Friday, October 4, 2024
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21. रानी मृगमंदा

अमल-धवल प्रासाद के केन्द्रीय कक्ष में प्रवेश करते ही प्रकाश से आंखें चुंधिया गयीं प्रतनु की। कुछ क्षण तक तो वह कुछ भी नहीं देख सका। धीरे-धीरे दृष्टि ने कक्ष के आलोक में स्थिर रहने योग्य क्षमता उत्पन्न कर ली। प्रतनु ने देखा कि विविध मणि-मुक्ताओं से भली-भांति सुसज्जित कक्ष के मध्य भाग में प्रकाश का अथाह सागर हिलोरें मार रहा है जिसकी दिप-दिप करती आभा-उर्मियों के कारण कक्ष में प्रवेश करने वाले की आंखें चैंधिया जाती हैं। कुछ ही क्षणों में प्रतनु को और स्पष्ट दिखाई देने लगा। उसने देखा कि कक्ष के मध्य भाग में श्वेत परिधानों से आवेष्टित एक गौरांग नागकन्या श्वेत स्फटिक के सिंहासन पर सुशोभित है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी सम्पूर्ण देह से दिव्य ज्योत्सना झर-झर कर निःसृत हो रही है जिसके कारण कक्ष में इतना तीव्र प्रकाश है। नागकन्या के अंग-प्रत्यंग में समाया सौंदर्य सम्पूर्ण देह को ऐसी दिव्य छवि प्रदान कर रहा है मानो वह स्त्री देह न होकर सौंदर्य का अमल-धवल प्रासाद ही हो।

शर्करा के तट पर आने वाले पणियों के सार्थवाहों से प्रतनु ने सुन रखा था कि भूमण्डल पर स्थित समस्त प्रजाओं में नागकन्यायें सर्वाधिक सुंदर हैं। वे शीश पर फण तथा मुकुट, कानों में वलयाकार कुण्डल तथा अपने अलसाये नेत्रों में कज्जल धारण किये रहती हैं। उनकी सुवर्ण देह से निःसृत कमल पुष्पों की सुगंध पूरे वातावरण को आप्त किये रहती है। कृशोदर और क्षीण कटि के मध्य में स्थित नाभि इस भांति सुशोभित रहती है मानो सौंदर्य के सागर में त्रिवलयी भंवर पड़ा हो। उनके मनोहारी, स्थूल और उन्नत स्तन प्रदेश पर विराजमान मणि-मेखलायें इस तरह दोलायमान रहती हैं मानो दो उन्न्त पर्वतों के मध्य श्वेत जलराशि से युक्त सलिलायें प्रवाहित होती हों। वे महामणियों से अलंकृत, विविध प्रकार के आभूषणों से शोभायमान, मधुर वचन बोलने वाली नागकन्यायें अत्यंत शिष्ट, रमणीय और मधुर दृष्टि वाली होती हैं।

प्रतनु को लगा कि जिस पणि ने उसके समक्ष नागकन्याओं के सौंदर्य का वर्णन किया था, उस पणि ने अवश्य ही इसी नागकन्या को देखा होगा। संभ्रमित, संकुचित और हतप्रभ सा प्रतनु सौंदर्य के उस अमल धवल प्रासाद की ओर निर्निमेष नेत्रों से ताकता ही रह गया। उसे इस तरह चकराया हुआ जानकर निर्ऋति ने कहा  ‘मारी रानी मृगमंदा को प्रणाम करो पथिक।’

  – ‘नहीं जानता कि नागों की रानी को किस तरह अभिवादन करना चाहिये!’ प्रतनु ने शीश झुका कर कहा।

  – ‘जिस प्रकार तुम अपनी रानी को अभिवादन करते हो।’ हिन्तालिका ने कहा।

  – ‘हम सैंधवों की कोई रानी नहीं है।’

  – ‘राजा तो होगा!’

  – ‘नहीं हम सैंधवों का कोई राजा भी नहीं है।’

  – ‘युद्ध और शांतिकाल में प्रजा का नेतृत्व कौन करता है ?’

  – ‘हम सैंधवों में युद्ध की परम्परा नहीं है।’

  – ‘शत्रु से रक्षा कैसे होती है ?’

  – ‘हमारा कोई शत्रु नहीं है।’

  – ‘यह कैसे संभव है ? प्रत्येक प्रजा का कोई न कोई शत्रु अवश्य होता है। तुम्हारे पड़ौस में किस प्रजा का निवास है ?’

  – ‘ असुर प्रजा का ? कुछ दूरी पर आर्य भी रहते हैं।’

  – ‘जिस प्रजा के पड़ौस में असुर निवास करते हों और उस प्रजा का कोई शत्रु न हो, यह तो अनहोनी सी बात है। असुर तो अकारण ही सबके शत्रु हैं।’

  – ‘असुर नागों और आर्यों के शत्रु हो सकते हैं किंतु सैंधवों से उनकी मित्रता है।’

  – ‘चलो मान लिया कि सैंधवों का कोई शत्रु नहीं है, सैंधवों में युद्ध परम्परा भी नहीं है किंतु शांति काल में भी तो उनका नेतृत्व कोई न कोई अवश्य करता होगा।’ हिन्तालिका ने प्रश्न किया।

  – ‘पशुपति महालय का प्रमुख पुजारी ही सैंधवों में सर्वपूज्य होता है किंतु वह प्रजा का नेतृत्व नहीं करता।’

  – ‘पुर की व्यवस्था कौन करता है ?’ निर्ऋति ने पूछा।

  – ‘पुर की व्यवस्था सम्बन्धी आदेश भी पशुपति महालय के प्रधान पुजारी द्वारा दिये जाते हैं।’

  – ‘जिस प्रकार तुम पशुपति महालय के प्रधान पुजारी को अभिवादन करते हो, उसी प्रकार रानी मृगमंदा को भी प्रणाम करो।’ निर्ऋति ने कहा।

प्रतनु ने धरती पर घुटने टेककर रानी मृगमंदा का अभिवादन किया। प्रतनु ने अनुभव किया कि इस पूरे वार्तालाप में रानी मृगमंदा एक भी शब्द नहीं बोली है। हिन्तालिका और निर्ऋति ही उसकी तरफ से प्रश्न पूछती रही हैं। मृगमंदा के संकेत पर हिन्तालिका ने प्रतनु को मृगमंदा के समक्ष रखे श्वेत स्फटिक आसन पर बैठने के का संकेत किया।

  – ‘आप हमारे पुर में किस आशय से आये हैं ?’ मृगमंदा का स्वर-माधुर्य प्रतनु को भीतर तक स्पर्श कर गया।

  – ‘मैं आया नहीं हूँ आपकी अनुचरियों द्वारा लाया गया हूँ।’

  – ‘निर्ऋति और हिन्तालिका मेरी अनुचरी नहीं, सखियाँ हैं। इन्होंने मुझे सूचित किया है कि आप इस निर्जन पर्वतीय प्रदेश में एकाकी विचरण कर रहे थे ?’

  – ‘क्या इस सम्पूर्ण पर्वतीय प्रदेश पर नागों का आधिपत्य है ?’ प्रतनु ने मृगमंदा के प्रश्न का उत्तर न देकर उलट कर प्रश्न किया।

  – ‘यह तो हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं! ‘

  – ‘किस प्रश्न का ?’

  – ‘आप किस आशय से इस निर्जन पर्वतीय प्रदेश में विचरण कर रहे थे ?’

  – ‘आप किस अधिकार से मुझसे प्रत्येक प्रश्न के प्रत्युत्तर की अपेक्षा रखती हैं ?’ रानी मृगमंदा के समक्ष जिस प्रकार के प्रश्न प्रतनु से लगातार किये जा रहे थे, वे प्रतनु को उचित नहीं लग रहे थे।

  – ‘आप हमारे अतिथि हैं, आपकी कुशल-क्षेम और यहाँ आने का आशय जानना हमारा कत्र्तव्य है।’ रानी मृगमंदा ने स्मित हास्य के साथ कहा।

  – ‘विभिन्न्न लोकों को देखने की आशा लेकर दीर्घ यात्रा पर निकला हूँ।’ प्रतनु को कोई समुचित उत्तर नहीं सूझ रहा था। पीड़ा की एक लहर उसके समूचे अस्तित्व को चीरती हुई सी उभर आई। कैसे बता सकता है वह कि उसे सैंधवों की राजधानी से निष्कासित किया गया है! अपनी ही मातृभूमि से निष्कासित व्यक्ति दूसरों के पुर में क्योंकर रहने का अधिकार प्राप्त कर सकता है!

  – ‘कौन-कौन से लोक देख चुके हैं अब तक ?’

  – ‘सैंधव प्रदेश से निकल कर विभिन्न पर्वतीय और वन्य प्रांतरों को देखता हुआ सबसे पहले इसी लोक तक पहुँचा हूँ।’

  – ‘इस लोक में आपका स्वागत है पथिक। आप जितने समय तक रहना चाहें यहाँ रह सकते हैं किंतु हमारा नियम है कि हमारेे तीन प्रश्नों का समुचित उत्तर दे सकने में सक्षम व्यक्ति ही इस पुर में अतिथि की तरह रह सकता है।’

  – ‘कौन से तीन प्रश्न ? जो अभी पूछे गये हैं! ‘

  – ‘नहीं! वे प्रश्न तो अभी पूछे जाने हैं ?’

  – ‘यदि मैं उन प्रश्नों के समुचित उत्तर न दे सकूं तो ?’

  – ‘तो आपको इस पुर में अनुचरों की भांति निवास करना होगा।’

  – ‘विचित्र है आपका नियम! मैंने आपके प्रश्नों के समुचित उत्तर दिये तो अतिथि अन्यथा अनुचर!’

  – ‘इसमें विचित्र कुछ भी नहीं है। विद्वानों को अतिथि बनाना हमारा गौरव है। मूर्खों को अतिथि के स्थान पर अनुचर बनाना ही श्रेयस्कर है। आपको यह भी ज्ञात होना चाहिये कि इस पुर में अतिथि बने रहने के कई लाभ हैं।’

  – ‘क्या-क्या लाभ हैं ?’

  – ‘अतिथि के रूप में आप वह सब-कुछ प्राप्त कर सकेंगे जिसकी आप इच्छा करेंगे।’ मुस्कुराकर कहे गये रानी मृगमंदा के कथन पर निर्ऋति और हिन्तालिका भी मंद-मंद मुस्कुराने लगीं।’

  – ‘तो पूछिये आपके तीनों प्रश्न। मैं तैयार हूँ।’ ”सब-कुछ” शब्दों के वास्तविक अर्थ का अनुमान लगाने का प्रयास करता हुआ प्रतनु रानी मृगमंदा द्वारा पूछे जाने वाले तीन प्रश्नों का सामना करने के लिये तैयार हो गया।

  – ‘अपने प्रश्न आपके समक्ष रखने से पहले मैं बताना चाहूंगी कि पूर्व में भी ये प्रश्न मैं कई पुरुषों के समक्ष रख चुकी हूँ किंतु आज तक कोई भी पुरुष मेरे प्रश्नों का समुचित उत्तर नहीं दे सका। वे सभी पुरुष इस समय हमारे अनुचर बनकर हमारी सेवा में नियुक्त हैं। यदि आप अनुचर नहीं बनना चाहते हैं तो इसी समय पुर छोड़कर जाने के लिये स्वतंत्र हैं।’ रानी मृगमंदा ने चेतावनी दी।

  – ‘भय का वर्णन भय के वास्तविक कारण से अधिक भयावह होता है। आप भय का वर्णन कर मुझे भयभीत करने में अपनी ऊर्जा व्यय न करें। कृपा कर प्रश्न पूछें।’ किंचित् शुष्क हो आया प्रतनु। वैसे भी उसे किसी भी कथोपकथन की विस्तृत भूमिका में कभी रुचि नहीं रहती। अधिक विस्तृत भूमिका स्थिति को स्पष्ट करने के स्थान पर स्थिति को अधिक रहस्यमय बना डालती है।

  – ‘तो सुनिये पहला प्रश्न। संसार में प्राणियों के अंगों को विभूषित करने वाला सुवर्ण किस प्रकार उत्पन्न हुआ है ? यदि आप विद्वान हैं तो मुझे बतायें।’

प्रश्न सुनकर क्षण भर के लिये विचारमग्न हो गया प्रतनु। उसने विचार किया कि युवती के, उसमें भी सुंदर युवती के प्रश्नों का उत्तर उसके मन के अनुकूल होना चाहिये। तभी वह सत्य माना जाता है। सुंदर युवती से तर्क कर विवाद उत्पन्न करने में लाभ नहीं हैं। अतः इस अवसर पर नागकन्या के मनोनुकूल उत्तर दिया जाना उचित है न कि तर्क और विवाद को बढ़ावा देने वाला। उसने मुस्कुराते हुए कहा- ‘ मेरु पर्वत के शिखर भाग पर किसी समय देवताओं और गरुड़ के मध्य अमृत के लिये भयंकर युद्ध हुआ था। तब नागों के शत्रु कपिल वर्ण वाले गरुड़ ने अपनु चंचु के आघात से समस्त देवताओं को क्षत-विक्षत कर दिया। गरुड़ द्वारा चंचु के आघातों से त्रस्त देवताओं को दुखी देखकर इन्द्र ने अपना वज्र गरुड़ पर फैंक मारा। वह वज्र पर्वत के समान उस भयंकर गरुड़ के बाँये पंख पर गिरा। जिससे उसके बायें पंख का कुछ भाग कट कर भूमि पर गिर गया। समस्त प्राणियों के शरीर का भूषण सुवर्ण उसी से बना हुआ है।[1]  हे कमलनेत्री! यदि आप मेरे उत्तर से संतुष्ट हैं तो दूसरा प्रश्न पूछें। अन्यथा मैं अनुचर बनने को तैयार हूँ।’

प्रतनु का उत्तर सुनकर चकित रह गयी रानी मृगमंदा। यह युवक तो सचमुच ही बुद्धिमान है। जब से यह मृगमंदा के समक्ष उपस्थित हुआ है तब से ही अत्यंत संतुलित और सारगर्भित संभाषण करता रहा है और इस समय भी इसने नागों की रानी को प्रसन्न करने के लिये गरुड़ के पराजय की कथा कितनी कुशलता से तैयार कर ली है और वह भी बिना कोई समय गंवाये। ऐसा तो केवल बुद्धिमान व्यक्ति ही कर सकता है किंतु यह उसके प्रश्न का समुचित उत्तर नहीं।

  – ‘बुद्धिमान पथिक! मैं आपके उत्तर से प्रसन्न तो हूँ किंतु यह मेरे प्रश्न का समुचित उत्तर नहीं है। यदि समुचित उत्तर जानते हो तो बताओ।’

  – ‘विशालाक्षि! मैं नहीं जानता कि आपके इस प्रश्न का सही उत्तर क्या है किंतु इस सम्बन्ध में जो कुछ भी मुझे ज्ञात है उसका वर्णन मैं आपके समक्ष करता हूँ। जिस हिमालय पर्वत पर आपका विवर रूपी पुर स्थित है उसी महापर्वत पर यहाँ से सहस्रों योजन दूर माल्यवान, गंधमादन, नील तथा निषध नामक पर्वत खड़े हैं। उनके मध्य में महामेरु नामक पर्वत है। वहीं जंबूरस नामक नदी है। इस नदी के किनारे जम्बू नामक शाश्वत वृक्ष है। इसी वृक्ष के कारण यह समस्त भू प्रदेश जम्बू द्वीप कहलाता है। इस वृक्ष के फलों का परिमाण आठ सौ इकसठ अरन्ति बताया जाता है। जब वृक्ष से जम्बू फलों का पतन होता है तो वे भारी ध्वनि उत्पन्न करते हैं। इन्हीं फलों का रस एक नदी बनकर फैलता है। यह नदी मेरु तथा जम्बू वृक्ष की परिक्रमा करती हुई हिमालय से उतर कर पृथ्वी लोक में प्रवेश करती है। वहीं जाम्बूनद नामका कनक होता है जो समस्त प्राणियों का भूषण है। यह शक्रवधू के समान रक्तिम आभा वाला होता है।’ [2]

प्रतनु का उत्तर नागकन्या को समुचित जान पड़ा। यद्यपि नागों ने जम्बू वृक्ष को देखा नहीं है किंतु परम्परा से नागों में सुवर्ण उत्पत्ति के सम्बन्ध में यही मान्यता रही है।

  – ‘मैं आपके उत्तर से संतुष्ट हूँ। अब मेरे दूसरे प्रश्न के लिये तैयार हो जाओ पथिक। जिस पर्वतीय प्रदेश में जम्बू नामक वृक्ष पाया जाता है वहाँ कौन-कौन सी प्रजायें निवास करती हैं ? शेष, वासुकि तथा तक्षक आदि नाग किस स्थान पर निवास करते हैं ? यदि आप विद्वान हैं और मेरे प्रश्न का उत्तर जानते हैं तो बतायें।’

  – ‘उन्नत पीन पयोधरों से सम्पन्न सुंदरी! नागों के भुवन विन्यास के अनुसार हैमवत वर्ष पर राक्षस, पिशाच और यक्ष रहते हैं। हेमकूट वर्ष पर अप्सराओं सहित गंधर्व रहते हैं। शेष, वासुकि तथा तक्षक आदि नाग निषध वर्ष में रहते हैं। महावर्ष पर तैंतीस देव भ्रमण करते हैं। नील पर्वतों पर सिद्ध और ब्रह्मर्षि रहते हैं। श्वेत पर्वत दैत्यों और दानवों का वासस्थान है।’ [3]

  – ‘तुम्हें नागों के भुवन विन्यास की जानकारी क्योंकर है पथिक ?’

  – ‘सैंधव पुरों में असुरों तथा पणियों का आवागमन होता रहता है। उन्हीं के द्वारा जल, थल, नभ और पर्वतीय प्रदेशों में रहने वाली प्रजाओं की जानकारी सैंधवों को प्राप्त होती रहती है। मैंने भी अपने पुर में आने वाले पणियों से यह जानकारी प्राप्त की है। यदि आप मेरे दूसरे उत्तर से भी संतुष्ट हों तो अपना तीसरा प्रश्न पूछें अन्यथा मैं आपका अनुचर बनने को तैयार हूँ।’

  – ‘मेरा तीसरा प्रश्न आपके द्वारा इस कक्ष में प्रवेश करने से पूर्व देखी गयी नागकन्याओं के जल-विहार की प्रतिमा के सम्बन्ध में है। मैं कहती हूँ कि उसके मध्य भाग में स्थित नागकन्या के रूप में मेरी प्रतिमा का उत्कीर्णन किया गया है। निर्ऋति कहती है कि यह निर्ऋति की प्रतिमा है, हिन्तालिका कहती है कि यह हिन्तालिका की प्रतिमा है। आपको  बताना है कि वह प्रतिमा किसकी है।’

मृगमंदा का तीसरा प्रश्न सुनकर चक्कर में पड़ गया प्रतनु। इस बात में कुछ न कुछ भेद अवश्य है। श्वेत स्फटिक पर उत्कीर्णित जलविहार दृश्यांकन प्रतिमा उसके नेत्रों में घूम गयी। उसने ध्यान किया कि मध्य भाग की प्रतिमा जिस प्रकार निर्ऋति और हिन्तालिका से साम्य रखते हुए भी उनमें से किसी की भी प्रतीत नहीं होती, उसी प्रकार रानी मृगमंदा की मुखाकृति से साम्य रखते हुए भी वह प्रतिमा रानी मृगमंदा की नहीं कही जा सकती। कोई न कोई भेद इसमें अवश्य है। प्रतनु का मस्तिष्क कुछ निर्णय नहीं ले पाया।

  – ‘किस विचार में पड़ गये पथिक! तुम चाहो तो उस प्रतिमा को एक बार और देख सकते हो।’ निर्ऋति ने अपने चंचल नेत्र विशेष मुद्रा में दोलायमान करते हुए कहा।

  – ‘क्या इस प्रश्न का उत्तर तत्काल देना आवश्यक है ?’

  – ‘आप चाहें तो कुछ दिन का समय दिया जा सकता है।’ रानी मृगमंदा ने प्रतनु का साहस वर्द्धन करते हुए कहा।

  – ‘तब तक मैं यहाँ किस रूप में रहूंगा, अतिथि के रूप में अथवा अनुचर के रूप में ?’

  – ‘तब तक आप हमारे अघोषित अतिथि के रूप में रह सकेंगे।’ रानी मृगमंदा ने स्मित हास्य के साथ कहा और प्रकाश तथा सौंदर्य का झरना सा छोड़ती हुई उठ खड़ी हुई।


[1] स्कंदपुराण के श्रीमाल माहात्म्य में आये एक वर्णन में एक पर्वतीय विवर का उल्लेख है जिसमें नागकन्या इषुमति को ब्राह्मण कुण्डपा स्वर्ण की उत्पत्ति का यही कारण बताता है।

[2] वायुप्रोक्त महापुराण, उपोद्घात पाद छियालीसवाँ अध्याय-भुवन विन्यास (श्लोक संख्या 21 से 30)

[3] वायुप्रोक्त महापुराण, उपोद्घात पाद छियालीसवां अध्याय-भुवन विन्यास (श्लोक संख्या 33 से 35)

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