Saturday, July 27, 2024
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39. प्लावन

कुभा, सुवास्तु क्रुमु, तथा गोमती आदि नदी-तटों को पीछे छोड़कर चतुरंगिणी पुनः सिंधु-नद के तट पर लौट आयी। असुरों के विरुद्ध उसका अभियान पूरा हो गया था। अधिकांश असुर अपना क्षेत्र छोड़कर पर्वतों के उस पार पलायन कर गये थे। कुछ असुर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष युद्धों में मारे भी गये थे। सिंधुनद के तट से चतुरंगिणी ने परुष्णि के लिये मार्ग न पकड़ कर सिंधु-नद के साथ-साथ दक्षिण दिशा में चलना आरंभ किया। इस मार्ग में सैंधवों के कई पुर स्थित हैं। आर्यों का अनुमान था कि सैंधव उनका स्वागत नहीं करेंगे तो प्रतिरोध भी नहीं कर सकेंगे। जब चतुरंगिणी ने लघु सैंधव पुरों को जा घेरा तो आर्यों का अनुमान सत्य सिद्ध हुआ। सैंधवों ने शस्त्र उठाने के स्थान पर चतुरंगिणी को औत्सुक्य, भय और चिंता के साथ देखा। क्या चाहते हैं शत्रु आर्य!

सैंधवों ने अब से पहले केवल असुर सैनिकों को देखा था। महिष और उष्ट्र पर आरूढ़ असुरों के दल बिना किसी पूर्व सूचना के सैंधव पुरों में प्रवेश कर जाते थे तथा तब तक संतुष्ट नहीं होते थे जब तक मद्य, आसव और मज्जा यथेष्ट मात्रा में नहीं पा जाते थे। यह प्रथम अवसर था जब वे आर्य सैन्य को देख रहे थे। यह भी प्रथम अवसर था जब वे किसी सैन्य को कुछ भी नहीं मांगते हुए देख रहे थे। इतना ही नहीं सैंधवों के लिये तो यह भी प्रथम अवसर था कि वे किसी सैन्य को महिष, वृषभ अथवा उष्ट्र पर आरूढ़ न देखकर बिल्कुल नये प्राणी ‘अश्व’ पर देख रहे थे।

‘अश्व’ नामक नवीन पशु पर बैठकर आने वाली आर्य सेना सैंधवों के लिये हर प्रकार से विचित्र थी। ‘हस्ति’ सैंधव क्षेत्र के वनों में प्रचुर संख्या में थे किंतु वे केवल भार वहन के काम आते थे। सैंधवों ने हस्तियों को इस नवीन भूमिका में प्रथम बार ही देखा था। आर्यों के रथ बहुत कुछ उनके शकटों जैसे थे किंतु इन रथों को देखकर सैंधवों को भय लगता था। जहाँ सैंधवों और असुरों के शकट काष्ठ निर्मित थे, वहीं आर्यों के रथ कृष्णायस निर्मित थे। आर्यों के अस्त्र-शस्त्र भी असुरों के अस्त्र-शस्त्रों की अपेक्षा अधिक बड़े और अधिक भय उत्पन्न करने वाले थे। एक और विचित्र बात भी थी जो सैंधवों ने आश्चर्य के साथ देखी, कोई भी आर्य सैनिक अपने शीश पर शृंग धारण नहीं किये हुए था।

जब चतुरंगिणी ने सैंधवों के किसी भी पुर में बलपूर्वक प्रवेश नहीं किया, न ही किसी तरह का आक्रमण किया और न ही असुरों की तरह किसी तरह की मांग रखी तो सैंधवों के आश्चर्य का पार न रहा। उन्हें समझ में नहीं आया कि जिन आर्यों को वे कठिन शत्रु मानते आये हैं, वे आर्य किसी तरह का शत्रु भाव न रख कर केवल मैत्री का संदेश देने उनके पुर तक क्यों आये हैं! और संदेश भी कैसा, लेश मात्र भी समझ में नहीं आने वाला। वास्तव में ये आर्य चाहते क्या हैं सैंधवों से!

सिंधु के दीर्घ तटों पर स्थित सैंधव-पुरों को चतुरंगिणी एक ही संदेश देती चली जा रही है- आर्यों ने असुरों को पर्वत पार के विकट मरुस्थल में धकेल दिया है। असुरों की संस्कृति हेय है, वह अनुसरण करने योग्य नहीं है। सैंधव-जन असुरों की विकृत संस्कृति का अनुसरण न करें। अन्यथा वे भी शनैः-शनैः असुर सभ्यता में विलीन हो जायेंगे। जिस उच्च संस्कृति का निर्माण उनके पूर्वजों ने किया है उसकी रक्षा करें। नग्न स्त्रियों की प्रतिमाओं को पूजना बंद करें, मांस तथा मदिरा का सेवन बंद करें। देव प्रतिमाओं को पशु-पक्षियों की बलि चढ़ाना बंद करें तथा अनाचार के स्थान पर सदाचार को अपनायें। सैंधव-जन आर्यों के इस संदेश को समझें और उस पर आचरण करें। अन्यथा यह विशाल चतुरंगिणी उन्हें भी असुरों की भांति मरुस्थल में धकेल देगी।

क्यों चाहते हैं आर्य ऐसा! शताब्दियों से सैंधव असुरों से ही मित्रभाव मानते और रखते आये हैं। इन्हीं आर्यों ने उनकी प्राचीन राजधानी कालीबंगा का पुर तोड़ा था। इतने अंतराल पश्चात् यह मित्रता कैसी! यह संदेश कैसा! कहीं न कहीं, कुछ न कुछ और भी अभिप्रेत है जिसे आर्य स्पष्ट रूप से नहीं बता रहे। चकित सैंधव आर्यों के संदेश को न तो स्वीकार कर पाते हैं और न अस्वीकार। नितांत मौन रहकर केवल आगे जाती हुई चतुरंगिणी को शंकित हृदय से विदाई देते हैं। आर्य सैन्य भी उनकी स्वीकरोक्ति की प्रतीक्षा किये बिना आगे बढ़ जाता है। आर्य सैन्य का अभीष्ट तो बस यही है कि यह संदेश अधिक से अधिक सैंधव पुरों तक पहुँचे।

सेनप सुनील ने अनुभव किया कि भले ही सैंधव आर्यो की चतुरंगिणी को चकित, शंकित और भयभीत दृष्टि से देख रहे हैं, भले ही यह यात्रा असुरों पर किये गये अभियान जैसी आक्रामक नहीं है किंतु यह भी उतनी ही उपयोगी सिद्ध हो रही है जितना कि असुरों के विरुद्ध किया गया अभियान। निःसंदेह राजन् सुरथ की दृष्टि दूर भविष्य में भी जाती है। उन्होंने ही असुर भूमि से लौटते हुए प्रस्ताव किया था कि पुनः लौटने से पहले सिंधु-तटों पर स्थित पुरों की यात्रा की जाये। जबकि आर्य सैनिक अपने जन को लौटने के लिये उतावले हो रहे थे।कितने प्रभावी ढंग से तब राजन् सुरथ ने आर्यवीरों को इस यात्रा के महत्व और उसकी आवश्यकता को समझाया था-द्रविड़ों से सम्पर्क करना आवश्यक है। वे दीर्घ काल से असुरों के प्रति मित्रभाव और आर्यों के प्रति शत्रु भाव रखते आये हैं। असुरों के ही समान वे सिर पर शृंग धारण करते हैं, निर्वस्त्र प्रतिमायें बनाकर उनकी पूजा करते हैं, मांस तथा मद्य का सेवन करते हैं, देव-प्रतिमाओं को पशु-पक्षियों की बलि चढ़ाते हैं, शिश्न और योनि पूजन करते हैं। धीरे-धीरे वे स्वयं भी असुर होते जाते रहे हैं। आज वे युद्ध से उदासीन हैं किंतु कालांतर में वे असुरों के प्रभाव से आर्यों के विरुद्ध आक्रामक भी हो सकते हैं। असुरों और सैंधवों की संगठित शक्ति का सामना करना आर्यों के लिये अत्यंत कठिन होगा।

ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा, सेनप सुनील, आर्य अतिरथ, आर्य सुमति तथा अन्य प्रमुख आर्य वीरों ने समिति आयोजित कर राजन् सुरथ की योजना पर विस्तार से विचार विमर्श किया। उन्हें लगा कि राजन् सुरथ का प्रस्ताव हर तरह से उचित है। उन सब की भी बड़ी इच्छा थी कि वे उस द्रविड़ सभ्यता को अपनी आँखों से देखें जिसकी उन्नत पुर व्यवस्था का वर्णन वे शैशव काल से सुनते आये हैं। केवल एक ही बाधा उन्हें इस कार्य में दिखायी देती थी कि चतुरंगिणी को लम्बी यात्रा करनी पड़ेगी। इस बीच में पिशाचों के क्षेत्र भी मिल सकते हैं। यदि पिशाचों से भेंट हुई तो उनसे भी निबटना अनिवार्य होगा किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ था। सिंधु तट पर स्थित पुरों के मध्य पणि-सार्थों के निरंतर आवागमन से बने मार्ग के कारण चतुरंगिणी को इस यात्रा में अपेक्षाकृत बहुत कम समय लगा। पिशाचों के क्षेत्र सिंधु से कुछ हटकर थे इससे आर्यों को उनसे भी नहीं उलझना पड़ा।

विचारों में डूबे राजन् सुरथ अश्व को पूरे वेग से फैंकते हुए अपने साथियों से बहुत आगे निकल आये हैं। केवल सेनप सुनील ही किसी तरह अपने अश्व को उनके पीछे लगाये हुए हैं। राजन् सुरथ के साथ सदैव यही होता है, जब भी वे विचारों की धारा में बहते हैं तो उन्हें अपने आस-पास का भान ही नहीं रहता। यह यात्रा इतनी महत्वपूर्ण सिद्ध होगी, इसका अनुमान तो स्वयं उन्हें भी नहीं था। अच्छा हुआ जो सैंधव-क्षेत्र की यात्रा का निर्णय ले लिया अन्यथा यदि एक बार चतुरंगिणी परुष्णि के तट पर पहुँच जाती तो उसे पुनः संगठित कर सिंधु तट तक लाना विपुल कठिन होता। राजन् सुरथ को प्रजापति मनु का स्मरण बारम्बार हो आता है। इन्हीं सब कठिनाइयों के मध्य वैवस्वत मनु ने प्रजा को संगठित किया होगा!

अश्व पर बैठे-बैठे पीठ दुखने लगी तो आर्य सुरथ ने घने वृक्ष के नीचे अश्व को रोक लिया और नीचे उतर कर वृक्ष के तने से पीठ लगाकर बैठ गये। उन्होंने देखा कि भगवान् भुवन भास्कर पश्चिम दिशा में नीचे झुक गये हैं, संध्या होने में अभी विलम्ब है किंतु आकाश में श्यामवर्णी मेघों के संचरण के कारण अंधेरा समय से पूर्व ही घिर आया है।

  – ‘राजन्। हमारे स्पश की सूचना के अनुसार सैंधवों के दक्षिण प्रदेश की राजधानी मेलुह्ह यहाँ से निकट ही है।’ सेनप सुनील भी राजन् सुरथ के साथ अपने अश्व से उतर पड़े।

मेलुह्ह! चैंक पड़े राजन् सुरथ। सैंधवों की राजधानी मेलुह्ह! इसी नगर को तो लौट रहा था शिल्पी प्रतनु! उस दिन जिससे निर्जन वन में अचानक भेंट हुई थी। मेलुह्ह का नाम सुनकर अचानक उस निर्वस्त्र शिल्पी का स्मरण हो आया राजन् सुरथ को। क्या हुआ होगा उस सैंधव युवक का! क्या उसने पुरोहित किलात से प्रतिशोध ले लिया होगा! क्या उसे नृत्यांगना प्राप्त हो गयी होगी! क्या उस शिल्पी से उनकी पुनः भेंट हो सकेगी! क्या उस विलक्षण नृत्यांगना से भी मिलना हो सकेगा! कैसी होगी वह सैंधव नृत्यांगना जिसका विशद वर्णन उस शिल्पी ने किया था! रोमांच की एक लहर सी दौड़ गयी राजन् सुरथ की देह में।

  – ‘कितने समय में हम वहाँ पहुँच सकते हैं ?’

  – ‘संभवतः कल मध्याह्न के पश्चात किसी भी समय।’

  – ‘फिर आज का पड़ाव, वह कितनी दूर है अभी!’

  – ‘अधिक दूर नहीं है राजन्। हम रात्रि शिविर के ठीक निकट पहुँच गये हैं। हमारे स्पश और सैनिकों की अग्रिम टुकड़ी का ध्वज अश्व पर चढ़कर देखने से दिखायी दे रहा है।’

  – ‘ठीक है। कल प्रातः हम किंचित् शीघ्र प्रस्थान करेंगे ताकि सूर्यास्त से पूर्व मेलुह्ह पहुँच जायें।’ आर्य सुरथ ने अपने स्थान से उठते हुए कहा।

अश्व पर पुनः आरूढ़ होते हुए राजन् सुरथ ने देखा कि कृष्णवर्णी सघन जलद आकाश में चारों ओर से घिर आये हैं। ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने कई माह पहले ही आज की तिथि निश्चित कर रखी है, जिस दिन सूर्य को छठे नक्षत्र ‘आद्र्रा’ में प्रवेश करना है। अतः संध्या के पश्चात् किसी भी समय वर्षा होगी। ऋषिश्रेष्ठ के अनुसार इस बार अधिकतर नक्षत्रों का योग वर्षाकारक है। अतः विपुल वर्षा होना संभावित है।

इससे पहले कि चतुरंगिणी अपने शिविर में पहुँचती, वर्षा आरंभ हो गयी। थोड़ी देर में चारों ओर जल ही जल दिखाई देने लगा। लगता था पूरा का पूरा समुद्र मेघों पर आरूढ़ होकर आकाश तक चढ़ आया है। वर्षा के कारण कोई नहीं सो सका। दो प्रहर रात्रि व्यतीत होने के पश्चात् आकाश से गिरती जल धारायें हिमवृष्टि में बदल गयीं। विकट शीत हो जाने से सैनिकों के दाँत किटकिटाने लगे। मनुष्य तो मनुष्य चतुरंगिणी के अश्व और हस्ति भी विचलित हो गये। इससे पहले चतुरंगिणी को इतनी विकट वर्षा का समना नहीं करना पड़ा था।

 रात्रि के तीसरे प्रहर में सेनप सुनील ने राजन् सुरथ के शिविर में प्रवेश किया- ‘असमय व्यवधान के लिये क्षमा करें राजन्! स्पश सूचना लाया है कि सिंधु का जल तीव्र गति से ऊपर उठ रहा है। कदाचित प्लावन होने को है। हमें सावधान रहना होगा।’

  – ‘प्लावन! इस समय सिंधु में प्लावन हुआ तो बहुत विनाशकारी होगा आर्य। यह तो सम्पूर्ण चतुरंगिणी को नष्ट कर देगा। हमारे सैनिक, अश्व और हस्ति बह जायेंगे। रथ एवंअस्त्र-शस्त्र नष्ट हो जायेंगे।’ सेनप सुनील की बात सुनकर सन्न रह गये सुरथ। वे तो केवल वृष्टि के सम्बन्ध में ही चिंता करते रहे थे, प्लावन की ओर तो उनका ध्यान ही नहीं गया था।

  – ‘इस विकट परिस्थिति में हमारे लिये क्या आदेश है राजन् ?’

  – ‘क्या ऋषिश्रेष्ठ को सूचित किया है आर्य! ‘

  – ‘हाँ, उन्हें सूचना दी जा चुकी है।’

  – ‘क्या कहते हैं ऋषिश्रेष्ठ ?’

  – ‘उन्होंने मुझे आपको सूचित करने के लिये कहा है।’

  – ‘ठीक है। समस्त सैनिकों को सावधान करें और जितनी शीघ्रता संभव हो, उतनी शीघ्रता के साथ सिंधु तट से दूर हटना आरंभ करें। सैनिकों से कहें कि शिविर को इसी तरह लगा रहने दें। केवल पशुओं, रथों और अस्त्र-शस्त्रों को अपने साथ लें।’

चतुरंगिणी ने सिंधु तट से दूर खिसकना आरंभ किया ही था कि वृष्टि बंद हो गयी। यह रात्रि का अंतिम प्रहर था। सूर्योदय होने तक आर्य वाहिनी सिंधु तट से कुछ दूरी पर स्थित एक ऊँचे और विशाल टीले पर पहुँच गयी। इस बीच अवकाश पाकर सैन्य ने तट से शिविर भी हटा लिया।

यद्यपि वृष्टि बंद हो गयी किंतु सिंधु के जलस्तर में वृद्धि होती रही। जान पड़ता था कि सिंधु के उद्गम पर अथवा सिंधु की किसी सहायक नदी में वर्षा का विपुल जल आने से सिंधु में प्लावन आया था। उचित समय पर निर्णय लिया था राजन् सुरथ ने। मध्याह्न होने तक ‘सिंधु’ नद अथवा नदी न रहकर जलधि में परिवर्तित हो गयी। ऊँचे स्तूप पर स्थित चतुरंगिणी चारों ओर जल से घिर गयी। यह एक सुखद संयोग ही था कि आर्यों को इतना ऊँचा और विशाल बालुका स्तूप मिल गया था अन्यथा इस प्लावन में उनका नष्ट हो जाना निश्चित था।

जहाँ तक दृष्टि जाती थी, वहाँ तक केवल जल ही जल दिखायी देता था। आगे बढ़ना तब तक के लिये असंभव हो गया जब तक अग्नि वरुण को परास्त न कर दे। राजन् सुरथ को लगा वरुण ने कुछ दिनों के लिये चतुरंगिणी को बंदी बना लिया है।

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