मुरादबक्श को अपने भाइयों पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं था, उसे लगता था कि औरंगजेब किसी भी समय स्वयं को बादशाह घोषित कर सकता है। इसलिए मुरादबक्श ने स्वयं को बादशाह घोषित करके आगरा कूच कर दिया!
उधर शाहशुजा भी औरंगजेब पर विश्वास नहीं कर पा रहा था इसलिए वह अभियान पूरा किए बिना ही बंगाल के लिए रवाना हो गया। जब औरंगज़ेब को ज्ञात हुआ कि शाहशुजा अपनी सेनाएं लेकर बंगाल के लिए लौट रहा है, तब वह बहुत झल्लाया। औरंगजेब चाहता था कि शाहशुजा शाही सेना के साथ-साथ महाराजा जयसिंह तथा जसवंतसिंह की सेनाओं को बनारस में ही उलझाए रखे ताकि औरंगज़ेब आसानी से आगरा तक पहुँच जाए किंतु शाहशुजा ने औरंगज़ेब की योजना पर पानी फेर दिया था।
हालांकि औरंगज़ेब तथा मुरादबक्श दोनों ने शाहशुजा को लिखे पत्रों में शाहशुजा को हिन्दुस्तान का अगला बादशाह कहकर सम्बोधित किया था किंतु जिस समय शाहशुजा की सेनाएं बनारस में शाही सेनाओं से युद्ध कर रही थीं, तब कुछ ऐसे समाचार मिले कि शाहशुजा आसानी से दारा को परास्त कर देगा। अतः मुरादबक्श चिंता में पड़ गया।
मुरादबक्श ने अपनी पहले से तय नीति छोड़ दी तथा अपने वजीर अलीनकी का कत्ल करके स्वयं को गुजरात का बादशाह घोषित कर दिया तथा अपने नाम के सिक्के ढलवाए। वजीर अलीनकी, बादशाह शाहजहाँ तथा वली-ए-अहद दारा शिकोह का विश्वसनीय था। मुगलिया सल्तनत से वफादारी करने की कीमत उसे अपनी गर्दन देकर चुकानी पड़ी थी।
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मुराद को भरोसा था कि उसका मंझला भाई औरंगज़ेब एक फकीर तथा औलिया की जिंदगी बिताना चाहता है इसलिए उसे मुगलों के ताज और तख्त से कोई लेना-देना नहीं है। वह अवश्य ही मुराद बख्श को बादशाह स्वीकार कर लेगा। इसलिए मुराद एक ओर तो दक्षिण की तरफ से आ रही औरंगज़ेब की सेनाओं की टोह लेता रहा और दूसरी ओर स्वयं भी मंथर गति से आगे बढ़ता रहा। अंत में मुराद दिपालपुर में जाकर रुक गया।
यहीं पर औरंगज़ेब की सेनाएँ, मुराद की सेनाओं से आकर मिल गईं। दोनों भाई बगल में छुरियां लेकर बगलगीर हुए। औरंगज़ेब ने मुराद की बड़ी हौंसला अफजाई की तथा इस बात के लिए उसकी पीठ ठोकी कि उसने खुद को बादशाह घोषित कर दिया है। औरंगजेब ने मुराद को समझाया कि शाहशुजा तो वैसे भी काफिर दारा से हारकर बंगाल भाग गया है और हारा हुआ शहजादा बादशाह कैसे बन सकता है! इसलिए अब बादशाह बनने के लिए केवल मुराद बख्श ही सबसे प्रबल दावेदार है।
राज्य के लालची मुराद को औरंगज़ेब की बातों से बड़ी तसल्ली पहंुची। मुराद को औरंगज़ेब के हाथ की तस्बीह और माथे पर रखी हुई नमाजी टोपी दिखाई देती थी किंतु औरंगज़ेब की आँखों में भरी हुई मक्कारी और दिल में भरे हुए नफरत के शोले नहीं दिखते थे।
मुराद बख्श सपने में भी नहीं सोच सकता था कि विनम्रता का अवतार बना हुआ कपटी औरंगज़ेब पहले तो मुराद का उपयोग दारा शिकोह के विरुद्ध करेगा और उसके बाद मुराद को भी उसी जहन्नुम में पहुँचा देगा जहाँ वह आज तक अपने दुश्मनों को पहुँचाता आया था।
जब राजधानी में बैठे दारा शिकोह ने सुना कि दोनों बागी शाहजादों की सेनाएँ दिपालपुर में आकर मिल गई हैं तो दारा ने बादशाह से फरमान जारी करवाया कि मारवाड़ नरेश जसवन्तसिंह अपनी सेनाएं लेकर बनारस से सीधे ही दिपालपुर की तरफ बढ़ें और उज्जैन में क्षिप्रा के उत्तरी तट पर रुककर औरंगज़ेब और मुराद की सेनाओं को आगे बढ़ने से रोकें।
बादशाह का आदेश पाते ही महाराजा जसवंतसिंह ने अपनी सेनाओं का मुँह उज्जैन की तरफ मोड़ दिया।
उधर महाराजा जसवंतसिंह ने उज्जैन की राह ली और इधर वली-ए-अहद दारा शिकोह ने शहजादे सुलेमान शिकोह तथा मिर्जाराजा जयसिंह को जल्द से जल्द आगरा पहुंचने के आदेश दुबारा भिजवाए। शाही फरमान मिलने के बाद शहजादा सुलेमान तथा मिर्जाराजा जयसिंह ताबड़-तोड़ चलते हुए आगरा की तरफ बढ़ने लगे।
इस बीच दारा ने आगरा में मौजूद शाही सेना का एक हिस्सा आगरा के समस्त बाहरी दरवाजों पर तैनात कर दिया तथा शेष सेना को कासिम खाँ की अगुआई में उज्जैन की तरफ रवाना किया ताकि वह महाराजा जसवंतसिंह की सहायता कर सके। अगली कड़ी में देखिए- बूढ़ा शाहजहाँ दारा शिकोह और जहाँआरा से भी डर गया!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता