Saturday, July 27, 2024
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ब्रिटिश-भारत में साम्प्रदायिक समस्या के मुख्य कारण (1)

ब्रिटिश-भारत में साम्प्रदायिक समस्या का मुख्य कारण भारत का मध्यकालीन इतिहास था जब मुसलमानों ने सत्ता, तलवार और लालच के बल पर लाखों हिन्दुओं को मुसलमान बनाया। इस्लामी आक्रांताओं का यह कार्य हिन्दुओं के लिए अत्यंत अपमानजनक था तथा उनके गौरव को पददलित करने वाला था। इस कारण भारतवासी कभी नहीं भूल पाये कि उनकी पहचान हिन्दू धर्म से है।

(1) इस्लाम का भारत की भूमि में बाहर से आना

‘हिन्दू-संस्कृति’ भारत भूमि पर जन्मी थी। इसी को रूढ़ अर्थ में ‘हिन्दू-धर्म’ तथा ‘हिन्दू-जाति’ कहा गया। यह भारत-भूमि पर आकार लेने वाला प्रथम धर्म है। इसलिए इसे ‘सनातन-धर्म’ भी कहते हैं। बाद में बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि कई पंथ इसी धर्म से निकले जिन्हें स्वीकार करने में हिन्दुओं को संकोच नहीं हुआ किंतु इस्लाम, विजेता के रूप में बाहर से भारत में आया इसलिए भारतवासियों के लिए इस्लाम को अंगीकार करना सहज रूप से स्वीकार्य नहीं हुआ।

(2) हिन्दू धर्म एवं इस्लाम में मौलिक भिन्नताएँ

जिस समय इस्लाम ने भारत में प्रवेश किया, उस समय तक लगभग समस्त हिन्दू जाति देवी-देवताओं की मूर्तियाँ तथा उनके लिए मंदिर बनाकर उनकी पूजा करती थी किंतु इस्लाम में मूर्ति-पूजा को अधर्म समझा जाता था। इसलिए इस्लामी आक्रांताओं ने हिन्दू-देवालयों एवं देव-विग्रहों को तोड़ने के प्रति विशेष आग्रह प्रदर्शित किया तथा इस दुराग्रह को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। इसी प्रकार हिन्दू-जाति गाय को देवी-देवताओं के समान पूज्य मानती आई है किंतु मुसलमान गायों को काटकर उनका मांस खाते थे। इस कारण हिन्दू कभी भी इस्लाम के प्रति मुलायम दृष्टिकोण नहीं अपना सके।

हिन्दू अनेक देवी-देवताओं में विश्वास करते थे किंतु मुसलमान एक अल्लाह में विश्वास करते हैं। हिन्दू गंगा नहाते हैं एवं चार धामों की यात्रा करते हैं जबकि मुसलमान हज करने मक्का जाते हैं। हिन्दू तिलक, चोटी एवं जनेऊ को अपनी पहचान मानते हैं जबकि मुसलमान सुन्नत, बुर्का एवं तीन तलाक को मुसलमानियत की पहचान समझते हैं। ऐसी स्थिति में ये दोनों संस्कृतियां एक दूसरे को कैसे सहन कर सकती थीं! हिन्दुओं और मुसलमानों ने अपनी-अपनी दाढ़ी-मूंछों, भाषा, खानपान एवं पहनावे में भी यत्न-पूर्वक अंतर बनाए रखा। मुसलमान अपनी पहचान कुरान से तथा हिन्दू अपनी पहचान वेद, रामायण एवं गीता से करते रहे।

(3) हिन्दुओं द्वारा स्वयं को रूढ़ियों की कारा में बंद कर लेना

हिन्दुओं ने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए स्वयं को जातियों, संस्कारों, धार्मिक परम्पराओं एवं रूढ़ियों की ऐसी मजबूत कारा में बंद कर लिया जिसमें मुस्लिम जीवन शैली की स्वीकार्यता के लिए किंचित भी अवकाश नहीं था। वे मुसलमानों के हाथ का छुआ अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करते थे। शुद्धता एवं पवित्रता के प्रति हिन्दुओं के इस आग्रह को मुसलमान उनका घमण्ड समझते थे। ऐसी परिस्थितियों में भारत में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता की आग सदैव प्रज्जवलित रही।

(4) मुसलमानों का राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ जाना

भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व, मुस्लिम समाज दो वर्गों में विभाजित था- प्रथम वर्ग में वे लोग थे जो विदेशों से आये आक्रांताओं, व्यापारियों तथा धर्म प्रचारकों के वंशज थे। दूसरे वर्ग में वे भारतीय थे जो भय अथवा लालच से ग्रस्त होकर, परिस्थिति वश, बल-पूर्वक अथवा स्वेच्छा से धर्म-परिवर्तन करके मुसलमान बन गये थे अथवा ऐसे लोगों की सन्तान थे। प्रथम वर्ग के लोग शासन संभालते थे तथा उनका शासन एवं शासकीय नौकरियों पर एकाधिकार था। यह ‘मुस्लिम अभिजात्य वर्ग’ था।

दूसरे वर्ग के लोग खेती-बाड़ी या अन्य छोटे-मोटे काम करते थे। धर्म-परिवर्तन के बाद भी दूसरे वर्ग के आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक स्तर में कोई उल्लेखीय परिवर्तन नहीं हुआ था। प्रथम वर्ग अर्थात् मुस्लिम अभिजात्य वर्ग का राजनीतिक प्रभुत्व 18वीं और 19वीं शताब्दी में बंगाल, अवध तथा दिल्ली द्वारा अँग्रेजों के समक्ष घुटने टेक देने के साथ समाप्त हो चुका था किंतु मुस्लिम अभिजात्य वर्ग, राजनीतिक प्रभुत्व का इतना अधिक अभ्यस्त था कि इसने कभी व्यापार अथवा किसी अन्य कार्य की ओर ध्यान नहीं दिया।

सरलता से धन प्राप्त होते रहने से इस वर्ग में अकर्मण्यता व्याप्त थी। प्रतिष्ठा बनाये रखने के दिखावे ने इस वर्ग को भीतर और बाहर दोनों तरफ से खोखला कर दिया। अंग्रेजों द्वारा किए गए भूमि के स्थायी बन्दोबस्त के कारण अभिजात्य वर्ग के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति और भी दयनीय हो गई।

(5) अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति से दूर रहना

मुसलमानों ने केवल कुरान और हदीस की शिक्षा को ही वास्तविक शिक्षा समझा तथा अँग्रेजी शिक्षा-पद्धति को नहीं अपनाया। इस प्रवृत्ति ने मुसलमानों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रगति को अवरुद्ध कर दिया। अंग्रेजी शिक्षा से वंचित मुसलमानों को सरकारी नौकरियां नहीं मिल सकीं क्योंकि अँग्रेजी राज में सरकारी नौकरियों के लिए अँग्रेजी शिक्षा की डिग्रियां आवश्यक थीं। इस क्षेत्र में हिन्दू उनसे आगे निकल गये।

मुसलमानों की स्थिति के सम्बन्ध में विलियम हण्टर ने लिखा है- ‘एक अमीर, गौरव-पूर्ण तथा वीर जाति को निर्धन तथा निरक्षर जन-समूह में बदल दिया गया और उसके उत्साह तथा गर्व को मिट्टी में मिला दिया गया।’ अँग्रेजों के शासन में मुसलमानों के राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में आई गिरावट के कारण मुसलमान स्वयं को उपेक्षित अनुभव करने लगे और उनमें असन्तोष तथा विद्रोह की भावना पनप गई।

(6) अँग्रेजों का हिंदुओं पर विश्वास एवं मुसलमानों पर अविश्वास

ई.1857 के प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम के बारे में सर जेम्स आउट्रम का मत था- ‘यह विद्रोह मुसलमानों के षड़यंत्र का परिणाम था जो हिन्दुओं की शक्ति के बल पर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे।’ वी. ए. स्मिथ ने लिखा है- ‘यह हिन्दू शिकायतों की आड़ में मुस्लिम षड़यंत्र था जो पुनः मुगल बादशाह के नेतृत्व में मुस्लिम सत्ता स्थापित करना चाहते थे।’

विद्रोह के काफी समय बाद बेगम जीनत महल ने देशी शासकों को पत्र लिखे, जिनमें उसने मुगल बादशाह की अधीनता में, अँग्रेजों को देश से बाहर निकालने की बात लिखी। अतः जेम्स आउट्रम एवं स्मिथ के कथनों में कुछ सच्चाई प्रतीत होती है।

बहादुरशाह के मुकदमे के जज एडवोकेट जनरल मेजर हैरियट ने मुकदमे में पेश हुए समस्त दस्तावेजों का अच्छी तरह से अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला- ‘आरम्भ से ही षड्यंत्र सिपाहियों तक सीमित नहीं था और न उनसे वह शुरू ही हुआ था, अपितु इसकी शाखाएं राजमहल (लालकिला) और शहर (दिल्ली) में फैली हुई थीं।’

(7) ब्रिटिश-भारत में साम्प्रदायिक समस्या के मुख्य कारण 1857 की क्रांति

यह सच है कि ई.1857 की क्रांति में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों ने अधिक बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था किंतु इस सच्चाई से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस क्रांति में देश के केवल 1/3 मुसलमानों ने भाग लिया था। बड़ी मुस्लिम शक्तियों में केवल अवध की बेगम जीनत महल तथा लाल किले का बादशाह बहादुरशाह ही इस क्रांति में सम्मिलित हुए थे। जबकि व्यापक फलक पर नाना साहब, झांसी की रानी, तात्या टोपे, कुंवरसिंह और अवध के हिन्दू ताल्लुकेदारों ने क्रांति का वास्तविक संचालन किया था।

लॉर्ड केनिंग आरम्भ में इसे मुसलमानों द्वारा किया गया षड्यन्त्र मानते थे किंतु बाद में उन्होंने अपनी धारणा बदल ली। उन्होंने भारत सचिव को लिखे एक पत्र में स्वीकार किया- ‘मुझे कोई संदेह नहीं है कि यह विद्रोह ब्राह्मणों और दूसरे लोगों के द्वारा धार्मिक बहानों पर राजनीतिक उद्देश्यों के लिये भड़काया गया था।’

उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जहाँ हिन्दू सेनानायक, विदेशी शासन से मुक्ति के लिये लड़े, वहीं मुसलमानों के एक बड़े वर्ग ने बहादुरशाह के नेतृत्व में मुगल शासन की पुनर्स्थापना के लिये संघर्ष किया। लॉर्ड केनिंग द्वारा प्रस्तुत इस निष्कर्ष के उपरांत भी भारत में नियुक्त अंग्रेज पूरी तरह हिन्दुओं अथवा पूरी तरह मुसलमानों को इस क्रांति के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सके किंतु उनमें यह सामान्य धारणा बन गई थी कि ई.1857 की क्रांति में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों ने अधिक उत्साह दिखाया था।

बहुत से अंग्रेज मानते थे कि ई.1857 का विद्रोह मुसलमानों द्वारा, अपने खोये हुए शासन की पुनर्प्राप्ति का प्रयास था। अतः इस क्रांति के दमन के बाद अँग्रेजों ने मुसलमानों पर विश्वास करना बंद करके हिन्दुओं का पक्ष लेना आरम्भ कर दिया। शासन के इस असमान व्यवहार के कारण हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दूरियां और बढ़ीं। इस नीति से अंग्रेज हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सैंकड़ों सालों से चली आ रही खाई को और चौड़ी करके उसका लाभ अपने पक्ष में लेना चाहते थे।

………… लगातार (2)

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