चंद्रवंशी राजा पुरुरवा को स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी से आयु, वनायु, क्षतायु, दृढ़ायु, धीमंत और अमावसु नामक कई पुत्र प्राप्त हुए। पण्डित रघुनंदन शर्मा ने अपने ग्रंथ वैदिक सम्पत्ति में लिखा है कि जिस प्रकार पुरुरवा और उर्वशी सूर्य तथा सूर्य की किरण हैं, उसी प्रकार आयु को भी सूर्य से उत्पन्न अग्नि मानना चाहिए। ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है कि हे अग्नि! पहले तूने आयु को बनाया और फिर आयु से ऊषा आदि देवता बनाए।
पुराणों में उल्लेख आया है कि पुरुरवा के पुत्र आयु का विवाह स्वरभानु की पुत्री प्रभा से हुआ जिनसे उसके पांच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत राजभ, रजि और अनेना। समस्त पुराण राजा नहुष की कथाओं से भरे पड़े हैं किंतु पण्डित रघुनंदन शर्मा ने ऋग्वैदिक ऋचाओं के आधार पर यह सिद्ध किया है कि नहुष भी एक प्रकार की अग्नि है तथा यह सूर्य का एक नाम है। रघुनंदन शर्मा के अनुसार नहुष कोई मनुष्य नहीं है अपितु आकाशीय शक्ति का नाम है।
ऋग्वेद में आए भिन्न-भिन्न मंत्रों के आधार पर नहुष को सूर्य, अग्नि, बादल, इंद और अंतरिक्ष सिद्ध किया जा सकता है। विभिन्न पुराणों एवं महाभारत में यह कथा आती है कि नहुष ने एक बार इंद्र पद प्राप्त किया। चूंकि इंद्र पद किसी भी मनुष्य को नहीं दिया जा सकता इसलिए नहुष को मनुष्य मानना भूल होगी। फिर भी पुराणों ने नहुष को मनुष्य माना है। महाभारत में नहुष की कथा इस प्रकार कही गई है-
जब देवराज इंद्र ने वृत्रासुर का वध करने के लिए असत्य का सहारा लिया तो इंद्र को अत्यंत ग्लानि हुई। इंद्र पर त्रिशिरा नामक ब्राह्मण के वध के कारण ब्रह्महत्या का पाप पहले से ही था और अब वृत्रासुर वध में भी असत्य का सहारा लेने से इंन्द्र अपनी ही दृष्टि से गिर गया। इसलिए वह जल में जाकर छिप गया।
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इंद्र के छिप जाने से संसार में वर्षा होनी बंद हो गई जिससे वन सूख गए एवं नदियों में जल का बहना बंद हो गया। धरती के समस्त जीव हाहाकार करने लगे। इस पर समस्त देवताओं एवं ऋषियों ने मिलकर विचार किया कि इस समय राजा नहुष बड़ा प्रतापी है, उसी को देवताओं के राजपद पर अभिषिक्त करना चाहिए। वह बड़ा ही तेजस्वी यशस्वी और धर्म-परायण है।
जब देवताओं एवं ऋषियों ने नहुष के पास जाकर उससे इंद्रपद ग्रहण करने को कहा तो नहुष ने कहा- ‘मैं तो अत्यंत दुर्बल मनुष्य हूँ। आप लोगों की रक्षा करने योग्य शक्ति मुझमें नहीं है।’
इस पर ऋषियों एव देवताओं ने कहा- ‘हे राजन्! आपके इन्द्र बनने पर देव, दानव, यक्ष, ऋषि, राक्षस, पितृगण और भूतगण आपकी दृष्टि के सामने खड़े रहेंगे। आप इन्हें देखकर ही इनका तेज लेकर बलवान् हो जाएंगे। आप धर्म को आगे रखकर सम्पूर्ण लोकों के स्वामी बन जाइए और स्वर्गलोक में रहकर ब्रह्मर्षियों एवं देवताओं की रक्षा कीजिए।’
ऐसा कहकर देवताओं एवं ऋषियों ने नहुष का स्वर्गलोक में राज्याभिषेक कर दिया। समस्त लोकों का स्वामी बनने के कुछ समय पश्चात् नहुष को अपनी शक्तियों का मद हो गया। वह समस्त देवोद्यानों, नंदनवन, कैलास तथा हिमालय आदि पर्वतों के शिखरों पर तरह-तरह की क्रीड़ाएं करने लगा। इससे उसका मन दूषित हो गया।
एक दिन नहुष की दृष्टि इन्द्राणी पर पड़ी। उसने अपने सभासदों को आदेश दिया- ‘मैं स्वर्ग का राजा हूँ फिर भी शची मेरी सेवा के लिए क्यों नहीं आती! उसे तुरंत मेरी सेवा में उपस्थित करो।’
नहुष की यह बात सुनकर इन्द्राणी को बहुत दुःख हुआ और उसने देवगुरु बृहस्पति से कहा- ‘हे ब्रह्मन्! मैं आपकी शरण में हूँ। आप नहुष से मेरी रक्षा करें। आपने मुझे कई बार अखण्ड सौभाग्यवती एवं पतिव्रता होने का आशीर्वाद दिया है। अतः आप अपनी वाणी सत्य करें।’
देवगुरु बृहस्पति ने कहा- ‘देवी! मैंने जो-जो कहा है, वह सब सत्य सिद्ध होगा। तुम नहुष से मत डरो, मैं तुम्हें इन्द्र से मिलवा दूंगा।’
इधर जब नहुष को ज्ञात हुआ कि शची बृहस्पति की शरण में गई है तो नहुष अत्यधिक क्रोधित हुआ। इस पर देवताओं एवं ऋषियों ने नहुष को सलाह दी- ‘आप क्रोधित मत होइए! सत्पुरुष क्रोधित नहीं हुआ करते। इन्द्राणी परस्त्री है, आप उसे क्षमा करें। आप देवराज हैं, इसलिए धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करें।’
नहुष ने देवताओं एवं ऋषियों की कोई बात नहीं सुनी। इस पर देवगण तथा ऋषिगण देवगुरु बृहस्पति के पास जाकर कहने लगे- ‘हमने सुना है कि इन्द्राणी आपकी शरण में आई है तथा आपने उसे अभयदान दिया है किंतु हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप इंद्राणी नहुष को दे दीजिए।’
देवताओं एवं ऋषियों की बात सुनकर इन्द्राणी विलाप करने लगी तथा देवगुरु से बोली- ‘हे ब्रह्मन्! इस महान् भय से मेरी रक्षा कीजिए! मैं नहुष को अपना पति नहीं बना सकती।’
इस पर देवगुरु ने कहा- ‘इन्द्राणी, मैं शरणागत का त्याग नहीं कर सकता! अतः आप निश्चिंत रहें।’ इसके बाद देवगुरु ने देवताओं एवं ऋषियों से कहा- ‘मैं ब्राह्मण हूँ, इसलिए मैं कोई भी धर्म-विरुद्ध कार्य नहीं करूंगा। आप लोग ऐसा उपाय करें जिससे मेरा और इन्द्राणी का कल्याण हो!’
इस पर देवताओं एवं ऋषियों ने इन्द्राणी से कहा- ‘हे देवी! आप पतिव्रता और सत्यनिष्ठा हैं। यह स्थावर जंगम सारा जगत् आपके आधार से टिका हुआ है। आप एक बार नहुष के पास चलें। आपके संकल्प मात्र से वह पापी शीघ्र नष्ट हो जाएगा तथा देवराज शक्र को फिर से अपना खोया हुआ ऐश्वर्य प्राप्त हो जाएगा।’
शची ने देवताओं एवं ऋषियों की यह सलाह मान ली तथा वह अत्यंत संकोच के साथ नहुष के पास गई। नहुष शची को आया देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और कहने लगा- ‘शुचिस्मिते! मैं तीनों लोकों का स्वामी हूँ। इसलिए सुंदरी तुम मुझे पति रूप से स्वीकार कर लो।’
नहुष के ऐसा कहने पर इंद्राणी भय से कांपने लगी। उसने हाथ जोड़कर ब्रह्माजी को नमस्कार किया तथा देवराज नहुष से कहा- ‘हे सुरेश्वर! मैं आपसे कुछ अवधि मांगती हूँ। अभी यह ज्ञात नहीं है कि देवराज शक्र कहाँ पर हैं तथा वे लौट कर आएंगे अथवा नहीं! इसकी ठीक-ठीक खोज करने पर यदि उनका पता नहीं लगा तो मैं आपकी सेवा करने लगूंगी।’
नहुष ने इंद्राणी की यह बात स्वीकार कर ली तथा इंद्राणी पुनः देवगुरु बृहस्पति के घर आ गई। इन्द्राणी की बात सुनकर समस्त देवता एवं ऋषि इन्द्र के बारे में विचार करने लगे। वे लोग देवाधिदेव भगवान विष्णु से मिले तथा उनसे कहा- ‘वृत्रासुर का वध करने के बाद इन्द्र को ब्रह्महत्या ने घेर लिया है। इसलिए आप इन्द्र की इस पाप से मुक्ति का उपाय बताएं।’
देवताओं की यह बात सुनकर भगवान श्री हरि विष्णु ने कहा- ‘इन्द्र अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करके मेरा ही पूजन करे, मैं उसे ब्रह्महत्या से मुक्त कर दूंगा। इससे वह सब प्रकार के भय से छूटकर फिर से देवताओं का राजा हो जाएगा और दुष्टबुद्धि नहुष अपने कुकर्म से नष्ट हो जाएगा।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता