Saturday, July 27, 2024
spot_img

अध्याय – 29 (ब) : मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब (1658-1707 ई.)

औरंगजेब की साम्राज्यवादी नीति

औरंगजेब अपनी सल्तनत का विस्तार भारत के बचे हुए भू-भाग तथा उत्तर पूर्व में उन क्षेत्रों तक करना चाहता था जिन पर किसी समय तैमूर लंग का शासन था। उसने अपनी सेनाओं को जीवन भर युद्ध के मैदानों में लड़ते रहने के लिये बाध्य किया। औरंगजेब की साम्राज्यवादी नीति को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(1.) उत्तरी-पूर्वी सीमांत नीति, (2.) उत्तर-पश्चिमी सीमांत नीति तथा (3.) दक्षिण भारत नीति।

उत्तरी-पूर्वी सीमांत नीति

आसाम के अहोम राजा ने कूच बिहार के राजा के साथ गठबन्धन करके कामरूप पर आक्रमण कर दिया, जो उन दिनों मुगल सल्तनत के अधीन था। इस पर औरंगजेब ने 1661 ई. में बंगाल के सूबेदार मीर जुमला को उनके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने के आदेश दिये। मीर जुमला ने पहले कूचबिहार पर आक्रमण करके वहाँ के राजा को परास्त किया तथा उसके बाद आसाम पर आक्रमण किया। उन दिनों आसाम पर अहोम वंश का शासन था। 1662 ई. में मीर जुमला ने आसाम पर विजय प्राप्त कर ली तथा वहाँ की राजधानी पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में मीर जुमला को अपार धन की प्राप्ति हुई किंतु उन्हीं दिनों भयानक वर्षा होने से आवागमन के सारे मार्ग अवरुद्ध हो गये और रसद की कमी हो गई। इस कारण मुगल सेना के बहुत से सिपाही मर गये। अवसर देखकर अहोम सेनाओं ने फिर से आक्रमण किया तथा मुगलों को काफी क्षति पहुँचाई। वर्षा ऋतु के समाप्त होने पर मीर जुमला ने फिर से युद्ध आरम्भ किया किंतु इसी समय वह रोग से ग्रस्त हो गया। इस कारण दिसम्बर 1662 में दोनों पक्षों में संधि हो गई। अहोम राजा ने अपने राज्य का पश्चिमी प्रदेश मुगलों को दे दिया। अहोम राजा ने अपनी एक लड़की, कुछ हाथी और सोना-चांदी भी मुगल-बादशाह के लिये दिये। इस संधि के कुछ माह बाद मीर जुमला की मृत्यु हो गई। उस समय वह बिहार की सीमा पर था। इस पर कूच बिहार के राजा ने अपना खोया हुआ राज्य फिर से छीन लिया। मीर जुमला के बाद शाइस्ताखाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया। उसने कूचबिहार के राजा को मुगल सल्तनत की अधीनता स्वीकार करने के लिये बाध्य किया और उसके राज्य का कुछ भाग मुगल सल्तनत में मिला लिया।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

अराकान राज्य भी मुगल साम्राज्य की उत्तरी-पूर्वी सीमा पर स्थित था। वहाँ माघ वंश का शासन था। उनकी राजधानी चटगांव थी। लगभग एक सौ वर्ष से पुर्तगालियों ने चटगाँव में अपनी बस्ती बना रखी थी जिन्हें फिरंगी कहते थे। पुर्तगालियों ने माघ राजाओं से गठबन्धन कर रखा था। अनेक पुर्तगालियों ने अराकानी स्त्रियों के साथ विवाह कर लिया था। ये पुर्तगाली, बंगाल के निचले भाग में समुद्र तट तथा नदियों के तट पर लूट-खसोट किया करते थे। औरंगजेब ने बंगाल के गवर्नर शाइस्ताखाँ को आदेश दिया कि वह इन फिरंगियों तथा अराकानियों को दण्डित करे। अराकानियों पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने शहशुजा तथा उसके परिवार की हत्या कर दी थी। शाइस्ताखाँ ने एक नौ-सेना तैयार की और ब्रह्मपुत्र नदी के मुहाने पर स्थित सन्द्वीप नामक द्वीप पर अधिकार कर लिया। उन्हीं दिनों माघ राजा तथा फिरंगियों में झगड़ा हो गया। शाइस्ताखाँ ने इस स्थिति से लाभ उठाते हुए फिरंगियों को अपनी ओर मिला लिया। अब चटगाँव पर आक्रमण करना सरल हो गया। पुर्तगालियों के ही एक जहाजी बेड़े ने अराकानियों के जहाजी बेड़े को नष्ट कर दिया। मुगल सेना ने चटगाँव पर अधिकार जमा लिया। चटगांव का नाम इस्लामाबाद रख दिया और उसे बंगाल प्रांत में सम्मिलित कर लिया। इस प्रकार 1666 ई. में अराकानियों की शक्ति समाप्त हो गई।

इस बीच आसाम के अहोम शासक अपने खोये हुए प्रदेश को फिर से प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहे। 1667 ई. में उन्होंने गौहाटी पर अधिकार कर लिया। मुगलों ने आसाम पर आक्रमण किया किंतु उन्हें सफलता नहीं मिली। अगले ग्यारह वर्ष तक आसाम में गृहयुद्ध चलता रहा। इस अवधि में आसाम की गद्दी पर सात शासक बैठे। इससे अहोम वंश कमजोर पड़ गया। अवसर पाकर 1679 ई. में मुगलों ने फिर से आसाम पर अधिकार कर लिया। यह अधिकार दो वर्ष तक ही रह सका। इस प्रकार आसाम अधिक समय तक मुगलों के अधीन नहीं रहा किंतु कूचबिहार के शासकों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली।

उत्तर-पश्चिमी सीमांत नीति

अफगानिस्तान के पहाड़ी प्रदेशों में कृषि योग्य भूमि का अभाव होने से वहाँ के कबाइली, बड़े लड़ाकू एवं असभ्य होते थे। वे प्रायः मैदानों पर धावा बोल देते थे और लूटमार कर चले जाते थे। जब भारत के व्यापारी अपना माल लेकर पहाड़ी दर्रों से जाने का प्रयास करते थे तब कबाइली, भारतीय व्यापारियों पर धावा करके उनका माल लूट लेते थे। कबाइली लोग इतने अविश्वसनीय, उद्दण्ड तथा अनुशासनहीन थे कि उन्हें सेना में भर्ती नहीं किया जा सकता था। भारत के शासक प्रायः इनके मुखिया को रिश्वत देकर शांत करते थे। मुगलों ने कई बार अफगान लुटेरों पर रोक लगाने के प्रयास किये किंतु सफलता नहीं मिली। 1667 ई. में कई हजार युसुफजई लुटेरों ने भागू नामक मुखिया के नेतृत्व में एकत्रित होकर सिंधु नदी पार की तथा अटक एवं पेशावर के क्षेत्रों में लूटमार करने लगे। औरंगजेब ने उन्हें खदेड़ने के लिये तीन सेनाएँ भेजीं। इन सेनाओं ने अफगान लुटेरों का दमन करके शांति स्थापित की।

इस घटना के पांच साल बाद 1672 ई. में अफरीदियों ने मुगलों के राज्य पर आक्रमण करके सीमांत प्रदेशों पर कब्जा कर लिया तथा उनके नेता अकमलखाँ ने स्वयं को बादशाह घोषित करके अपने नाम के सिक्के ढलवाये। उसने मुगलों के विरुद्ध व्यापक युद्ध की घोषणा की तथा पठानों से सहयोग मांगा। उसने खैबर घाटी को बंद कर दिया। काबुल का सूबेदार मुहम्मद अमीन खाँ उन दिनों पेशावर में था। वह मीर जुमला का पुत्र था। उसी ने पांच साल पहले यूसुफजाइयों के विरुद्ध सफल कार्यवाही की थी। वह खैबरे दर्रे के मार्ग से काबुल की ओर बढ़ा। अली मस्जिद नामक स्थान पर उसकी सेना को कबाइलियों ने घेर लिया और दस हजार मुगल सैनिकों को तलवार के घाट उतार दिया। अकमलखाँ, बीस हजार स्त्री पुरुषों को बंदी बनाकर मध्य एशिया के बाजारों में बेचने के लिये ले गया। मुगल सेना को इससे पहले इतना बड़ा नुक्सान नहीं हुआ था। मुगलों की कमजोरी का लाभ उठाने के लिये खटक कबीले ने भी अफरीदियों के साथ गठबन्धन कर लिया और सम्पूर्ण पश्चिमोत्तर प्रदेश इनकी चपेट में आ गया।

इस पर महाबतखाँ को अफगानिस्तान का सूबेदार नियुक्त किया गया। महाबतखाँ भीतर ही भीतर अकमलखाँ से मिल गया। अतः उसके स्थान पर शुजातखाँ को भेजा गया। वह भी परास्त हो गया तथा 1674 ई. में मार डाला गया। इसके बाद औरंगजेब ने शाइस्ताखाँ और राजा जसवन्तसिंह को सीमांत प्रदेश की स्थिति संभालने के लिये भेजा। 1674 ई. में राजा जसवन्तसिंह कुर्रम दर्रे के निकट परास्त हो गये और मार डाले गये। इस कारण औरंगजेब ने स्वयं पश्चिमोत्तर प्रदेश के लिये प्रस्थान किया। औरंगजेब ने सैनिक शक्ति के साथ-साथ कूटनीति से भी काम लिया। उसने बहुत से कबाइलियों को धन तथा पद देकर उनमें फूट पैदा कर दी। इस प्रकार बड़ी कठिनाई से औरंगजेब पश्चिमोत्तर प्रदेश में शान्ति स्थापित कर सका।

औरंगजेब की दक्षिण भारत नीति

औरंगजेब ने अपने शासन काल के अन्तिम पच्चीस वर्ष दक्षिण की समस्याओं को सुलझाने में व्यतीत किये। वह शाहजहाँ के जीवन काल में दो बार दक्षिण का सूबेदार रह चुका था। इस कारण वह दक्षिण के राज्यों की दुर्बलताओं को भलीभांति जानता था और उन पर विजय प्राप्त करना सरल कार्य समझता था। शाहजहाँ के समय वह गोलकुण्डा और बीजापुर राज्यों पर विजय प्राप्त कर चुका था परन्तु शाहजहाँ के हस्तक्षेप के कारण उन्हें मुगल सल्तनत में सम्मिलित नहीं कर सका था। दक्षिण के मुसलमान राज्यों के राजा, शिया मत को मानने वाले थे। चूँकि औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था, इसलिये उसे शिया राज्यों से घनघोर घृणा थी। वह उन्हें दारूल-हर्श अर्थात् ‘काफिरों के राज्य’ कहता था और उनको नष्ट करना अपना परम कर्त्तव्य समझता था। डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार ने लिखा है- ‘शाहजहाँ की ही भाँति औरंगजेब का भी दक्षिण के शिया सुल्तानों के साथ व्यवहार कुछ अंश में साम्राज्यवादी और कुछ अंश में धार्मिक विचारों से प्रभावित था।’

(1.) बीजापुर पर विजय: बीजापुर का शिया राज्य मुगल सल्तनत की सीमा पर स्थित था। 1672 ई. में बीजापुर के सुल्तान अली आदिलशाह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र सिकन्दर, पाँच वर्ष की आयु में बीजापुर के सिंहासन पर बैठा। औरंगजेब के लिए बीजापुर को मुगल सल्तनत में सम्मिलित कर लेने का यह स्वर्णिम अवसर था। इसलिये मुगल गवर्नर दिलेरखाँ ने बीजापुर का घेरा डाल दिया। बीजापुर के सुल्तान ने मरहठा सरदार शिवाजी से सहायता की याचना की। शिवाजी ने बीजापुर राज्य का अनुरोध स्वीकार कर लिया। इस कारण दिलेरखाँ को बीजापुर से घेरा उठाना पड़ा। 1685 ई. में शाहजादा आजम तथा खान-ए-जहाँ बहादुरखाँ की अध्यक्षता में एक सेना बीजापुर का घेरा डालने के लिए पुनः भेजी गई। बीजापुर को मरहठों तथा गोलकुण्डा दोनों से सहायता मिल गई। इस कारण यह घेरा बहुत दिनों तक चलता रहा। घेरा आरम्भ होने के पन्द्रह महीने बाद जुलाई 1686 में औरंगजेब स्वयं दक्षिण में पहुँचा। बीजापुर को चारों ओर से घेरकर उसकी रसद आपूर्ति काट दी गई। इससे बीजापुर के सैनिक भूखों मरने लगे। बीजापुर के सुल्तान सिकन्दर को समर्पण करना पड़ा। औरंगजेब ने उसे एक लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर दौलताबाद के दुर्ग में बंद कर दिया और बीजापुर के राज्य को मुगल सल्तनत में मिला लिया।

(2.) गोलकुण्डा पर विजय: दक्षिण का दूसरा प्रधान राज्य गोलकुण्डा था। इन दिनों गोलकुण्डा में विलासी तथा अकर्मण्य बादशाह अबुल हसन शासन कर रहा था। राज्य की वास्तविक शक्ति उसके ब्राह्मण मन्त्री मदन्ना तथा उसके भाई अदन्ना के हाथों में थी। मदन्ना ने मरहठों के साथ गठबन्धन कर लिया था। गोलकुण्डा ने मुगलों के विरुद्ध बीजापुर की भी सहायता की थी और बहुत दिनों से मुगल बादशाह को खिराज नहीं भेजा था। यह सब औरंगजेब के लिए असह्य था। उसने शाहजादा मुअज्जम की अध्यक्षता में एक सेना गोलकुण्डा पर आक्रमण करने के लिए भेजी। मुअज्जम ने 1685 ई. में गोलकुण्डा की राजधानी हैदराबाद पर अधिकार जमा लिया। अबुल हसन ने भागकर गोलकुण्डा के दुर्ग में शरण ली। 1686 ई. में शाहजादा मुअज्जम वापस बुला लिया गया और 1687 ई. के प्रारम्भ में औरंगजेब स्वयं दक्षिण पहुँचा। गोलकुण्डा के दुर्ग की रक्षा का भार अब्दुर्रज्जाक नामक एक वीर सैनिक को सौंपा गया था। उसने बड़ी वीरता के साथ दुर्ग की रक्षा की किंतु आठ महीने के घेरे के बाद दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया अब्दुर्रज्जाक साथियों सहित मारा गया। उसके शरीर पर सत्तर घाव थे। अबुल हसन को भी दौलताबाद के दुर्ग में भेज दिया गया और उसके राज्य को मुगल सल्तनत में मिला गया।

(3.) मरहठों के विरुद्ध संघर्ष: गोलकुण्डा तथा बीजापुर के राज्य महाराष्ट्र तथा मुगल सल्तनत के मध्य में स्थित थे। इन दोनों राज्यों के समाप्त हो जाने से मरहठों तथा मुगलों की सीमाएं आ मिलीं। महाराष्ट्र औरंगजेब के विरोधियों का शरण-स्थल बना हुआ था। विद्रोही शाहजादा अकबर, वीर दुर्गादास राठौड़ तथा महाराजा अजीतसिंह आदि को महाराष्ट्र में शरण मिली थी। इसलिये औरंगजेब के लिये इस शरणस्थली का विनाश करना आवश्यक था। मरहठे बड़े ही निर्भीक थे। वे मुगल क्षेत्रों पर आक्रमण करके लूटमार करते थे। अतः मरहठों के विरुद्ध औरंगजेब का संघर्ष अनिवार्य हो गया। इन दिनों मरहठों का नेतृत्व छत्रपति शिवाजी कर रहे थे। औरंगजेब ने शिवाजी को दबाने के लिए शाइस्ताखाँ को दक्षिण में भेज दिया। शाइस्ताखाँ ने पूना में अपना पड़ाव डाला। शिवाजी ने एक रात्रि में अचानक उस पर धावा बोलकर उसे घायल कर दिया। शाइस्ताखाँ वहाँ से जान बचा कर भाग गया। यह सूचना मिलने पर औरंगजेब के क्रोध की सीमा नहीं रही। उसने 1663 ई. में महाराजा जसवन्तसिंह को शिवाजी को दबाने के लिए भेजा। इस सेना को भी विशेष सफलता नहीं मिली।

1664 ई. में शिवाजी ने राजा की उपाधि धारण की और सूरत को लूट लिया। जब औरंगजेब को इसकी सूचना मिली तब उसने आम्बेर के महाराजा जयसिंह तथा दिलेरखाँ को शिवाजी के विरुद्ध भेजा। इन सेनापतियों ने शिवाजी के अधिकांश दुर्गों पर अधिकार कर लिया और सारे महाराष्ट्र को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। विवश होकर शिवाजी को जयसिंह के साथ संधि करनी पड़ी। शिवाजी अपने समस्त दुर्ग मुगलों को समर्पित करने तथा मुगल सल्तनत की सेवा स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए। फलतः शिवाजी तथा उसके पुत्र शम्भाजी ने राजा जयसिंह के साथ दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। औरंगजेब के दरबार में शिवाजी का आदर नहीं हुआ। उन्हें पांच-हजारी मनसबदारों के बीच खड़ा कर दिया गया। शिवाजी ने इसे अपना अपमान समझा तथा मुगल अधिकारियों का विरोध किया। औरंगजेब ने उन्हें नजरबन्द करके उनके निवास पर कड़ा पहरा लगा दिया। शिवाजी ने बीमारी का बहाना किया और प्रतिदिन टोकरे भरकर फल तथा मिठाइयाँ भरकर गरीबों को बाँटने लगे। एक दिन शिवाजी अपने पुत्र के साथ इन्हीं फलों के टोकरों में लेटकर कारागार से निकल भागे और नौ महीने की अनुपस्थिति के बाद फिर से अपने पुत्र के साथ महाराष्ट्र पहुँच गये। उन्होंने मुगलों के विरुद्ध फिर से छापामार युद्ध छेड़ दिया और कोंकण तथा अन्य स्थानों पर अधिकार कर लिया। विवश होकर 1666 ई. में औरंगजेब को उनसे सन्धि करनी पड़ी और उन्हें स्वतन्त्र शासक मान लेना पड़ा। इससे पाँच वर्ष तक दक्षिण में शान्ति बनी रही। 1671 ई. में जब शिवाजी को यह सूचना मिली कि औरंगजेब शिवाजी को कैद करवाने का प्रयत्न कर रहा है तब शांति फिर भंग हो गई। शिवाजी ने दूसरी बार फिर सूरत और खानदेश को लूटा और बहुत से शाही दुर्गों पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार शिवाजी सम्पूर्ण महाराष्ट्र को स्वतन्त्र कराने में सफल हो गए। यह शिवाजी का चूड़ान्त विकास था। दुर्भाग्यवश 1680 ई. में शिवाजी का निधन हो गया।

शिवाजी की मृत्यु के बाद उनके पुत्र शम्भाजी ने मुगलों के विरुद्ध युद्ध जारी रखा। औरंगजेब का पुत्र अकबर जिसने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया था, शम्भाजी की शरण में आ गया जहाँ से वह फारस के शाह की शरण में चला गया। दुर्गादास तथा अजीतसिंह भी शम्भाजी के पास चले गये थे। यह सब औरंगजेब के लिए असह्य था। उसने महाराष्ट्र पर आक्रमण कर दिया। शम्भाजी को साथियों सहित बंदी बनाकर दिल्ली लाया गया। उन्हें भाँड़ों के वस्त्र पहनाकर दिल्ली की सड़कों पर घुमाया गया और बुरी तरह अपमानित करके कारागार में डाल दिया गया। पन्द्रह दिनों की भयानक यातनाओं के बाद शम्भाजी के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके कुत्तों को खिला दिये गये।

शम्भाजी के बाद शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम ने मुगलों के विरुद्ध संग्राम जारी रखा। औरंगजेब ने एक सेना महाराष्ट्र के रायगढ़ दुर्ग पर आक्रमण करने भेजी। राजाराम सपरिवार दुर्ग से निकल भागा और उसने कर्नाटक के जिन्जी दुर्ग में शरण ली। शम्भाजी की स्त्री तथा उसका पुत्र शाहूजी मुगलों के हाथ पड़ गये। वे दिल्ली लाये गये। शाहूजी का पालन-पोषण मुसलमानी ढंग पर किया जाने लगा। मरहठों ने राजाराम के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम जारी रखा। औरंगजेब ने जिन्जी के दुर्ग का घेरा डाल दिया। यह घेरा नौ वर्षों तक चलता रहा। 1795 ई. में दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया परन्तु राजाराम वहाँ से भी निकल भागा और सतारा पहुँचकर मरहठों को संगठित करने लगा। दुर्भाग्यवश 1700 ई. में राजाराम का निधन हो गया।

राजाराम की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी ताराबाई ने मरहठों का नेतृत्व किया। उसने अपने पुत्र शिवाजी (तृतीय) को सिंहासन पर बिठा कर स्वतंत्रता संग्राम जारी रखा। अब मरहठों की शक्ति बहुत बढ़ गई। वे अहमदाबाद तथा मालवा पर धावा बोलने लगे। वे गुजरात में भी घुस गये और उसे लूटा। उन्होंने बरार को भी लूटा परन्तु औरंगजेब कुछ न कर सका। मरहठे औरंगजेब के जीवनकाल के अन्त तक मुगलों से युद्ध करते रहे।

मरहठों की सफलता के कारण

औरंगजेब विशाल सल्तनत का बादशाह था। उसके पास युद्ध करने के साधन मरहठों की अपेक्षा कहीं अधिक थे परन्तु इस युद्ध में औरंगजेब की अपेक्षा मराठों को अधिक सफलता मिली। मराठों की सफलता के कारण निम्नलिखित थे-

(1.) महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति: महाराष्ट्र की भौगोलिक परिस्थितियाँ मरहठों के लिए सहायक सिद्ध हुईं। महाराष्ट्र भारत के सुदूर दक्षिण में स्थित है। यातायात के साधनों का अभाव होने के कारण उत्तरी भारत से सेनाओं का महाराष्ट्र तक पहुंचना सरल नहीं था। महाराष्ट्र की भूमि बड़ी ऊबड़-खाबड़ थी। मुगल सेना समतल मैदानों में युद्ध करने की अभ्यस्त थी। इस कारण वह इस प्रदेश में सफलतापूर्वक युद्ध नहीं लड़ सकी।

(2.) मरहठों की छापामार रणनीति: मरहठों की सफलता का एक बहुत बड़ा कारण उनकी छापामार रणनीति थी, जो उस प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल थी। मरहठे मैदानों में नहीं लड़ते थे, क्योंकि वे विशाल मुगल सेना के सामने नहीं ठहर सकते थे। अतः वे पहाड़ी क्षेत्र में अचानक मुगलों पर टूट पड़ते थे। वे मुगल सैनिकों को जितना नुक्सान पहुँचा सकते थे, पहुँचा कर भाग खड़े होते थे। संकट आने पर मरहठा सैनिक पहाड़ों में छिप जाते थे। मुगल सैनिक इस युद्ध पद्धति से अपरिचित थे, अतः वे मरहठों का सामना नहीं कर सके।

(3.) मरहठों का राष्ट्रीय संग्राम: औरंगजेब, मरहठों के विरुद्ध साम्राज्यवादी तथा साम्प्रदायिकता की भावना से प्रेरित होकर लड़ रहा था। वह दक्षिण में अपने राज्य का विस्तार करना तथा हिन्दू सत्ता को समाप्त करना चाहता था। अतः उसके पास केवल सैनिक बल था। उसमें नैतिक बल का अभाव था। इसके विपरीत मरहठे अपना स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहे थे। वे अपने देश, धर्म, जाति, सभ्यता, संस्कृति तथा स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। इस कारण उनके युद्ध ने राष्ट्रीय संग्राम का रूप ले लिया था तथा उनमें अदम्य उत्साह तथा साहस उत्पन्न हो गया था। वे युद्ध में सर्वस्व निछावर करने के लिए उद्यत थे। जबकि औरंगजेब के सैनिकों में ऐसा उत्साह तथा साहस नहीं था।

(4.) मरहठों का कुशल नेतृत्व: मरहठों को कुशल नेताओं की सेवाएँ प्राप्त होती गईं। शिवाजी अत्यंत योग्य सेनानायक तथा संगठनकर्त्ता थे। उनके नेतृत्व में मरहठों ने मुगल सल्तनत के विरुद्ध सफलता पूर्वक युद्ध किया। शिवाजी के बाद उनके पुत्र शम्भाजी में वैसी योग्यता नहीं थी परन्तु शम्भाजी के बाद उसके भाई राजाराम और राजाराम के बाद उसकी पत्नी ताराबाई ने मरहठों को उचित नेतृत्व प्रदान किया।

(5.) औरंगजेब की वृद्धावस्था: औरंगजेब वृद्ध हो चला था और उसमें पहले जैसी शक्ति तथा उत्साह नहीं बचा था। वह अत्यंत शंकालु प्रवृत्ति का व्यक्ति था और किसी पर विश्वास नहीं करता था। अतः वह किसी एक सेनापति को दक्षिण विजय का कार्य नहीं सौंप सका। उसके सेनापति तेजी से बदले जाते रहे। इसके विपरीत मरहठे एक निश्चित योजना बनाकर लड़ते थे जिससे उन्हें सफलता प्राप्त हो जाती थी।

(6.) दक्षिण के शिया राज्यों का विनाश: अनेक इतिहासकारों का मानना है कि दक्षिण के शिया राज्यों को उन्मूलित कर औरंगजेब ने बहुत बड़ी भूल की। इससे दक्षिण में मरहठों की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए कोई दूसरी शक्ति नहीं रह गई। यदि औरंगजेब ने बीजापुर तथा गोलकुण्डा के राज्य नष्ट नहीं किये होते तो उनकी सहायता से वह मरहठों की शक्ति को नष्ट कर सकता था।

(7.) मुगलों का नैतिक पतन: औरंगजेब के सैनिकों का नैतिक पतन हो गया था। अब उनमें पुराना उत्साह तथा कौशल नहीं रह गया था। उन्हें प्रोत्साहित रखने के लिए उनके समक्ष कोई उच्च आदर्श भी नहीं था। इसके विपरीत मरहठा सैनिकों का नैतिक बल उच्च कोटि का था। वे हिन्दू-स्वराज्य के लिए लड़ रहे थे। जिस पर वे सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार थे। मरहठा सैनिकों में कष्ट सहन करने की क्षमता मुगल सैनिकों की अपेक्षा अधिक थी।

(8.) राजपूतों की विमुखता: यद्यपि आम्बेर तथा मारवाड़ के राजा औरंगजेब की ओर से मरहठों से युद्ध कर रहे थे किंतु उनमें अब मुगलों के प्रति पहले जैसी भक्ति नहीं रह गई थी। औरंगजेब ने अपनी कट्टर नीतियों के कारण हिन्दू राजाओं को नाराज कर दिया था।

औरंगजेब की दक्षिण नीति के परिणाम

औरंगजेब की दक्षिण नीति के कई गंभीर परिणाम निकले-

(1.) बीजापुर और गोलकुण्डा राज्यों का अंत: औरंगजेब ने दक्षिण के दो प्रधान राज्यों- बीजापुर तथा गोलकुण्डा का अन्त कर दिया और उन्हें मुगल सल्तनत में सम्मिलित कर लिया।

(2.) मुगल सल्तनत में बिखराव की शुरुआत: दक्षिण के राज्यों को मुगल सल्तनत में मिला लेने से मुगल सल्तनत की सीमा का दक्षिण भारत में विस्तार हो गया तथा सल्तनत इतनी विशाल हो गई कि उसे यातायात तथा संचार के साधनों के अभाव के कारण दिल्ली अथवा आगरा से संचालित करना लगभग असंभव हो गया। इन राज्यों को परास्त करते-करते औरंगजेब बूढ़ा और शंकालु हो गया था। इस कारण भी सल्तनत को एक बनाये रखना कठिन हो गया और सल्तनत में बिखराव की शुरुआत हो गई।

(3.) डाकुओं की संख्या में वृद्धि: बीजापुर तथा गोलकुण्डा राज्य की सेनाओं से भागे हुए अधिकांश सैनिक उदर पूर्ति के लिये डाकू बन गये और निरीह प्रजा को लूटने लगे।

(4.) मरहठों को शक्ति विस्तार का अवसर: दक्षिण भारत से प्रबल मुस्लिम राज्यों की समाप्ति के कारण मराहठों की शक्ति को रोकने वाला कोई नहीं रह गया और उन्हें अपनी शक्ति विस्तारित करने का अवसर मिल गया। इस कारण मुगल सल्तनत तेजी से पतन की ओर बढ़ने लगी। दक्षिण के युद्धों और औरंगजेब के अत्याचारों के कारण ही मरहठों का इतना बड़ा संगठन बन सका और उनके युद्ध ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का रूप धारण कर लिया।

(5.) मुगलों की प्रतिष्ठा को आघात: मरहठों के विरुद्ध सफल न होने के कारण मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा को बड़ा आघात लगा।

(6.) राज्यकोष को आघात: दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने के लिये किये गये युद्धों के संचालन में बहुत धन व्यय करना पड़ा, जिससे मुगल राजकोष को बड़ा आघात लगा। इसकी पूर्ति दक्षिण के राज्यों से मिले धन से नहीं हो सकी।

(7.) कृषि एवं व्यापार को आघात: दक्षिण भारत में लगभग पच्चीस साल तक निरन्तर युद्ध चलते रहने से प्रदेश की कृषि तथा व्यापार को बड़ा आघात लगा। दक्षिण की आर्थिक व्यवस्था चौपट हो गई और प्रायः अकाल पड़ने से प्रजा को बड़ा कष्ट भोगना पड़ा।

(8.) सैनिक शक्ति को आघात: दक्षिण के युद्धों से देश की सैनिक शक्ति को बहुत बड़ा आघात लगा। इन युद्धों में असंख्य सैनिक मारे गये। गोलकुण्डा तथा बीजापुर के राज्य अत्यंत वीरता से लड़े। इससे दोनों पक्षों को भारी सैनिक क्षति हुई। युद्धों के बाद बड़े पैमाने पर उभरने वाली महामारियों में भी असंख्य सैनिकों, श्रमिकों तथा प्रजा के प्राण गये।

(9.) सैनिकों में युद्धों के प्रति उदासीनता: पच्चीस वर्ष लम्बे युद्ध के कारण मुगल सैनिक युद्धों से ऊब गये। वे अपने परिवारों से दूर रहते थे और वहीं मर जाते थे। उन्हें समय पर वेतन नहीं मिलता था। इस कारण वे ऊब गये तथा उनमें मुगलों की सेवा के प्रति असन्तोष फैलने लगा।

(10.) उत्तरी भारत में विशृंखलता: औरंगजेब ने अपने शासन काल के अन्तिम पच्चीस वर्ष दक्षिण के युद्धों में व्यतीत किये। बादशाह की उत्तरी भारत से अनुपस्थिति के कारण उत्तरी भारत में अराजकता तथा अनुशासनहीनता फैल गई। राजपूतों को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया। उत्तर की आर्थिक स्थिति पर भी दक्षिण के युद्धों का बहुत बड़ा प्रभाव था।

(11.) सांस्कृतिक जीवन पर दुष्प्रभाव: दक्षिण के युद्धों का देश के सांस्कृतिक जीवन पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा। देश की युद्धकालीन परिस्थिति के कारण साहित्य तथा कला की उन्नति नहीं हो सकी। कवियों, साहित्यकारों तथा कलाकारों को राज्य का संरक्षण नहीं मिला। इस कारण देश के उत्तर तथा दक्षिण दोनों ही भागों में सांस्कृतिक शून्यता उत्पन्न हो गई।

निष्कर्ष

दक्षिण के पच्चीस वर्षीय युद्धों से मुगल सल्तनत की दृढ़ता, राजकोष, सैनिक शक्ति एवं गौरव पर भीषण आघात हुआ जिससे वह पतनोन्मुख हो गया। मुगल सल्तनत की कब्र दक्षिण के इन युद्धों में ही खुदकर तैयार हुई। स्मिथ ने लिखा है- ‘दक्षिण भारत, मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा तथा उसके शरीर की समाधि सिद्ध हुआ।’

औरंगजेब की मृत्यु

1682 ई. से औरंगजेब दक्षिण में लड़ रहा था। बीजापुर, गोलकुण्डा तथा मराठों से लड़ते हुए उसे 24 साल हो गये। इस बीच वह 88 वर्ष का बूढ़ा और अशक्त हो गया।

परिवार के सदस्यों की मृत्यु

1702 ई. में उसकी पुत्री जेबुन्निसा की मृत्यु हो गई। 1704 ई. में उसके निष्कासित पुत्र अकबर की फारस में मृत्यु हो गई। 1705 ई. में उसकी पुत्र-वधू जहाँजेब की मृत्यु हो गई। 1706 ई. में उसकी अकेली जीवित बहन गौहनआरा की मृत्यु हो गई। उसी वर्ष उसकी पुत्री मेहरुन्निसा और उसके पति इजिदबक्स की भी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के एक माह बौद औरंगजेब के पौत्र (शहजादा अकबर के पुत्र) बुलन्द बख्तर की मृत्यु हो गई। 1707 ई. के आरंभ में औरंगजेब की मृत्यु से कुछ दिन पहले औरंगजेब के दो नातियों की मृत्यु हो गई। इस प्रकार उसकी आंखों के सामने उसका लगभग पूरा परिवार मर गया। केवल तीन शहजादे आजम, मुअज्जम और कामबक्श जीवित बचे थे जो औरंगजेब के तख्त पर कब्जा करने के लिये एक दूसरे के रक्त के प्यासे थे।

औरंगजेब की मृत्यु

जनवरी 1706 में औरंगजेब बीमार पड़ गया। उसने उत्तर भारत जाने के लिये अहमदनगर के लिये प्रस्थान किया। मराठे उसके पीछे लग गये और लगातार उसके डेरांे को लूटने लगे। 31 जनवरी 1706 को औरंगजेब अहमदनगर पहुँच गया। मराठों ने उसे चारों ओर से घेर लिया। चार माह की भयानक लड़ाई के बाद मई 1706 में उन्हें खदेड़ा जा सका। औरंगजेब जीवित ही उत्तर भारत पहुंचना चाहता था किंतु मराठों के कारण वह दक्षिण से बाहर नहीं निकल सका। मार्च 1707 के आरंभ में वह दौलताबाद पहुंच गया। 3 मार्च 1707 को वहीं उसका निधन हो गया। दौलताबाद से चार मील पश्चिम में शेख जेन-उल-हक के माजर के निकट उसके शरीर को दफना दिया गया।

औरंगजेब के शहजादे

जिस समय औरंगजेब की मृत्यु हुई उस समय उसके तीन पुत्र जीवित थे। शहजादा मुअज्जम (जिसे शाहआलम की उपाधि दी गई थी) जमरूद में, शहजादा आजम अहमदनगर के निकट तथा कामबख्श बीजापुर में था। मराठे खानदेश, गुजरात तथा मालवा को लूट रहे थे। जाट, सिक्ख, सतनामी, बुंदेले, रुहेले तथा राजपूत, मुगलों के शत्रु होकर उन्हें बर्बाद करने पर तुले थे। ऐसी विकट परिस्थितियों में एकजुट होकर शत्रुओं का सामना करने के स्थान पर आजम, मुअज्जम तथा कामबख्श, मुगलिया सल्तनत पर अधिकार करने के लिये एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे। शहजादों को अपने बाप से कोई लगाव नहीं था। औरंगजेब ने अपने समस्त भाइयों को धोखा देकर मारा था तथा अपने पिता को बंदी बनाकर उसका तख्त हड़प लिया था। उसने अपने तीनों पुत्रों एवं एक पुत्री को यातना देने के लिये जेल में डाल दिया था जिनमें से एक पुत्र तथा एक पुत्री की जेल में ही मौत हुई। शहजादे मुअज्जम को अपने बाप की जेल में आठ साल बिताने पड़े थे। शहजादा अकबर औरंगजेब से भयभीत होकर भारत छोड़कर फारस जा बसा था। ऐसे बाप से भला कौन बेटा प्यार कर सकता था! संसार में कोई भी स्त्री और कोई भी पुरुष ऐसा न था जिससे वह प्रेम करता हो। वह 24 घण्टे में कठिनाई से 3 से 4 घण्टे सो पाता था। शेष समय भारत को दार-उल हर्ब (काफिरों का देश) से दार-उल-इस्लाम (इस्लाम का देश) बनाने में लगाता था। लगभग पचास वर्षों के अपने शासन में औरंगजेब ने देश को शमशान भूमि में नहीं तो बंदीगृह में अवश्य बदल दिया। ऐसे आदमी के मरने पर किसी को दुःख नहीं हुआ।

मुगल सल्तनत की स्थिति

औरंगजेब की मृत्यु के समय मुगल सल्तनत में 21 सूबे थे। इनमें से 14 उत्तर भारत में, 6 दक्षिण भारत में तथा एक सूबा भारत के बाहर अफगानिस्तान में था। इन सूबों के नाम इस प्रकार थे- (1.) आगरा, (2.) अजमेर, (3.) इलाहाबाद, (4.) अवध, (5.) बंगाल, (6.) बिहार, (7.) दिल्ली, (8.) गुजरात, (9.) काश्मीर, (10.) लाहौर, (11.) मालवा, (12.) मुल्तान, (13.) उड़ीसा, (14.) थट्टा (सिन्ध), (15.) काबुल, (16.) औरंगाबाद, (17.) बरार, (18.) बीदर (तेलंग), (19.) बीजापुर, (20.) हैदराबाद और (21.) खानदेश।

Related Articles

2 COMMENTS

  1. of course like your website however you need to take a look at the spelling on several of your posts.
    Several of them are rife with spelling issues and
    I find it very troublesome to inform the reality however I’ll
    certainly come back again.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source