनारें: फतेहपुर सीकरी एवं लाहौर की हिरन मीनार आदि।

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