राणा सांगा की सारी आशंकायें सही सिद्ध हुई थीं। वह स्वयं युद्ध भूमि से लौट कर फिर कभी चित्तौड़ नहीं आया। उसके बाद रतनसिंह मेवाड़ का राणा हुआ किंतु वह भी बूंदी के राजा सूरजमल के हाथों मारा गया। उसके बाद मात्र चौदह वर्ष का दुर्बुद्धि बालक विक्रमादित्य मेवाड़ का राणा हुआ। उसने अपनी सेवा में सात हजार पहलवान नियुक्त कर लिये जिनके बल पर वह हर समय छिछोरपना करता रहता था और अपने सरदारों की हँसी उड़ाया करता था।
विक्रमादित्य ने मेवाड़ का शासन हाथ में आते ही अपनी बड़ी भौजाई मीरांबाई पर अत्याचार करने आरंभ किये। जब तक सांगा जीवित था और उसके बाद रत्नसिंह जीवित था, तब तक तो विक्रमादित्य का साहस मीरांबाई की ओर हाथ बढ़ाने का नही हुआ किंतु अब बात दूसरी थी। अब वह महाराणा था और जो चाहे सो कर सकता था।
उसने मीरांबाई के महल से गिरधर गोपाल का विग्रह चोरी करवा लिया और उसे जमीन में गड़वा दिया। उसके बाद दासी को बुलवाकर कहा- ‘यह प्याला उस भिखमंगी को ले जा कर देना और कहना की राणाजू ने तेरे किशन गोपालजी को अपने कक्ष में बुला लिया है और उनका चरणामृत भिजवाया है।’ दासी कांपते हाथों से प्याला लेकर महल से बाहर हो गयी।
दासी ने किसी तरह साहस करके मीरांबाई के महल में प्रवेश किया। भय के मारे उसके नेत्र मुंदे पड़ते थे। पैर लड़खड़ाते थे और हाथों का प्याला लगातार कांपता था। फिर भी उसे स्वामी के आदेश का पालन तो करना ही था।
– ‘लो कुंवरानीजी।’ किसी तरह रुंधे कण्ठ से दासी ने कहा और प्याला मीरांबाई के हाथों में रख दिया।
– ‘क्या है यह?’
– ‘महाराणा ने भिजवाया है और कहलवाया है कि राणाजू ने आपके किशन गोपालजी को अपने कक्ष में बुला लिया है और उनका चरणामृत भिजवाया है।’
– ‘क्या कहती है? गिरिधर गोपाल तो अपने मंदिर में विराजमान हैं।’ मीरांबाई ने अचंभित होकर कहा।
दासी ने मंदिर में जाकर देखा, गिरिधर गोपाल जी अपने स्थान पर विराजमान हैं। उनके अधरों पर वही मुरली धरी है जिसे अभी-अभी वह राणा के महल में देख आयी थी। दासी बुरी तरह डर गयी। यह क्या माया है। गिरिधर गोपाल को तो राणा ने अपने महल के पिछवाड़े की भूमि में गढ़वा दिया है। फिर ये यहाँ कैसे हो सकते हैं?
प्याला अभी तक दासी के हाथों में था। उसने कहा- ‘जानती हैं इसमें क्या है?’
– ‘तू ही तो कह रही है कि गिरिधर गोपाल का चरणामृत है।’
– ‘नहीं कुंवरानीजी, इसमें हलाहल भरा है। मेरेे सामने राणाजी ने भरा है, वे चाहते हैं कि आप इसे पी लें।’ बात पूरी करते करते दासी रो पड़ी।
– ‘अच्छा! ला इधर दे।’ मीरां ने प्याला दासी के हाथ से ले लिया और एक ही साँस में पी गयी।
– ‘अरे रे! यह क्या गजब किया आपने, इसमें सचमुच ही विष है।’ दासी चिल्लायी। उसका रंग पीला पड़ गया।
– ‘जब राणाजी कहते हैं कि यह गिरिधर गोपालजी का चरणामृत है तो असत्य नहीं कहते हैं। यदि विष होता तो मैं जीवित थोड़े ही रहती।’ मीरां ने हँस कर कहा।
दासी जितने भयभीत हृदय और कम्पित पैरों के साथ आयी थी, उससे भी अधिक भयभीत हृदय और कम्पित पैरों से लौट गयी।
महाराणा ने सुना तो उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा- ‘अच्छा तो एक काम और कर। यह मुक्ताहार उसके पास ले जा। उससे कहना राणा ने तेरे गिरधर गोपाल ले लिये, इसके बदले में यह मुक्ताहार भिजवाया है।’
– ‘किंतु अन्नदाता गिरिधर गोपाल तो वहाँ अपने स्थान पर ही विराजमान हैं।’ दासी ने भय कम्पित वाणी से निवेदन किया।
– ‘बकवास है यह सब।’
दासी मुक्ताहार की मंजूषा लेकर फिर से कुंवरानी मीरां के महल की ओर चली।
– ‘अब क्या लाई है?’ मीरां ने हँस कर पूछा।
– ‘यह मुक्ताहार है, राणाजू ने आपके लिये भिजवाया है।’
– ‘अच्छा ला पहना दे।’ मीरांबाई ने दासी से कहा।
दासी ने मंजूषा खोली। अंदर मुक्ताहार नहीं था, वहाँ तो भयानक विषधर फन काढ़े बैठा था। दासी ने भय से मंजूषा फैंक दी।
– ‘क्या करती है?’ मीरां ने दासी को टोका।
– ‘इसमें मुक्ताहार नहीं, भयानक विषधर है।’
– ‘अरी नहीं! जाने तुझे क्या हो गया है। विष और विषधर के अतिरिक्त तुझे कुछ सूझता ही नहीं। देख तो कहाँ है विषधर? यह तो मुक्ताहार ही है।’ मीरां ने विषधर उठाकर गले में डाल लिया।
दासी ने देखा, मीरां के गले में सचमुच ही उज्जवल मोतियों का हार जगमगा रहा था। वह बेसुध होकर एक ओर लुढ़क गयी। उसी रात मीरां अपने सेवकों के साथ चित्तौड़ के महल त्यागकर वृंदावन के लिये रवाना हो गयी।