भारत एवं पाकिस्तान की सीमाओं का निर्धारण करने के लिये 27 जून 1947 को रैडक्लिफ आयोग का गठन किया गया। इसका अध्यक्ष सर सिरिल रैडक्लिफ इंगलैण्ड का प्रसिद्ध वकील था। रैडक्लिफ 8 जुलाई 1947 को दिल्ली पहुंचा। रैडक्लिफ आयोग की सहायता के लिये प्रत्येक प्रांत में चार-चार न्यायाधीशों के एक बोर्ड की नियुक्ति की गयी। इन न्यायाधीशों में से आधे कांग्रेस द्वारा एवं आधे मुस्लिम लीग द्वारा नियुक्त किये गये थे।
पंजाब के गवर्नर जैन्किन्स ने माउंटबेटन को पत्र लिखकर मांग की कि रैडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट 15 अगस्त से पूर्व अवश्य ही प्रकाशित कर देनी चाहिये ताकि लोगों की भगदड़ खत्म हो। भारत विभाजन कौंसिल ने भी वायसराय से यही अपील की। रैडक्लिफ जहाँ भी जाता लोग उसे घेर लेते और अपने पक्ष में प्रभावित करने की कोशिश करते। रैडक्लिफ की कलम का एक झटका उन्हें जमा या उखाड़ सकता था।
उस अंग्रेज को प्रसन्न करने के लिये वे किसी भी सीमा तक कुछ भी कर सकते थे। रेडक्लिफ पर नक्शों, दरख्वास्तों, धमकियों और घूस की बारिश होने लगी। उसकी रिपोर्ट 9 अगस्त 1947 को तैयार हो गयी किंतु माउण्टबेटन ने उसे 17 अगस्त को उजागर करने का निर्णय लिया ताकि स्वतंत्रता दिवस के आनंद में रसभंग की स्थिति न बने। इस कारण पंजाब और बंगाल में असमंजस की स्थिति बनी रही।
रैडक्लिफ आयोग के काम से न तो भारतीय नेता प्रसन्न हुए और न ही पाकिस्तानी नेता। दोनों ने ही जमकर रैडक्लिफ की आलोचना की। इससे रुष्ट होकर रैडक्ल्फि ने पारिश्रमिक के रूप में निश्चित की गयी दो हजार पौण्ड की राशि को लेने से मना कर दिया। विभाजन रेखाअएं खींचते समय सिरिल रैडक्लिफ ने सर्वाधिक गौर इसी पर किया था कि बहुसंख्य जनता का धर्म क्या है। फलस्वरूप जो विभाजन रेखा खींची गई, वह तकनीकी दृष्टि से सही थी किंतु व्यावहारिक दृष्टि से सत्यानाशी। …… बंगाल की विभाजन रेखा ने दोनों भागों को एक आर्थिक अभिशाप दिया। विश्व का 85 प्रतिशत पटसन जिस क्षेत्र में पैदा होता था, वह पाकिस्तान को मिला लकिन वहाँ एक भी ऐसी मिल नहीं था जहाँ पटसन की खपत हो सकती थी।
उसकी सौ से भी ज्यादा मिलें कलकत्ता में थीं। यह महानगर भारत के हिस्से में आया किंतु पटसन नहीं। ……. पंजाब की विभाजन रेखा काश्मीर की सरहद पर स्थित एक घने जंगल के बीच से शुरू हुई जहाँ से ऊझ नामक नदी की पश्चिमी धारा पंजाब में प्रवेश करती है। जहाँ-जहाँ संभव हुआ, विभाजन रेखा ने रावी और सतलुज नदियों का पीछा किया।
दो सौ मील दक्षिण में उतरकर उसने भारतीय मरुभूमि को छुआ। लाहौर पाकिस्तान को मिला और अमृसर अपने स्वर्ण-मंदिर के साथ भारत के हिस्से में आया।
ताजमहल को पाकिस्तान ले जाने की मांग
भारत विभाजन की तिथि घोषित हो जाने के बाद पाकिस्तान जाने वाले कुछ मुसलमानों ने मांग की कि ताजमहल को तोड़कर पाकिस्तान ले जाना चाहिये और वहाँ फिर से निर्मित किया जाना चाहिये, क्योंकि उसका निर्माण एक मुगल ने किया था किंतु यह मांग कोई जोर नहीं पकड़ सकी।
नए गवर्नर जनरलों की नियुक्ति
भारत विभाजन के साथ ही अस्तित्व में आने वाले दो नवीन राष्ट्रों में राष्ट्राध्यक्षों की नियुक्ति का प्रश्न कम जटिल नहीं था। भारत के अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे तथा स्वाधीन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के पद पर वही नियुक्त किए जाने थे किंतु गवर्नर जनरल एवं वायसराय की जगह किसी नए व्यक्ति को नियुक्त किया जाना था। पाकिस्तान में इन दोनों पदों में से एक पद पर मुहम्मद अली जिन्ना को एवं दूसरे पद पर किसी अन्य व्यक्ति को नियुक्त किया जाना था।
भारतीय नेताओं ने लॉर्ड माउंटबेटन को ही स्वाधीन भारत का गवर्नर जनरल बनाए रखना स्वीकार किया किंतु माउंटबेटन ने इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। इस पर इंग्लैण्ड में भारतीय नेताओं की उदारता की धूम मच गई। प्रधानमंत्री एटली, विपक्ष के नेता विंस्टन चर्चिल तथा स्वयं ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज षष्ठम् ने माउंटबेटन को तार भेजकर निर्देश दिए कि वे भारतीय नेताओं के प्रस्ताव को स्वीकार कर लें।
इस प्रकार भावी स्वतंत्र भारत के लिए भावी गवर्नर जनरल के पद का निर्धारण अत्यंत गरिमामय ढंग से कर लिया गया। मुहम्मद अली जिन्ना ने भावी पाकिस्तान के गवर्नर जनरल के पद के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया तथा प्रधानमंत्री का पद लियाकत अली के लिए तय किया। माउण्टबेटन ने जिन्ना को याद दिलाया कि लोकतांत्रिक प्रणाली में शासन की समस्त शक्तियां प्रधानमंत्री में निहित होती हैं न कि गवर्नर जनरल में। जिन्ना ने कहा, पाकिस्तान में गवर्नर जनरल तो मैं ही होऊंगा तथा प्रधानमंत्री को वही करना होगा जो मैं कहूंगा।
वायसराय की काउंसिल के सदस्य, संविधान सभा के सदस्य एवं अलवर राज्य के प्रधानमंत्री आदि विभिन्न पदों पर रहे हिन्दू महासभाई नेता नारायण भास्कर खरे ने अपनी पुस्तक मेरी देश सेवा के भाग-दो में 14 नवम्बर 1954 को टाइम्स ऑफ इण्डिया में प्रकाशित एक आलेख का हवाला दिया है। इसमें एक अमरीकी पत्रकार द्वारा लुई फिशर एवं गांधीजी के बीच हुए एक वार्तालाप का उल्लेख किया गया है ।
गांधीजी ने लुई फिशर से कहा- ‘जब मैं हिन्दुस्तान का वायसराय होऊंगा, तब दक्षिण अफ्रीका के गोरों को अपनी कुटिया में बुलाऊंगा और कहूंगा कि आप लोगों ने मेरे लोगों को कुचला है किंतु मैं आपका अनुसरण नहीं करूंगा। मैं आपके साथ उदारता का व्यवहार करूंगा। मैं आपके समान कालों को लिंच करके नहीं मारूंगा। आपकी ओर भयंकर क्रूरता है। एक गोरा मारा गया तो सब का सब गांव नष्ट कर दिया जाता है।’
इस तरह कुछ और भी उदाहरणों के साथ नारायण भास्कर ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि गांधीजी के मन में ‘स्वदेशी-वायसराय’ बनने की इच्छा थी। जब भारत को स्वतंत्रता मिली तब एक भी मंच से यह बात नहीं उठी। उस समय गांधीजी की आयु 78 वर्ष हो चुकी थी तथा वे शारीरिक रूप से इतने कमजोर हो चुके थे कि वे मनु, आभा तथा सुशीला बेन आदि का सहारा लिए बिना चल भी नहीं पाते थे।
इधर भारत में नए वायसराय एवं गवर्नर जनरल की नियुक्ति पर विचार हो रहा था और उधर रैडक्लिफ आयोग अपना काम करके भारत से जा चुका था। उसने अपनी रिपोर्ट एक लिफाफे में बंद करके माउण्टबेटन को सौंप दी थी। इस लिफाफे में रैडक्ल्फि की रिपार्ट नहीं थी अपितु एक ऐसा भयानक विशाल अजगर था जो कराड़ों लोगों की जिंदगी को एक ही फूत्कार में निगल जाने वाला था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता