Wednesday, November 13, 2024
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अध्याय -41 – भारत की चित्रकला (ब)

राजपूत चित्रकला

राजस्थान में अत्यंत प्राचीन काल से अब तक विकसित हुई चित्रकला की समृद्ध धारा के प्रवाह को देखा जा सकता है। कोटा जिले के आलणियां, दरा, बैराठ, झालावाड़ जिले के आमझीरी नाला तथा भरतपुर जिले के दर नामक स्थानों के शैलाश्रयों में आदिम मानव द्वारा उकेरे गये रेखांकन तथा मृद्भाण्डों पर उकेरी गयी कलात्मक रेखायें प्रदेश की अत्यंत प्राचीन चित्रण परंपरा की कहानी कहती हैं।

राजस्थान से प्राप्त विक्रम संवत के पूर्व के सिक्कों पर अंकित मानव, पशु-पक्षी, सूर्य, चंद्र, धनुष, बाण, स्तूप, स्वास्तिक, वज्र, पर्वत, नदी आदि धार्मिक चिह्न प्राप्त होते हैं। बैराठ, रंगमहल तथा आहाड़ से प्राप्त सामग्री पर वृक्षावली तथा ज्यामितीय अंकन देखने को मिलते हैं।

सातवीं एवं आठवीं शताब्दी के लगभग राजपूताना में अजन्ता चित्रकला की समृद्ध परम्परा विद्यमान थी किन्तु अरबों के आक्रमण के कारण पश्चिमी क्षेत्र के कलाकार गुजरात से राजपूताना की ओर आ गये जिन्होंने स्थानीय शैली को आत्मसात करके एक नई शैली को जन्म दिया और अजन्ता शैली का प्रभाव नेपथ्य में चला गया।

इस नई शैली की चित्रकला से जैन ग्रंथों को बड़ी संख्या में चित्रित किया गया इसलिए इसे जैन शैली कहा गया। इस शैली का विकास गुजरात से आये कलाकारों ने किया था, इसलिये इसे गुजरात शैली भी कहा गया। धीरे-धीरे गुजरात और राजपूताना शैली में कोई भेद नहीं रहा। पन्द्रहवीं शताब्दी में इस पर मुगल शैली का प्रभाव दिखाई देने लगा।

ज्यों-ज्यों राजपूत शासकों ने मुगल बादशाह अकबर से राजनैतिक एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये और उनका मुगल दरबार में आना-जाना होने लगा, त्यों-त्यों राजपूत चित्रकला पर मुगल प्रभाव बढ़ता गया, जिससे राजपूत शैली की पूर्व प्रधानता समाप्त हो गई।

राजस्थान में चित्रकला की अनेक शैलियां विकसित हुईं जिनमें मेवाड़ शैली, मारवाड़ शैली, बूंदी शैली, किशनगढ़ शैली, जयपुर शैली, बीकानेरी शैली, अलवर शैली, कोटा शैली, नाथद्वारा शैली, उणियारा शैली, अजमेर शैली, डूंगरपुर शैली, देवगढ़ शैली आदि प्रमुख हैं। इन सब शैलियों को राजपूत चित्रकला के अंतर्गत रखा जा सकता है। राजपूत चित्रकला पर मुगल एवं ईरानी शैलियों का प्रभाव है।

राजस्थानी चित्रकला का वैज्ञानिक वर्गीकरण सर्वप्रथम डॉ. आनंद कुमार स्वामी ने ई.1916 में अपनी पुस्तक ‘राजपूत पेंटिंग’ में किया था। आनंद कुमार स्वामी, ओ. सी. गांगुली, हैवेल आदि विद्वानों ने इसे राजपूत चित्रकला कहा जबकि रामकृष्ण दास ने इसे राजस्थानी कला कहा।

मुस्लिम प्रभाव से इस शैली में विभिन्न रियासतों में अलग-अलग चित्र शैलियों का विकास हुआ। इन शैलियों को पृष्ठ भूमि, बॉर्डर, पशु पक्षियों का अंकन, पोशाकों का अंकन, आंखों की बनावट, चित्रों की विषय वस्तु, चेहरे की दाढ़ी-मूंछें, चिबुक, होंठ आदि की बनावट से अलग-अलग किया जाता है।

रंगों के आधार पर भी इनमें वर्गीकरण हो सकता है। जयपुर एवं अलवर शैलियों के चित्रों में हरे रंग का अधिक प्रयोग होता है। जोधपुर एवं बीकानेर शैलियों में पीले रंग का अधिक प्रयोग होता है। कोटा शैली में नीले रंग का अधिक प्रयोग होता है। बूंदी शैली में सुनहरी रंग का अधिक प्रयोग होता है।

किशनगढ़ शैली में सफेद एवं गुलाबी रंग का अधिक प्रयोग होता है। बॉर्डर की पट्टी के रंगों से भी इन्हें अलग किया जा सकता है। उदाहरण के लिये उदयपुर में पीला, किशनगढ़ में गुलाबी एवं हरा, बूंदी में लाल एवं सुनहरी तथा जयपुर में चंदेरी एवं लाल रंग के बॉर्डर अधिक संख्या में बनाये गये हैं।

राजस्थानी चित्रकला को अध्ययन की दृष्टि से निम्नलिखित शैलियों एवं उप-शैलियों में रखा जा सकता है-

मेवाड़ स्कूल: नाथद्वारा शैली, देवगढ़ उपशैली, शाहपुरा उपशैली, उदयपुर शैली, सावर उपशैली, बागौर ठिकाणे की उपशैली, बेगूं ठिकाणे की उपशैली, केलवा ठिकाणे की उपशैली।

मारवाड़ स्कूल: जोधपुर शैली, किशनगढ़ शैली, नागौर उपशैली, सिरोही शैली, बीकानेर शैली, जैसलमेर शैली, भिणाय ठिकाणे की उपशैली, घाणेराव शैली, जूनियां शैली।

हाड़ौती स्कूल: बूंदी शैली, झालावाड़ शैली, कोटा शैली।

ढूंढाड़ स्कूल: आम्बेर शैली, शेखावाटी शैली, उणियारा ठिकाणे की उपशैली, ईसरदा ठिकाणे की उपशैली, शाहपुरा शैली, जयपुर शैली, अलवर शैली।

मेवाड़ प्रदेश की चित्रकला

मेवाड़ प्रदेश की चित्रकला के अंतर्गत उदयपुर शैली, नाथद्वारा शैली, देवगढ़ उपशैली, शाहपुरा उपशैली, चावंड, बनेड़ा, बागौर, सावर, बेगूं तथा केलवा ठिकाणों की चित्रकला आती है।

मेवाड़ शैली: इसे उदयपुर शैली भी कहते हैं। ई.1260 का श्रावक प्रतिक्रमण चूर्णि नामक चित्रित ग्रंथ मेवाड़ शैली का प्रथम उदाहरण है। यह ग्रंथ ताड़पत्रों से बनाया गया है। इसके चित्र नागदा के सास-बहू मंदिर तथा चित्तौड़ के मोकल मंदिर की तक्षण कला जैसे हैं।

गरुड़, नासिका, परवल की खड़ी फांक जैसे नेत्र, घुमावदार एवं लम्बी अंगुलियां, लाल-पीले रंग की प्रचुरता, छोटी ठोड़ी, अलंकारों की प्रधानता आदि इस शैली की विशेषतायें हैं। उदयपुर शैली में कदम्ब के वृक्ष एवं हाथियों का प्रमुखता से अंकन किया गया है। मेवाड़ में राणा कुंभा, राणा सांगा, मीरांबाई, राणा प्रताप, उदयसिंह, जगतसिंह, राजसिंह, जयसिंह, अमरसिंह आदि के काल में चित्रकला का अच्छा विकास हुआ। महाराणा अमरसिंह प्रथम के काल में यह अपने चरम पर पहुँची।

इसे मेवाड़ की चित्रकला का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। चावण्ड में ई.1605 में चित्रित भेंट, रसिक प्रिया, उदयपुर में ई.1648 में चित्रित रामायण तथा आर्ष रामायण, ई.1741 में चित्रित गीत गोविंद तथा ई.1719 में चित्रित बिहारी सतसई उदयपुर शैली के प्रमुख चित्र हैं। मेवाड़ शैली में चित्रित रागमाला, बारहमासा, पंचतंत्र तथा रसमंजरी भी उल्लेखनीय हैं।

नाथद्वारा शैली: ई.1670 में श्रीनाथजी के विग्रह के साथ ब्रज की चित्रण परंपरा मेवाड़ में आयी तथा उदयपुर शैली व ब्रज शैली के मिश्रण से नाथद्वारा शैली का विकास हुआ। इस शैली में आंखें हिरण के समान बनाई जाती हैं। गायों का अंकन अधिक किया जाता है। यमुना के तट, अन्नकूट, जन्माष्टमी उत्सव आदि का अंकन भी इस चित्र शैली की प्रमुख विशेषता है। इस शैली के चित्रों में हरे एवं पीले रंग का अधिक प्रयोग किया जाता है।

मेवाड़ की लघु चित्र शैली: महाराणा जगतसिंह प्रथम (ई.1628 से 1652) के काल में चित्रकला का खूब विकास हुआ। मेवाड़ के राणा शैव मत के उपासक थे किंतु इस काल में वल्लभ संप्रदाय के प्रसार के कारण श्री कृष्ण के जीवन से संबंधित चित्रों का निर्माण अधिक हुआ। इस काल में रागमाला (ई.1628), रसिकप्रिया (ई.1628-30), गीतगोविंद (ई.1629), भगवद् पुराण (ई.1648) एवं रामायण (ई.1649) आदि विषयों पर लघु चित्रों का निर्माण हुआ। इनमें से अधिकतर चित्र देश-विदेश के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।

देवगढ़ उपशैली: इस शैली का विकास देवगढ़ के रावत द्वारकादास चूण्डावत द्वारा हुआ। यह मेवाड़ शैली की उपशैली है। मोटी एवं सधी हुई रेखाएं, पीले रंगों का बाहुल्य, मारवाड़ के अनुकूल स्त्री पुरुषों की आकृतियां, शिकार, गोठ, आदि से सम्बन्धित चित्र इसकी विशेषता है।

मरुप्रदेश की चित्रकला

तिब्बती इतिहासकार तारानाथ (16वीं शताब्दी) ने मरूप्रदेश में 7वीं शताब्दी के श्रीरंगधर नामक एक चित्रकार का उल्लेख किया है। ई.1422-23 में लिखित सुपाश्र्वनाथ चरितम् के चित्रों में जैन एवं गुजराती शैली का प्रभाव दृष्टिगत होता है। ई.1450 के लगभग गीत-गोविंद तथा बालगोपाल-स्तुति की एक-एक प्रति प्राप्त हुई है जिनमें राजस्थान के प्रारंभिक चित्रण को देखा जा सकता है।

जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, जैसलमेर, नागौर, घाणेराव तथा अजमेर शैलियों को मारवाड़ चित्रकला तथा मरुप्रदेश की चित्रकला भी कहते हैं। राजा मालदेव के समय (ई. 1532 से 1568) का जोधपुर शैली का उत्तराध्ययन सूत्र बड़े महत्व का है। अब यह चित्र बड़ौदा संग्रहालय में रखा है।

मारवाड़ शैली: ई.1623 की पाली रागमाला चित्रावली, 17वीं शताब्दी की ही जोधपुर शैली की सूरसागर पदों पर आधारित चित्रावली तथा रसिकप्रिया में रंगों की चटकता और वस्त्राभूषण आदि का चित्रांकन महत्त्वपूर्ण है। जोधपुर दुर्ग में चैखेलाव महल के भित्ति चित्र, राजा मालदेव के समय में बने थे। ये मार्शल टाइप के हैं।

राजा सूरसिंह के समय के अनेक लघुचित्र, ढोला मारू तथा भागवत आदि के चित्र भी उल्लेखनीय हैं। उन्नीसवीं सदी में मारवाड़ नाथ संप्रदाय से विशेष रूप से प्रभावित रहा। अतः राजा मानसिंह के समय के नाथ संप्रदाय के मठों के चित्र भी विशिष्ट बन पड़े हैं। इस शैली के पुरुष लम्बे-चैड़े, गठीले बदल के तथा गलमुच्छों, ऊंची पगड़ी एवं राजसी वैभव वाले वस्त्राभूषणों से युक्त हैं।

स्त्रियों की वेशभूषा में ठेठ राजस्थानी लहंगा, ओढ़नी, लाल फूंदने आदि का प्रयोग प्रमुख रूप से हुआ है। जोधपुर शैली में भी पीले रंग का अधिक प्रयोग हुआ है। इस शैली के चित्रों में आम के पेड़, कौवा एवं घोड़ा अधिक देखने को मिलते हैं। राम-रावण युद्ध, कौंधती बिजली, मरुस्थल के दृश्य, लोक देवताओं के चित्र, दुर्गा सप्तशती का चित्रण भी इस शैली की विशेषतायें हैं।

बीकानेर शैली: बीकानेर शैली में मुगल शैली के प्रभाव के कारण नारी अंकन में तन्वंगी देह चित्रित की गयी है। इस चित्रांकन में हरे, लाल, बैंगनी, जामुनी तथा सलैटी रंगों का प्रयोग किया गया है। पीले रंग को भी प्रमुखता दी गई है। शाहजहाँ और औरंगजेब शैली की पगड़ियों के साथ ऊंची मारवाड़ी पगड़ियां, ऊंट, हिरण आदि पशुओं और कौवा तथा चील आदि पक्षियों के साथ राजपूती जीवन शैली की छाप दिखायी देती है।

ऊँट की खाल पर चित्रों का अंकन इस शैली की विशेषता है। बीकानेर के मंदिरों में मथेरण, उस्ता एवं चूनगर जाति के चित्रकारों ने विशाल संख्या में भित्ति चित्रों का निर्माण किया। भाण्डा शाह के जैन मंदिर के रंगमंडप का शिखर तथा इसकी कलात्मक चित्रकारी अत्यंत आकर्षक है।

नागौर उपशैली: नागौर उपशैली में पारदर्शी वेशभूषा एवं बुझे हुए रंगों का प्रयोग अधिक किया गया है। नागौर दुर्ग में काष्ठ के दरवाजों एवं किले के भित्तिचित्र तथा घाणेराव के ठिकाने में बने हुए अनेक लघुचित्र देखने योग्य हैं।

जैसलमेर शैली: इस शैली में दाढ़ी मूंछों की मुखाकृति प्रमुखता से बनाई जाती है। चेहरे पर ओज एवं वीरत्व की प्रधानता होती है। मूमल इस शैली का प्रमुख चित्र है।

किशनगढ़ शैली की चित्रकला

किशनगढ़ शैली में राधा कृष्ण की लीलायें, बणी-ठणी, रंग-बिरंगे उपवन आदि की बहुलता है। तारों एवं चंद्रमा से युक्त रातों का अंकन खूबसूरती से किया गया है। इस शैली के चित्रों में पुरुष लम्बे, इकहरे, नील छवि वाले, समुन्नत ललाट, कर्णांत तक खिंचे अरुणाभ नयन, मोती जड़ित श्वेत या मूंगिया पगड़ी वाले चित्रित किये गये हैं।

जबकि नारियां तन्वंगी, लम्बी, गौरवर्णा, नुकीली चिबुक, सुराहीदार गर्दन, क्षीणकटि, लम्बी कमल पांखुरी सी आँखों वाली चित्रित की गयी हैं। दूर-दूर तक फैली झीलों में जल क्रीड़ा करते हंस, बत्तख, सारस, नौकायें, केले के गाछ तथा रंग-बिरंगे उपवन किशनगढ़ शैली को दूसरी शैलियों से अलग करते हैं।

किशनगढ़ की चित्रकला को चरम पर पहुँचाने का श्रेय राजा सावंतसिंह (ई.1699-1764) को है जो नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे राजा राजसिंह के पुत्र थे। उनकी पे्रयसी का नाम बणी ठणी था। वह विदुषी, परम सुंदरी, संगीत में दक्ष तथा कवियत्री थी।

उसके प्रति राजा नागरीदास का आत्मनिवेदन काव्यधारा के रूप में प्रस्फुट हुआ। जिसने चित्रकारों को विषय वस्तु, कल्पना तथा सौंदर्य का विशाल आकाश प्रदान किया। भारत सरकार ने 5 मई 1973 को बणी-ठणी पर एक डाक टिकट भी जारी किया। इस चित्र को ई.1778 में किशनगढ़ के चित्रकार निहालचंद ने बनाया था।

हाड़ौती की चित्रकला

चैहान वंशी हाड़ाओं का शासन बूंदी, कोटा तथा झालावाड़ आदि क्षेत्रों पर रहा। इस कारण इन क्षेत्रों से प्राप्त चित्र हाड़ौती शैली के अंतर्गत आते हैं।

बूंदी शैली: इस शैली में पशु-पक्षियों का सर्वाधिक अंकन किया गया है। वर्षा में नाचते हुए मोर, वृक्षों पर कूदते बंदर और जंगल में विचरण करते हुए सिंह सर्वाधिक इसी शैली के चित्रों में अंकित किये गये हैं। बूंदी शैली की आकृतियां लम्बी, शरीर पतले, स्त्रियों के अधर अरुण, मुख गोल, चिबुक पीछे की ओर झुकी तथा छोटी होती है। प्रकृति तथा स्थापत्य के चित्रांकन में श्वेत, गुलाबी, लाल, हरे रंगों का प्रयोग किया गया है।

राग-रागिनी, नायिका भेद, ऋतु वर्णन, बारहमासा, कृष्णलीला, दरबार, हस्तियुद्ध, उत्सव आदि का अंकन इस शैली में प्रमुख स्थान रखता है। इस शैली में सुनहरी रंग का प्रयोग अधिक हुआ है। साथ ही खजूर के पेड़, बत्तख एवं हिरण का बहुतायत से अंकन किया गया है। महाराव उम्मेदसिंह के शासन काल में निर्मित चित्रशाला (रंगीन चित्र) बूंदी चित्र शैली का श्रेष्ठ उदाहरण है।

कोटा शैली: कोटा शैली बूंदी शैली से आई है। कोटा शैली में शिकार का बहुरंगी तथा वैविध्यपूर्ण चित्रण देखा जा सकता है। इस शैली में नीला रंग, खजूर के वृक्ष, बत्तख एवं शेर आदि का प्रमुखता से अंकन किया गया है। झालावाड़ के राजमहलों में श्रीनाथजी, राधा-कृष्ण लीला, रामलीला तथा राजसी वैभव के चित्र दर्शनीय हैं। झालावाड़ के राजकीय संग्रहालय में कुछ तांत्रिक देव-चित्र प्रदर्शित हैं जो पशु-पक्षी के रूप में अंकित किए गए हैं।

तंजौर शैली: भित्ति चित्रों की दृष्टि से कोटा सबसे सम्पन्न है। दक्षिण भारत के चित्रकारों ने भी कोटा में भित्ति चित्र बनाये। तंजौर शैली के अनेक चित्र कोटा के भवनों में चित्रित हैं।

ढूंढाड़ की चित्रकला

आमेर, जयपुर, अलवर, शेखावाटी, उणियारा, करौली आदि शैलियां ढूंढाड़ चित्रकला में आती हैं। झिलाय ठिकाणा भी ढूंढाड़ी चित्रकला के अंतर्गत आता है।

जयपुर शैली: जयपुर शैली में हरे रंग के प्रयोग, पीपल एवं वट के वृक्ष मोर एवं अश्व का अधिक चित्रांकन किया गया है। मुगलों एवं ब्रज क्षेत्र की संस्कृति का प्रभाव भी इस चित्रकला शैली पर देखा जा सकता है। आमेर की छतरियों, बैराठ के मुगल गार्डन, मौजमाबाद के निजी चित्रों में मुगल प्रभाव हावी है। राजा जयसिंह के समय के चित्रों में रीतिकालीन प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है।

इस काल में आदमकद चित्रों की भी परम्परा पड़ी। माधोसिंह (प्रथम) के काल में गलता के मंदिरों, शीशोदिया रानी के महल, चंद्रमहल तथा पुण्डरीक की हवेली में कलात्मक भित्ति-चित्रण हुआ। सवाई प्रतापसिंह के काल में राधाकृष्ण की लीलाएं, नायिका भेद, राग-रागिनी, बारहमासा आदि का चित्रण हुआ।

अलवर शैली: इस शैली में भी जयपुर शैली की सारी विशेषतायें मिलती हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि जयपुर शैली और दिल्ली शैली के मिश्रण से अलवर शैली बनी। हरे रंग के प्रयोग, पीपल एवं वट के वृक्ष, मोर एवं अश्व का अधिक चित्रांकन किया गया है।

इस शैली में वेश्याओं के जीवन का खूबसूरती से अंकन किया गया है। जमनादास, छोटेलाल, बक्साराम एवं नन्दलाल अलवर शैली के प्रसिद्ध चित्रकार थे। अलवर के राजकीय संग्रहालय में अलवर नरेशों द्वारा खरीदे गए बहुमूल्य चित्र संगृहीत हैं।

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