Saturday, November 2, 2024
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127. मुहम्मद बिन तुगलक ने किसानों को जंगलों से पकड़कर मार डाला!

मुहम्मद बिन तुगलक ने दिल्ली का सुल्तान बनने के बाद जनता में सोने-चांदी की बखेर करके जनता का समर्थन प्राप्त किया तथा निजामुद्दीन औलिया एवं अब्बासी खलीफा से स्वयं को भारत का सुल्तान स्वीकार करवाया। इसके बाद मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने सपनों पर अमल करना आरम्भ किया। वह अति-महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। अपने पिता गाजी तुगलक की हत्या से लेकर मुहम्मद ने वह हर जघन्य कार्य किया जो उसने अपने सपनों को साकार करने के लिए आवश्यक समझा!

इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से हम मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल को दो भागों में बांट सकते हैं- पहला है योजनाओं का काल तथा दूसरा है विद्रोहों का काल। मुहम्मद बिन तुगलक ने ई.1325 से ई.1335 तक के काल में कई योजनाएं बनाकर लागू कीं जिनमें उसे आंशिक सफलता तथा आंशिक विफलता प्राप्त हुई। ई.1335 से ई.1351 तक के काल को विद्रोहों का काल कहा जाता है जिसमें साम्राज्य के विभिन्न भागों में सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह हुए और सुल्तान का जीवन इन विद्रोहों का दमन करने में खप गया।

दिल्ली का सुल्तान बनते ही मुहम्मद बिन तुगलक ने राजस्व सुधार के लिए कई कानून बनाये। उसने समस्त सूबेदारों को अपने-अपने सूबों के हिसाब भेजने के आदेश दिए तथा उन सूबों की आय-व्यय का हिसाब रखने के लिए एक रजिस्टर तैयार करवाया। ऐसा करने के पीछे मुहम्मद बिन तुगलक का उद्देश्य यह था कि सल्तनत के समस्त सूबों में एक-समान लगान-व्यवस्था लागू की जाये और कोई भी गांव लगान देने से मुक्त न रहे।

गयासुद्दीन तुगलक की तरह मुहम्मद बिन तुगलक ने भी कृषि की उन्नति के लिए प्रयास किये। उसने अलग से कृषि विभाग की स्थापना की। उस विभाग का नाम ‘दीवाने-कोही’ था। सुल्तान ने साठ वर्ग मील का एक भू-भाग चुनकर उसमें विभिन्न फसलों की बुवाई करवाई तथा उनमें खाद-बीज सम्बन्धी प्रयोग करवाए। इस कार्य पर तीन वर्ष में 70 लाख टंका व्यय किया गया किंतु सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता तथा समय की कमी के कारण यह योजना असफल रही और बंद कर दी गई।

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दिल्ली का सुल्तान बनने के थोड़े ही दिन बाद मुहम्मद बिन तुगलक ने दो-आब के किसानों पर करों में वृद्धि की। जियाउद्दीन बरनी के अनुसार बढ़ा हुआ कर, प्रचलित करों का दस तथा बीस गुना था। किसानों पर भूमि कर के अतिरिक्त ‘घरी’ अर्थात गृहकर और ‘चरही’ अर्थात् चरागाहकर भी लगाया गया। प्रजा को इन करों से बड़ा कष्ट हुआ।

 दुर्भाग्य से उन्हीं दिनों दो-आब क्षेत्र में अकाल पड़ा और चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। शाही सेनाओं ने विद्रोही किसानों को कठोर दण्ड दिए। इस पर किसान जंगलों में भाग गए। शाही सेना ने जंगलों से किसानों को पकड़कर उन्हें यातनाएं दीं। बहुत से किसानों को आग में झौंक दिया गया। उनके घर जला दिए गए तथा उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार किए गए। सरकार द्वारा किए जा रहे इस दमन के कारण दो-आब के किसानों का सर्वनाश हो गया।

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गांव-गांव चीत्कार होने लगा तथा गली-गली से धुंआ उठने लगा। जब शाही सैनिकों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के समाचार सुल्तान के कानों तक पहुंचे तो सुल्तान ने सेनाओं को आदेश किया कि वे दमन रोक दें परन्तु तब तक प्रजा का सर्वनाश हो चुका था। इस कारण प्रजा सुल्तान की कृपा से कोई लाभ नहीं उठा सकी।

 इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा दो-आब में की गई कर-वृद्धि के अलग-अलग कारण बताये हैं। बदायूनीं का कहना है कि यह अतिरिक्त कर दो-आब की विद्रोही प्रजा को दण्ड देने तथा उस पर नियन्त्रण रखने के लिए लगाया गया था। सर हेग ने भी इस मत का अनुमोदन किया है। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि सुल्तान ने अपने रिक्त-कोष की पूर्ति के लिए दो-आब पर अतिरिक्त कर लगाया था।

गार्डनर ब्राउन का कहना है कि दो-आब साम्राज्य का सबसे अधिक धनी तथा समृद्धिशाली भाग था। इसलिए इस भाग से साधारण दर से अधिक कर वसूला जा सकता था। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि दो-आब का कर, शासन-प्रबन्ध को सुधारने के विचार से बढ़ाया गया था।

सुल्तान की यह योजना सफल नहीं हुई। इतिहासकारों की दृष्टि में इसके दो प्रमुख कारण थे। पहला कारण यह था कि प्रजा बढ़े हुए कर को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। यह स्वाभाविक ही था क्योंकि कोई भी व्यक्ति अधिक कर देना पसन्द नहीं करता। दूसरा कारण यह था कि इन्हीं दिनों दो-आब में अकाल पड़ गया था जिसके कारण जनता बढ़े हुए कर को नहीं चुका पाई।

इस प्रकार बदायूनीं, सर हेग तथा गार्डनर ब्राउन आदि इतिहासकारों ने दो-आब में कर वृद्धि के लिए मुहम्मद बिन तुगलक की नीति का समर्थन किया है तथा किसानों को दोषी बताया है जबकि जियाउद्दीन बरनी ने मुहम्मद बिन तुगलक की कर-नीति की कटु आलोचना की है। कुछ इतिहासकारों ने जियाउद्दीन बरनी पर ही आक्षेप लगाये हैं कि बरनी द्वारा की गई आलोचना में अतिरंजना है क्योंकि जियाउद्दीन बरनी स्वयं उलेमा वर्ग से था जिसके साथ सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की बिल्कुल भी सहानुभूति नहीं थी। इसलिए सुल्तान की निन्दा करना बरनी के लिए स्वाभाविक ही था।

इसके अतिरिक्त जियाउद्दीन बरनी स्वयं भी बरान का रहने वाला था और बरान के किसानों को भी दो-आब में की गई कर-वृद्धि का शिकार होना पड़ा था। इसलिए जियाउद्दीन में अपने क्षेत्र के किसानों के प्रति प्रेम का आवेश था। जियाउद्दीन बरनी के आलोचकों का कहना है कि दो-आब में हिन्दू किसानों से पहले से ही पचास प्रतिशत कर लिया जा रहा था, ऐसी स्थिति में करों में दस-बीस गुना वृद्धि कैसे की जा सकती थी!

 यह सही है कि जियाउद्दीन बरनी द्वारा की गई मुहम्मद बिन तुगलक की आलोचना में अतिश्योक्ति है किंतु जियाउद्दीन की बातों को बिल्कुल निर्मूल भी नहीं कहा जा सकता। सुल्तान द्वारा कर वृद्धि की गई थी, इस तथ्य को समस्त इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। निश्चित रूप से यह कर-वृद्धि अत्यधिक थी अन्यथा किसान अपने खेतों एवं गांवों को छोड़कर जंगलों में नहीं भागे होते तथा सैनिकों ने किसानों की औरतों के साथ बलात्कार नहीं किए होते!

गार्डनर ब्राउन ने कर-वृद्धि के मामले में सुल्तान मुहम्मद-बिन तुगलक को बिल्कुल निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न किया है और प्रजा की हालत खराब होने का सारा दोष जनता पर एवं अकाल पर डाला है परन्तु यदि ऐसा था तो सुल्तान को अकाल आरम्भ होते ही अतिरिक्त कर हटा देना चाहिए था और प्रजा की सहायता की व्यवस्था करनी चाहिए थी। उसे शाही कर्मचारियों पर भी पूरा नियन्त्रण रखना चाहिए था। जबकि सुल्तान ने ऐसा कुछ नहीं किया। इसलिए सुल्तान को उसके उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं किया जा सकता।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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