भारतीय तंत्रशास्त्र में भैरवी साधना का रहस्य बताया गया है। इसे बड़ी साधना माना जाता है। तांत्रिक मत के अनुसार ऋग्वेद में सांकेतिक रूप से पंच-चक्रों का उल्लेख हुआ है। इन्हीं पंच-चक्रों में से एक है- भैरवी चक्र। भैरवी चक्र दो प्रकार के होते हैं, एक है चीनाचारा चक्र और दूसरा है शैवमतीय चक्र। चक्र-पूजा हिमालय पर्वत में स्थित चीनाचारा से आरम्भ हुई। यहाँ चीन से आशय हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में स्थित एक गांव से है। बहुत काल बाद में चक्रपूजा के साथ पञ्च-चक्रों के अनुकरण में पंच-मकारों को जोड़ा गया।
वामर्माग में पंचमकारों- मद्य, मीन, मांस, मैथुन तथा मुद्रा के माध्यम से साधक की उन्नति का मार्ग ढूंढा गया तथा तंत्र-मंत्र और यंत्र के बल पर सिद्धियों की कामना की गई। इस मत में भैरवी साधना जैसी अनेक साधना पद्धितियों का निर्माण किया गया जिनमें साधक को भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना अनिवार्य था।
तंत्र शास्त्र के अनुसार भैरवी के दस प्रकार हैं। तांत्रिक मतों के अनुसार जब भगवान शिव ने दक्ष के यज्ञ में अपना अपमान होते हुए देखा तो शिव वहाँ से जाने लगे। इस पर सती ने दस शरीर धारण करके दसों दिशाओं में शिवजी के जाने का मार्ग अवरुद्ध कर दिया।
इन्हें दशविद्या कहा जाता है। यही दस भैरवियां हैं। इनमें से पाताल भैरवी, शमशान भैरवी तथा त्रिपुर भैरवी अधिक प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त कौलेश भैरवी, रुद्र भैरवी, नित्य भैरवी, चैतन्य भैरवी आदि भी होती हैं। इन सबके ध्यान और पूजन की विधियां अलग-अलग हैं ।
तंत्र सधाना में दीक्षा लेने वाली हर स्त्री को भैरवी कहा जाता है जिसका अर्थ होता है- माँ, शक्ति, शिव की संगिनी। तंत्र ग्रंथों में भगवान शिव भी माँ पार्वती को भैरवी कहकर ही पुकारते हैं। कोई भी तंत्रमार्गी स्त्री ‘भैरवी’ और पुरुष ‘भैरव’ कहकर सम्बोधित किया जाता है।
सनातन मान्यता के अनुसार गुरु-शिष्या के बीच विवाह नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, एक ही गुरु से दीक्षित स्त्री-पुरुष परस्पर विवाह नहीं कर सकते क्योंकि वे गुरु भाई और गुरु बहन होते हैं किंतु कौल मत के अनुसार स्त्री-पुरुष के धर्म-गुरु अलग होने से गृहस्थी में तनाव रह सकता है।
इसलिए कौल मार्गियों ने दो विपरीत नियमों को स्वीकार किया। पहला यह कि एक गुरु के शिष्य एवं शिष्याएं आपस में विवाह कर सकते हैं। दूसरा यह कि गुरु भी अपनी शिष्याओं से विवाह कर सकता है।
तंत्र साधना की कुछ मर्यादाएं निश्चित की गईं जिनकी पालना प्रत्येक साधक को करनी अनिवार्य थी। इस मत के अनुसार भैरवी ‘शक्ति’ का ही एक रूप होती है। तंत्र की सम्पूर्ण भावभूमि ‘शक्ति’ पर आधारित है। इस साधना के माध्यम से साधक को इस तथ्य का साक्षात् कराया जाता है कि स्त्री केवल वासनापूर्ति का माध्यम नहीं, वरन् शक्ति का उद्गम भी होती है।
शक्ति प्राप्ति की यह क्रिया केवल सदगुरु ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते हैं, क्योंकि उन्हें ही अपने किसी शिष्य की भावनाओं एवं संवेदनाओं का ज्ञान होता है। इसी कारण तंत्र के क्षेत्र में स्त्री समागम के साथ-साथ गुरु के मार्गदर्शन की अत्यंत आवश्यकता पड़ती थी।
शक्ति उपासकों के वाम मार्गी मत में पहले मद्य को स्थान मिला। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। बाद में इसके भी दो हिस्से हो गए। जो साधक मद्य और माँस का सेवन करते थे, उन्हें साधारण-तान्त्रिक कहा जाता था।
मद्य और माँस के साथ-साथ मीन, मुद्रा, मैथुन आदि पाँच मकारों का सेवन करने वाले तांत्रिकों को सिद्ध-तान्त्रिक कहा जाता था।
साधारण-तान्त्रिक एवं सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा ब्रह्म को पाने का प्रयास करते थे किंतु जन-साधारण इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा।
पाँच मकारों के द्वारा अधिक से अधिक ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुण्डलिनी जागरण में प्रयुक्त किया जाता था।
कुन्डलिनी जागरण करके सहस्र-दल का भेदन किया जाता था और दसवें द्वार को खोलकर सृष्टि के रहस्यों को समझा जाता था। इस प्रकार वाम साधना में काम-भाव का समुचित प्रयोग करके ब्रह्म की प्राप्ति की जाती थी।
भैरवी साधना में कई भेद हैं। प्रथम प्रकार की साधना में स्त्री और पुरुष निर्वस्त्र होकर एक दूसरे से तीन फुट की दूरी पर आमने सामने बैठ कर, एक दूसरे की आँखों में देखते हुए शक्ति मंत्रों का जाप करते हैं।
लगातार ऐसा करते रहने से साधक के अन्दर का काम-भाव ऊर्ध्वमुखी होकर उर्जा के रूप में सहस्र-दल का भेदन करता है।
वहीं अन्तिम चरण में स्त्री और पुरुष सम्भोग करते हुए, स्वयं को नियंत्रण में रखते हैं। दोनों ही शक्ति-मंत्रों का जाप करते हैं और प्रयास करते हैं की स्खलन न हो।
पुरुष के लिए स्खलन पूर्णतः वर्जित होता है क्योंकि स्खलन से उसकी शक्ति नष्ट हो जाती है। यदि यह आरम्भिक चरणों में हो जाए तो पुरुष साधक की शक्ति का कम ह्रास होता है किंतु साधना के मध्य अथवा अंतिम चरणों में ऐसा हो तो साधन की शक्ति नष्ट हो जाती है तथा साधाना भंग हो जाती है।
एक चक्र के भेदन के बाद ऐसा होने पर बहुत हानि नहीं होती परन्तु किसी चक्र के पास पहुंचकर स्खलन होने पर शक्ति का क्षरण होता है।
इस प्रक्रिया में गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जब काम का आवेग चढ़ता है तो साधक उसे नियंत्रित नहीं कर सकता है। अतः गुरु ही साधक को बताता है कि कैसे उसे नियंत्रित करके ऊपर की और मोड़ा जाए।
इसमें भैरवी का स्खलन होने पर भी, साधक की साधना पर बहुत अंतर नहीं पड़ता क्योंकि साधक को प्राप्त होने वाली शक्ति भैरवी के माध्यम से ही प्राप्त होती है, अतः भैरवी स्वयं सिद्ध होती जाती है।
सहस्र-दल का भेदन करने के लिए आज तक जितने भी प्रयोग हुए हैं, उन सभी प्रयोगों में इसे सबसे अनूठा माना जाता है।
ऐसे साधक को साधना के तुरन्त बाद दिव्य ध्वनियाँ एवं ब्रह्माण्ड में गूंज रहे दिव्य मंत्र सुनाई पड़ते हैं। साधक को दिव्य प्रकाश दिखाई देता है। साधक के मन में कई महीनों तक दुबारा काम-भाव की उत्पत्ति नहीं होती।
प्रत्येक साधना में कोई न कोई कठिनाई अवश्य होती है, उसी प्रकार इस साधना में स्वयं पर नियंत्रण रखना सबसे बड़ी कठिनाई है।
धीरे-धीरे भैरवी-साधना, काम-वासना पूर्ति का माध्यम बन कर रह गई। साधक गण, सहस्र-दल भेदन को भूल गए और परम पिता-परमात्मा को भी। इस कारण भैरवी-साधना व्यभिचार-साधना बन गई।
तांत्रिकों की मान्यता है कि जब तक साधक के पास सही मंत्र एवं दीक्षा नहीं होगी, तब तक साधक चाहे कितना भी अभ्यास करे भैरवी साधना का रहस्य बताया जानना असंभव है। भैरवी-तंत्र के अनुसार भैरवी ही गुरु है और गुरु ही भैरवी का रूप है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता