एक बार विद्या, ब्राह्मण से बोली- मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हारी निधि हूँ। दोष खोजने वाले, टेढ़े स्वभाव वाले, असंयमी, ईर्ष्यालु को मुझे मत सौंपो। कुछ ऐसा करो जिससे मैं वीर्यवती बनूँ। मुझे बुद्धिमान मनुष्यों को प्रदान करो, जिससे मैं तेजस्वनी बनूँ।
– निरुक्त-2, 2.
ऋग्वैदिक आर्यों ने भारत में शिक्षा की नींव डाली। उन्होंने वैदिक ऋचाओं के माध्यम से ज्ञान को आगे बढ़ाया। आर्यों ने वैदिक शिक्षा का काम मौखिक परम्परा से आगे बढ़ाया। जब समाज के कुलीन लोगों ने शिक्षा को मानव जीवन का महत्वपूर्ण अंग समझना आरम्भ किया तो बच्चों के लिए शिक्षा का प्रबंध किया गया।
ऋषियों ने राज-परिवारों एवं श्रेष्ठि-परिवारों को समझाया कि वैभव-युक्त प्रासादों में जीवन व्यतीत करने वाले बालकों को जीवन की सच्चाईयों एवं कठोरताओं का वास्तविक ज्ञान नहीं हो सकता, न ही उनमें परिश्रम के प्रति सम्मान उत्पन्न हो सकता है। इसलिए उन्हें राज-प्रासादों एवं श्रेष्ठि-प्रासादों से दूर जंगलों में स्थित ऋषि-आश्रमों में भेजा जाता था जो आगे चलकर गुरुकुल कहलाए।
वैदिक भारत में शिक्षा व्यवस्था
शिक्षा का उद्देश्य
प्राचीन भारत में शिक्षा प्रणाली का आरम्भ बालक के सम्पूर्ण विकास एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ था, न कि रोजगार प्राप्ति के लिए। इस कारण प्राचीन भारत में शिक्षा का स्वरूप व्यावसायिक नहीं था। इस काल में शिक्षा का उद्देश्य परम तत्त्व की प्राप्ति अर्थात् सत्य की खोज करना था। इस कारण भारतीय शिक्षा का मूल आधार आस्था, विश्वास, विनय एवं अभ्यास पर टिका हुआ था।
शिक्षा का माध्यम देवभाषा संस्कृत थी जिसमें सम्पूर्ण धार्मिक एवं लौकिक ज्ञान उपलब्ध कराया जाता था। ब्राह्मण कन्याएं अपने पिता के आश्रय में ज्ञान प्राप्त करती थीं। उन्हें भी हवन एवं अनुष्ठान आदि करना सिखाया जाता था। राजपुत्रियां राजप्रासादों में शिक्षा प्राप्त करती थीं तथा उन्हें राजकुमारों के समान घुड़सवारी, रथ संचालन, धनुर्विद्या और तलवार चलाना सिखाया जाता था।
बड़े श्रेष्ठियों की पुत्रियां घर पर रहकर विभिन्न कलाओं का ज्ञान प्राप्त करती थीं। उन्हें नारी जीवन को सुखमय बनाने का ज्ञान दिया जाता था।
गुरु-कुल
एक स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत समाज की शिक्षा का दायित्व ऋषि-मुनियों ने अपने ऊपर ले लिया था, इस कारण राज्य की ओर से बालकों की शिक्षा के लिए किसी प्रकार की संस्थाओं का प्रबंध नहीं किया जाता था। शिक्षा पूर्णतः निःशुल्क एवं स्वतंत्र थी। राजा भी गुरुकुल की व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करता था।
कुछ राजाओं, सामंतों, श्रेष्ठियों एवं जनसामान्य द्वारा जंगलों में स्थित गुरुकुलों को गौ, अन्न, वस्त्र आदि संसाधन उपलब्ध कराए जाते थे ताकि गुरुकुलों में अध्ययनरत बालकों के भोजन एवं वस्त्र आदि का प्रबंध ऋषियों अथवा ऋषि-पत्नियों को नहीं करना पड़े।
गुरु-कुल का जीवन
ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य बालक उपनयन संस्कार के पश्चात् सामान्यतः 12 से 16 वर्ष तक आचार्य-कुल में निवास करते थे और वहाँ ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते हुए शिक्षा प्राप्त करते थे। आचार्य-कुल में रहते हुए वे तप एवं साधना का जीवन बिताते थे और विद्याध्ययन में तत्त्पर रहते थे। लिखने के साधनों का अभाव होने के कारण शिक्षा मौखिक रूप से दी जाती थी जिसे विद्यार्थी कण्ठस्थ कर लेते थे।
गुरुकुल प्रायः वनों में स्थित होते थे जहाँ ईंधन, कन्द, मूल, फल, पेड़ों की छाल आदि सुलभ होते थे। ब्रह्मचारी इनका भी संग्रहण करते थे। आचार्य-कुलों में गौ आदि पशु बड़ी संख्या में पाले जाते थे, जिनका पालन ब्रह्मचारियों अर्थात् विद्यार्थियों द्वारा किया जाता था। आचार्य-कुल की दुग्ध-घी सम्बन्धी आवश्यकता इन्हीं पशुओं से पूरी होती थी।
आचार्य-कुलों में ब्रह्मचारियों को पढ़ाने वाले शिक्षकों की अलग-अलग श्रेणी होती थी। गुरुकुल में सर्वोच्च स्थिति आचार्य की होती थी। उस के अनुशासन में गुरुकुल की समस्त व्यवस्था चलती थी। विद्यार्थी भिक्षाटन हेतु प्रतिदिन नगर में जाते थे।
सत्यकाम जाबाल शिक्षा प्राप्ति के लिए आचार्य हारिद्रुमत गौतम के कुल में अंतेवासी बनकर रहा। आचार्य ने उसका उपनयन संस्कार किया तथा उसे चार सौ दुर्बल गाएं देकर कहा कि वह इन गौओं का अनुसरण करे तथा तब तक इनकी संख्या एक सहस्र न हो जाए, तब तक आचार्य-कुल में मत लौटना। सत्यकाम जाबाल ने गुरु के आदेश का अक्षरशः पालन किया।
जब सत्यकाम जाबाल अपनी शिक्षा पूरी करके स्वयं आचार्य बना तब उसके कुल में उपकोसल कामलायन ने शिक्षार्थी के रूप में 12 वर्ष ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन व्यतीत किया था। इस अवधि में उसने निरंतर अपने आचार्य की अग्नियों की परिचर्या सम्पन्न की थी। आचार्य-कुल की अग्निचर्या धार्मिक कृत्य मानी जाती थी।
उत्तरवैदिक-काल में शिक्षा
उत्तरवैदिक-काल में शिक्षा के विषय
उत्तरवैदिक-काल में गुरुकुलों को आचार्य-कुल कहा जाने लगा। छान्दोग्य उपनिषद् में उन विषयों की जानकारी है जिनका अध्ययन-अध्यापन उत्तरवैदिक आचार्य-कुलों में होता था।
उस काल में विद्यार्थी को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, वेदांग, उपनिषद, कर्मकाण्ड, आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिल्पवेद, योग, व्याकरण, पितृविद्या, राशिविद्या (गणित), देवविद्या, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या (ज्योतिष), सर्पविद्या, देवजन विद्या और पुराण आदि का अध्ययन करवाया जाता था।
वात्स्यायन ने 64 विद्याओं का उल्लेख किया है। सनत्कुमार को अनेक विद्याओं का ज्ञान था।
बौद्धकाल में भी अनेक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इनमें वेद, वैदिक साहित्य, ब्राह्मण, संहिता, उपनिषद्, अर्थशास्त्र, शिल्प, वार्ता, दर्शन धर्म आदि प्रमुख थे। मौर्यकालीन लेखक कौटिल्य ने आन्वीक्षकी (तर्क और दर्शन), त्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और उनके ब्राह्मणादि), वार्ता (कृषि, पशु-पालन, चारा-भूमि, वाणिज्य-व्यापार) और दंडनीति (राजशास्त्र और शासन) का उल्लेख किया है।
गुप्तकालीन कवि कालीदास ने 14 विद्याओं का उल्लेख किया है जिनमें सांगोपांग वेद (चारों वेद एवं छः वेदांग), मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र का उल्लेख किया है। वेदांगों में छंद (पिंगलादि), मन्त्र, निरुक्त (शब्दों के अर्थ), ज्योतिष (गणित और फलित), व्याकरण और शिक्षा (उच्चारण) सम्मिलित थे। उनके साथ उपवेदों (धुनर्वेद, आयुर्वेद, गंधर्ववेद) का अध्ययन किया जाता था। पुराण, इतिहास एवं महाकाव्यों का अध्ययन किया जाता था। वेदों के अध्ययन के आधार पर ब्राह्मण द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, सामवेदी आदि कहलाते थे।
उत्तरवैदिक-काल में शिक्षक
उत्तवैदिक-काल में शिक्षकों की कई श्रेणियां बन गई थीं। मनुस्मृति के अनुसार जो द्विज, शिष्य का उपनयन संस्कार करके उसे वेद पढ़ाए और कल्प एवं वेदांग की उनके रहस्यों सहित शिक्षा दे, उसे ‘आचार्य’ कहते हैं। सम्पूर्ण आचार्य-कुल आचार्य के अधीन होता था, और वही वेद तथा कल्प का अध्यापन करता था। आचार्य के अधीन जो शिक्षक अध्यापन कार्य करते थे, वे ‘उपाध्याय’ कहलाते थे।
मनु के अनुसार जो द्विज वेद के एक देश (मंत्र तथा ब्राह्मण भाग) तथा वेदांगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छंदशास्त्र) का अध्यापन करे और उसके लिए वृत्ति (वेतन अथवा पारिश्रमिक) ग्रहण करे, वह ‘उपाध्याय’ कहलाता है। अर्थात् आचार्य-कुलों में कुछ शिक्षकों को नियमित वेतन पर भी नियुक्त किया जाता था।
प्रोक्त (शाखाग्रंथ, ब्राह्मण, और श्रौतसूत्र का विद्वान) साहित्य की शिक्षा देने वाला ‘प्रवक्ता’ अथवा ‘आख्याता’ कहलता था। वैज्ञानिक और लौकिक विषयों का ज्ञान प्रदान करने वाला ‘अध्यापक’ कहलाता था। ‘श्रोत्रिय’ वह अध्यापक था जो वेद की शाखाओं को कण्ठस्थ करके छात्रों को दीक्षा देता था। जो गृहस्थ विद्वान शिक्षा प्रदान करता था, उसे ‘गुरु’ कहते थे।
मनु के अनुसार जो ब्राह्मण शास्त्रानुसार गर्भाधान आदि संस्कारों को करता है, और अन्नादि के द्वारा अपने परिवार का पालन करतुा है, वह ‘गुरु’ है। आचार्यकुलों में ‘ऋत्विक’ भी होते थे जिनका कार्य विविध यज्ञों का अनुष्ठान कराना होता था।
जो ब्राह्मण वृत होकर (वरण-संकल्पपूर्वक पादपूजनादि कराकर) अग्न्याधान (आहवनीय आदि अग्नि को उत्पन्न करने का कर्म), पाकयज्ञ (अष्टकादि) और अग्निष्टोम आदि यज्ञ करता था, वह ‘ऋत्विक’ था। जो अध्यापक भ्रमण और यायावर का जीवन व्यतीत करते थे अर्थात् देश-देशांतर में घूम-घूमकर शिक्षा देते थे, उन्हें ‘चरक’ कहा जाता था।
उत्तरवैदिक-काल में छात्र
उत्तरवैदिक-काल में दो प्रकार के विद्यार्थियों की व्यवस्था थी। एक तो वे विद्यार्थी थे जो कुछ वर्षों तक गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे तथा शिक्षा समाप्ति के बाद गुरु को कुछ प्रदान करके अपने घर लौट जाते थे। उन्हें ‘उपकुर्वाण’ कहा जाता था। दूसरे प्रकार के शिष्य आजीवन आचार्यकुल में रहते थे। उन्हें नैष्ठिक कहा जाता था। ये कभी विवाह नहीं करते थे, न सन्यास ग्रहण करते थे।
वे अतन्द्रित होकर शरीर का त्याग करते थे और फिर इस लोक में जन्म नहीं लेते थे। पाणिनी ने दो प्रकार के छात्र बताए हैं- दण्डमाणव तथा अन्तेवासी। दण्डमाणव छात्र ज्ञान प्राप्त करने की प्रारम्भिक स्थिति में रहता था और अन्तेवासी उससे उत्कृष्ट कोटि में रहता था। माणवक उनपयन संस्कार के पश्चात् गुरु के समीप आता था जबकि अन्तेवासी मनसा, वाचा, कर्मणा आचार्य के समीप प्रारम्भ से रहता था।
बाद में शिष्यों की तीन श्रेणियां बन गईं। (1.) विद्याव्रत स्नातक: ये छात्र वेदाध्ययन के साथ-साथ वेद-वर्णित नियमों एवं व्रतों का पालन करते थे। इनका समाज में बहुत आदर था। (2.) विद्यास्नातक: ये छात्र वेद कठस्थ करने के पश्चात् व्रत करते थे। (3.) व्रत स्नातक: ये छात्र वेदों को कण्ठस्थ किए बिना व्रत करते थे।
उत्तरवैदिक-काल में विद्यार्थियों से शिक्षा के बदले में निर्धारित शुल्क भी लिया जाने लगा था। तक्षशिला के आचार्यकुलों में शिक्षा प्राप्त करने का शुल्क सामान्यतः एक हजार कर्षापण था। जो विद्यार्थी यह शुल्क दे सकते थे, वे आचार्य के घर में पुत्र की तरह पूरे आराम से रहते थे। उन्हें श्रम करने की आवश्यकता नहीं थी।
इस प्रकार शुल्क देकर शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को ‘आचारिय भागदायक’ कहा जाता था। जो विद्यार्थी निश्चित शुल्क नहीं दे सकते थे, वे दिन में काम किया करते थे और रात में पढ़ते थे। ऐसे विद्यार्थियों को ‘धम्मृन्तेवासिक’ कहा जाता था। तक्षशिला आने वाले निर्धन विद्यार्थियों को आचार्य की ओर से काम दिया जाता था जिसके बदले में प्राप्त वेतन से वे अपना खर्च स्वयं चलाते थे।
तीसरे प्रकार के विद्यार्थी न तो शुल्क देते थे और न दिन में काम करके रात की पढ़ाई से सन्तुष्ट होते थे। वे शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् गुरु का शुल्क चुकाते थे। ‘दूतजातक’ में एक निर्धन ब्राह्मण-पुत्र की कथा आती है जिसे शिक्षा प्राप्ति की बड़ी लालसा थी किन्तु वह ‘आचार्य भाग’ नहीं दे सकता था। अतः उसने वचन दिया कि शिक्षा समाप्ति के बाद वह ‘आचार्य भाग’ चुकाएगा। उसे ‘आचारिय भागदायक’ विद्यार्थियों की तरह रखा गया। शिक्षा पूर्ण होने के बाद उसने धनार्जन करके आचार्य का शुल्क चुकाया।
इत्सिंग ने बौद्ध विद्यार्थियों की दो श्रेणियां बताई हैं- (1.) माणव: वे विद्यार्थी जो भविष्य में संघ में दीक्षा लेते थे और (2.) ब्रह्मचारी: वे विद्यार्थी जो प्रव्रजित नहीं होना चाहते थे।
गुरु-शिष्य सम्बन्ध
विद्यार्थी को प्रायः12 से 16 वर्ष तक गुरु के आश्रम में रहना होता था। इस अवधि में गुरु-शिष्य के बीच बनने वाले सम्बन्धों में अपनत्व एवं विश्वास का सृजन होता था। उस युग में शिक्षक सदाचारी, त्यागी, विद्वान् तथा निराभिमानी होते थे। गुरु-शिष्य सम्बन्ध को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता था। शिष्य के लिए आचार्य ही पिता होता था और सावित्री (विद्या) उसकी माता होती थी।
कुछ ऋषियों के शिष्यों की संख्या हजारों में होती थी। दुर्वासा ऋषि जब कुरु-नरेश से मिलने के लिए गए तब उनके साथ दस हजार शिष्य थे। शिष्य का यह कृतव्य था कि वह अपने आचार्य को पितृतुल्य एवं मातृतुल्य माने तथा किसी भी अवस्था में उसके प्रति द्रोह न करे।
चंद्रगुप्त मौर्य ने आचार्य चाणक्य के आचार्य-कुल में रहकर शिक्षा ग्रहण की। बाद में आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त का भारत का सम्राट बनने का पथ-प्रशस्त किया तथा चंद्रगुप्त के मंत्री बनकर उसे राज्य चलाने में भी सहायता की। इस प्रकार गुरु-शिष्य सम्बन्ध आजीवन बने रहते थे।
चीनी यात्री इत्सिंग ने लिखा है- ‘शिष्य गुरु के पास रात्रि के पहले और अंतिम पहर में जाता है, उसके शरीर पर मालिश करता है, वस्त्र आदि संभाल कर रखता है। यदा-कदा गुरु के आवास और आंगन में झाड़ू लगाता है। फिर जल छानकर उसे पीने के लिए देता है। अपने से बड़े के प्रति इसी प्रकार आदर प्रदिर्शत किया जाता है। इसी प्रकार गुरु भी शिष्य के रोगग्रस्त हो जाने पर सेवा करता है, उसे औषध देता है और उसके साथ पितृवत् व्यवहार करता है।’
आचार्य अपने पुत्र और अंतेवासी को एक ही कोटि में रखता था। कालांतर में कभी-कभी गुरु अपनी पुत्रियों के लिए अपने शिष्यों में से पति चुन लेते थे।
यदि कोई शिष्य अपने गुरु के निर्देशों का पालन नहीं करता था या शिक्षा प्राप्ति में रुचि नहीं दर्शाता था तो गुरु उन्हें उपदेश तथा मधुर वचन से सुधारने का प्रयास करता था। हठी शिष्य को शारीरिक दण्ड भी दिया जाता था। कभी-कभी रज्जु या छड़ी से भी दण्डित किया जाता था किंतु कठोर दण्ड नहीं दिया जाता था। बौद्ध जातकों में उल्लेख है कि कुछ शिष्यों को कठोर दण्ड भी दिया गया था।
काशी के एक राजकुमार को चोरी करने की लत लग गई। बार-बार प्रयास करने पर भी जब वह नहीं सुधरा तो उसे कठोर शारीरिक दण्ड दिया गया। मनु ने उद्दण्ड छात्रों के लिए मधुर वचन एवं उपदेश का सहारा लेने की अनुशंसा की है जबकि गौतम ने कठोर दण्ड का भी समर्थन किया है। वर्षा के समय, पर्व के दिन एवं बीमारी होने पर छात्र को शिक्षा से अवकाश दिया जाता था। दैव प्रकोप होने पर शृगाल, उलूक, गर्दभ एवं श्वान जैसे जीवों के बोलने का अध्ययन-अध्यापन बंद कर दिया जाता था।
दीक्षांत एवं गृहस्थ आश्रम में प्रवेश
जब विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण कर लेते थे तब उनका ‘दीक्षान्त’ (समावर्तन) संस्कार होता था। तैत्तिरीय उपनिषद् में आचार्य द्वारा समावर्तन के अवसर पर शिष्यों को दिए जाने वाले उपदेश का विस्तृत विवेचन दिया गया है। शिक्षा समाप्ति पर विद्यार्थी आचार्य को अपनी सामर्थ्य के अनुसार गुरु-दक्षिणा देते थे, जो आचार्य-कुल की आय का महत्वपूर्ण साधन होती थी। गुरु-दक्षिणा देने के बाद विद्यार्थी अपने घरों को लौटकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे।
उत्तर-वैदिक-काल के प्रसिद्ध आचार्य-कुल
उत्तर-वैदिक-काल में शिक्षा का प्रबंध आचार्य-कुलों में किया गया था। इन आश्रमों में छात्रों से हवन-पूजा के साथ-साथ वेदपाठ करवाया जाता था। उन्हें वेद-वेदांगों का अध्ययन और शस्त्र-शास्त्रों का अभ्यास करवाया जाता था। प्रयाग में संगम के तट पर महर्षि भरद्वाज का आश्रम था जहाँ छात्रों को वेद-वेदांगों और शस्त्र-शास्त्रों का ज्ञान दिया जाता था। मन्दाकिनी नदी के तट पर चित्रकूट में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था। महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में भी शिक्षा दी जाती थी।
महर्षि अगस्त्य का आश्रम दंडकारण्य में था जहाँ उनके शिष्य यज्ञ और अध्ययन में लगे रहते थे। महर्षि अगस्त्य कई प्रकार के दिव्यास्त्रों पर अधिकार रखते थे तथा राक्षसों से भी युद्ध करते थे। मालिनी नदी के तट पर महर्षि कण्व का आश्रम शिक्षा का महत्वपूर्ण केन्द्र था। नैमिषारण्य में महर्षि शौनक का आश्रम था, जहाँ विद्यार्थियों के अध्ययन का काल 12 वर्ष था।
महेन्द्र पर्वत पर परशुराम का आश्रम था, जहाँ अन्य विद्याओं के साथ-साथ युद्ध-कौशल का ज्ञान कराया जाता था। नागरिकों द्वारा प्रदत्त भोजन, वस्त्र आदि से विद्यार्थियों, आचार्यों तथा अन्य व्यक्तियों का जीवन-निर्वाह होता था।