Saturday, July 27, 2024
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28. रानी मृगमंदा का प्रस्ताव

शत्रुओं के हाथ में लगभग जा चुके दुर्ग को पुनः हस्तगत करने के पश्चात रानी मृगमंदा ने नाग गुल्मपतियों को अपने दुर्ग के मध्य में स्थित अपने प्रासाद में बुलाया। शिल्पी प्रतनु को भी इस अवसर पर विशेष रूप से आमंत्रित किया गया।

नागों ने यह पहली बार देखा था कि घनघोर कठिन परिस्थिति में भी उनके मुखिया ने दुर्ग त्यागने के स्थान पर दुर्ग में रहकर ही अपने सैनिकों का नेतृत्व किया। रानी मृगमंदा ने स्त्री होते हुए भी पुरुष मुखिया की अपेक्षा कहीं अधिक साहस का परिचय दिया था। इसी प्रकार शिल्पी प्रतनु ने अतिथि होते हुए भी अपने प्राणों का मोह त्याग कर अदम्य साहस प्रदर्शित किया तथा युद्धरत सैनिकों के मध्य भित्ति का निर्माण कर शत्रु सैन्य का प्रवाह अवरूद्ध कर दिया।

नाग-गुल्मपतियों ने एक स्वर से रानी मृगमंदा और शिल्पी प्रतनु की प्रशंसा की और दुर्ग को बचा लेने का श्रेय उन्हीं दोनों को दिया। नाग गुल्मपतियों ने निश्चित किया कि शत्रु के पराभव के उपलक्ष में अगले पूर्ण चँद्र को दुर्ग में विजयोत्सव मनाया जाये।

रानी मृगमंदा ने विजयोत्सव मनाये जाने की स्वीकृति प्रदान की तथा नाग-गुल्मपतियों के समक्ष किंचित् नतमस्तक हो अपना प्रस्ताव रखा- ‘मेरा गुल्मपतियों से आग्रह है कि अगले पूर्ण चँद्र तक वे अपना नया राजा चुन लें क्योंकि मैं विजयोत्सव के दिन ही शिल्पी प्रतनु से विवाह करना चाहती हूँ।’

  – ‘किंतु नाग-प्रजा के नियमानुसार नागों की रानी को किसी नाग युवक से ही विवाह करना होता है।’ गुल्मपति प्रमद ने रानी को टोका।

  – ‘मैं नागों के नियम जानती हूँ तभी तो आपसे नया राजा चुनने को कह रही हूँ। चूंकि प्रतनु नाग नहीं हैं, इसलिये वे नागों के राजा नहीं हो सकते। इस कारण मैं सिंहासन का परित्याग कर दूंगी तथा शिल्पी प्रतनु के साथ उनके प्रांतर को चली जाऊँगी।’

  – ‘किंतु पुत्री हम तो आपको ही अपनी रानी के रूप में देखते रहना चाहते हैं। आप हमारे अंतिम राजा कर्कोटक की प्रतिभासम्पन्न पुत्री हैं। आपके अतिरिक्त किसी और का नेतृत्व हमसे सहज ही स्वीकार नहीं होगा।’ वृद्ध गुल्मपति श्वेत केशीय ने रानी मृगमंदा के प्रस्ताव से असहमत होते हुए कहा।

  – ‘तब तो मुझे जीवन भर अविवाहित रहना होगा। क्योंकि नागों के नियम के अनुसार तो मेरा विवाह होते ही मेरा पति नागों का राजा बन जायेगा।’

  – ‘किंतु आप यदि किसी नाग युवक से विवाह करेंगी तो भी आप और आपके पति मिलकर नाग प्रजा का नेतृत्व कर सकते हैं।’ गुल्मपति तक्षक ने सुझाव दिया।

  – ‘आप भूल रहे हैं मातुल तक्षक कि नाग कन्याओं को अपनी इच्छानुसार पति वरण करने का अधिकार है। जो अधिकार साधारण नागकन्याओं को शत-शत वर्षों से प्राप्त है, क्या मुझे उस अधिकार से वंचित रखा जायेगा ?’ रानी मृगमंदा ने स्मित हास्य के साथ गुल्मपति तक्षक का विरोध किया।

  – ‘रानी मृगमंदा उचित ही तो कहती हैं। हम किसी नागकन्या को उसके सहज अधिकार से वंचित नहीं कर सकते।’ गुल्मपति वासुकि ने रानी मृगमंदा का समर्थन किया।

  – ‘हम रानी मृगमंदा को शिल्पी प्रतनु के साथ विवाह करने से नहीं रोक सकते किंतु साथ ही यह भी चाहते हैं कि रानी मृगमंदा का नेतृत्व हमें उपलब्ध रहे। ये दोनों कार्य एक साथ नहीं हो सकते।’ युवा गुल्मपति प्रमद ने अपना मत व्यक्त किया।

  – ‘क्यों नहीं हो सकते ? यदि रानी मृगमंदा शिल्पी प्रतनु को अपना पति चुनती हैं तो शिल्पी प्रतनु को ही नागों का अगला राजा मानने में क्या हानि है ?’ गुल्मपति कंकोल ने अपना मत दिया।’

  – ‘किंतु नागों का राजा केवल नाग ही हो सकता है। अतिथि प्रतनु नाग नहीं हैं। उन्हें नागों का राजा नहीं बनाया जा सकता।’ गुल्मपति प्रमद ने गुल्मपति कंकोल के प्रस्ताव का विरोध किया।

  – ‘माना कि शिल्पी प्रतनु नाग नहीं हैं किंतु वे विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने संकट काल में नागों की सहायता की है और ऐसा करके वे स्वयं को नागों का सबसे बड़ा हितैषी सिद्ध कर चुके हैं।’ कंकोल ने अपना विचार दृढ़ता से प्रकट किया।

  – ‘मेरे मत में गुल्मपति कंकोल ठीक कहते हैं। विलक्षण प्रतिभा के धनी और नागों के हितैषी शिल्पी प्रतनु को यदि रानी मृगमंदा अपना पति चुनती हैं तो नाग प्रजा  भी उन्हें अपना राजा बना सकती है।’ गुल्मपति विमद ने अपना मत व्यक्त किया।

  – ‘किंतु यह नागों की सहस्रों वर्षों से चली आ रही परम्परा के प्रतिकूल है।’ गुल्मपति प्रमद ने पुनः इस प्रस्ताव का विरोध किया।

गुल्मपति प्रमद किशोरावस्था से यह साध मन में पाले हुए था कि वह राजकुमारी मृगमंदा से विवाह करेगा और समय आने पर स्वतः ही नागों का राजा बन जायेगा। वह कई बार एवं कई प्रकार से राजकुमारी मृगमंदा के समक्ष प्रणय निवेदन कर चुका था। रानी मृगमंदा ने यद्यपि कभी भी प्रमद का प्रस्ताव स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं किया किंतु कभी अस्वीकृति का भाव भी प्रकट नहीं किया था।

जब अचानक ही नागराज कर्कोटक की हत्या हो गयी और मृगमंदा नागों की रानी हो गयी तो रानी ने घोषणा करवाई कि जो कोई भी उसके प्रश्नों का प्रत्युत्तर दे सकेगा, उसी से रानी विवाह करेगी। प्रमद ने रानी मृगमंदा के अटपटे प्रश्नों का प्रत्युत्तर देने का भी प्रयास किया था किंतु वह दो प्रश्नों का उत्तर देने के बाद तीसरे प्रश्न का उत्तर ढूंढ पाने में असमर्थ रहा था। गुल्मपति होने के कारण रानी मृगमंदा ने उसे अनुचर नहीं बनाया था। प्रमद ने उस शिल्पी को भी ढूंढने का प्रयास किया था जिसने उस रहस्यमयी प्रतिमा का निर्माण किया था किंतु प्रमद को केवल इतना ही ज्ञात हो सका कि रानी मृगमंदा ने इस प्रतिमा का निर्माण किसी अज्ञात मायावी शिल्पी से करवाया था। उस शिल्पी के बारे में कोई भी नहीं जानता था कि वह कौन था और कहाँ से आकर कहाँ चला गया था!

एक दिन जब प्रतनु को यह ज्ञात हुआ कि एक सैंधव युवक ने रानी मृगमंदा के तीनों प्रश्नों के उत्तर दे दिये हैं तो उसकी रही सही आशा पर भी पानी फिर गया था। फिर भी उसके मन में आशा की एक किरण अब भी उजाला किये हुए थी कि संभवतः सैंधव युवक से विवाह करके रानी मृगमंदा नाग प्रजा की रानी होने का अधिकार न त्यागना चाहे और प्रमद से ही विवाह कर ले किंतु आज के इस वार्तालाप से तो आशा की अंतिम किरण पर तुषारापात होता हुआ सा लग रहा था। इसी कारण वह नागों के नियम में शैथिल्य का विरोध कर रहा था।

प्रमद को इस तथ्य का ज्ञान हो गया था कि रानी मृगमंदा और दोनों राजकुमारियाँ सैंधव शिल्पी प्रतनु से अनुराग रखती हैं तथा उससे विवाह करने को उत्सुक हैं। इसलिये रानी मृगमंदा में प्रमद की विशेष रूचि नहीं रह गयी थी। इस समय तो वह यही सोच रहा था कि रानी मृगमंदा और उसकी दोनों भगिनियाँ शिल्पी प्रतनु के साथ विवाह करके नागों का पुर छोड़ कर जाना चाहती है तो अच्छा ही है। इससे वह नागों के सिंहासन पर अपना अधिकार मजबूती के साथ प्रस्तुत कर सकेगा किंतु नियम शिथिल किया गया तो यह संभव नहीं हो पायेगा।

गुल्मपति कंकोल के प्रस्ताव पर गुल्मपतियों में दीर्घ समय तक वाद-विवाद होता रहा। अंत में वे प्रतनु के साथ रानी मृगमंदा के परिणय की स्थिति में प्रतनु को नागों का नया राजा चुनने तथा नागों के नियम शिथिल करने पर सहमत हो गये। गुल्मपति प्रमद इस निर्णय से अप्रसन्न होकर अपने स्थान पर उठ कर खड़ा हो गया। उसने चेतावनी दी कि गुल्मपतियों को यह अधिकार नहीं है कि वे नाग प्रजा के बनाये हुए नियमों को अमान्य कर सकें। इसलिये वह नाग प्रजा से ही इसका निर्णय करवायेगा।

रुष्ट प्रमद प्रासाद से बाहर जाने को तत्पर हो गया तो प्रतनु ने उससे रुकने का आग्रह किया। वह अब तक नितांत मौन धारण करके गुल्मपतियों और रानी मृगमंदा के संवाद को सुन रहा था। रानी मृगमंदा द्वारा अचानक यह प्रस्ताव रखने से वह चैंका था किंतु अब समय आ गया था जब प्रतनु के लिये कुछ न कुछ बोलना आवश्यक था। अतः उसने रानी मृगमंदा से अनुमति मांगी कि उसे भी कुछ बोलने का अवसर दिया जाये।

रानी मृगमंदा द्वारा अनुमति दिये जाने के पश्चात् प्रतनु ने कहा- ‘ मैं अत्यंत विनय के साथ क्षमा याचना करते हुए कहना चाहता हूँ कि यह सत्य है कि मैंने रानी मृगमंदा के तीन जटिल प्रश्नों के संतोषप्रद उत्तर दिये थे किंतु उस समय मेरे समक्ष यह प्रतिबंध नहीं रखा गया था कि उन प्रश्नों का उत्तर देने के पश्चात् मुझे अनिवार्यतः रानी मृगमंदा से विवाह करना होगा। न ही इस सम्बन्ध में रानी मृगमंदा ने मुझसे आज तक स्वीकृति प्राप्त की है। यही कारण है कि रानी मृगमंदा नहीं जानतीं कि मैं उनसे विवाह करने को उत्सुक हूँ भी अथवा नहीं। उचित तो यही होता कि रानी मृगमंदा मुझसे विचार विमर्श करके ही अपना मंतव्य आप सबके समक्ष रखतीं।’

  – ‘तो क्या रानी मृगमंदा से विवाह करने में आपको कोई आपत्ति है ?’ वृद्ध गुल्मपति श्वेत केशीय ने पूछा।

  – ‘आपत्ति नहीं विवशता है। अन्यथा रानी मृगमंदा से विवाह करना तो मेरे जैसे तुच्छ शिल्पी और अज्ञात पथिक के लिये परम सौभाग्य की बात है।’ प्रतनु ने प्रत्युत्तर दिया।

  – ‘किंतु शिल्पी आपके समक्ष कैसी विवशता है ?’

  – ‘मैंने सैंधव देश की देव-नृत्यांगना रोमा को वचन दिया है कि मैं दो वर्ष के पश्चात्  मोहेन-जो-दड़ो लौटूंगा तथा अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिकार लूंगा। उस वचन के अनुसार मुझे यहाँ से प्रस्थान करना होगा ताकि मैं सिंधु तट पर वरुण के आगमन से पूर्व मोहेन-जो-दड़ो पहुँच सकूं।’ प्रतनु ने शर्करा तट से प्रस्थान करने से लेकर किलात द्वारा मोहेन-जो-दड़ो से निकाले जाने तक की सारी कथा गुल्मपतियों को कह सुनाई।

रानी मृगमंदा के आश्चर्य और क्षोभ का पार न रहा। वह अपनी ही धुन में, एक ही दिशा में सोचती रही। उसने यह पता लगाने का प्रयास नहीं किया कि प्रतनु भी उससे विवाह करना चाहता है अथवा नहीं। वह तो यह मानकर चल रही थी कि प्रतनु भी उससे अनुराग रखता है। अन्यथा वह गुल्मपतियों के समक्ष यह प्रस्ताव कदापि न रखती।

प्रतनु की बात सुनकर गुल्मपति प्रमद शांत होकर अपने स्थान पर बैठ गया। आशा की अंतिम किरण जो अभी कुछ क्षण पूर्व बुझ गयी थी वह फिर से चैतन्य हो गयी। भाग्य ने फिर से रानी मृगमंदा और नागों का सिंहासन उसकी झोली में आ गिरने के उपक्रम प्रस्तुत कर दिये थे।

बहुत देर तक कोई कुछ नहीं बोला। वृद्ध गुल्मपति श्वेत केशीय ने दीर्घ मौन को भंग किया- ‘हमारे लिये आपकी क्या आज्ञा है रानी ? आदेश हो तो राजाज्ञा भंग करने के अपराध में शिल्पी प्रतनु को बंदी बनाया जाये अथवा उन्हें इसी समय दण्डित किया जाये! ‘

  – ‘नहीं-नहीं! न तो हमने ऐसी कोई आज्ञा दी है कि हम शिल्पी प्रतनु से विवाह करेंगी और न ही हम अपने अतिथि को किसी भी कार्य के लिये विवश करेंगी। ऐसे परम सम्मानित अतिथि तो सौभाग्य से ही प्राप्त होते हैं। हमें तो गर्व होना चाहिये कि हमने ऐसे व्यक्ति के अतिथि सत्कार का अवसर प्राप्त किया जो एक संकटग्रस्त रानी के लिये अपने प्राण तक संकट में डालने को प्रस्तुत है तथा अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिकार करने के लिये नाग लोक का राजपद और नाग रानी से विवाह का प्रलोभन भी त्यागने में सक्षम है। हम इन्हें कैसे बंदी बना सकते हैं और कैसे दण्डित कर सकते हैं!  ये स्वतंत्र हैं। जब तक चाहें, नाग लोक में रह सकते हैं और जब जहाँ जाना चाहें, जा सकते हैं।’

एक बहुत बड़ा भार था जिसे शिल्पी प्रतनु कई दिनों से अपने सिर पर अनुभव कर रहा था, आज वह भार यकायक हल्का हो गया था। नहीं जानता था प्रतनु कि जिस भार को वह अपने सिर से उतरा हुआ मान रहा है, वह भार शत-शत गुणा होकर रानी मृगमंदा और समस्त नाग प्रजा के सिर पर जा चढ़ा है।

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