Saturday, July 27, 2024
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82. चीटियों और टिड्डियों की तरह छज्जू के साथ हो गए बागी हिन्दू!

तुर्की सरदार सत्ता के इतने भूखे थे कि वे सत्ता प्राप्त करने के लिए अपने किसी भी स्वामी के साथ गद्दारी कर सकते थे! लकुवाग्रस्त सुल्तान कैकूबाद तथा शिशु सुल्तान क्यूमर्स की निर्मम हत्याएं करके 13 जून 1290 को मलिक फीरोज खिलजी ‘जलालुद्दीन फीरोजशाह खिलजी’ के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। उस समय उसकी आयु 70 वर्ष थी।

तुर्की अमीरों के उत्पात से बचने के लिए उसने दिल्ली के लालकोट में अपनी ताजपोशी नहीं करवाई जिसमें बलबन रहा करता था। जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली के बाहर कीलूगढ़ी अथवा किलोखरी नामक दुर्ग में तख्त पर बैठा और उसी को अपनी राजधानी बना लिया। यहाँ उसने कैकुबाद के समय से निर्माणाधीन चल रहे महल को पूर्ण करवाया और उसी में रहने लगा।

सुल्तान बनने के बाद जलालुद्दीन ने दिल्ली के उन अमीरों का विश्वास जीतने का प्रयास किया जिन्होंने खिलजियों का विरोध नहीं किया था। उसने शासकीय पदों पर खिलजियों के साथ-साथ अन्य मुसलमानों को भी नियुक्त किया। उसने फखरुद्दीन को उसके पद पर अर्थात् दिल्ली का कोतवाल बने रहने दिया। सुल्तान जलालुद्दीन खिजली ने बलबन के भतीजे मलिक छज्जू को कड़ा-मानिकपुर का हाकिम बना दिया जो अपने कुल में अकेला ही जीवित बचा था। इससे सुल्तान जलालुद्दीन बहुत से तुर्की अमीरों का विश्वासपात्र बन गया।

सुल्तान जलालुद्दीन ने अपने पुत्रों एवं भाइयों को उच्च पदों पर नियुक्त किया। उसने सबसे बड़े पुत्र महमूद को खानखाना, दूसरे पुत्र को अर्कली खाँ की तथा तीसरे पुत्र को कद्र खाँ की उपाधियाँ दीं तथा अपने छोटे भाई को यग्रास खाँ की उपाधि देकर ‘आरिजे मुमालिक’ अर्थात् सैनिक मंत्री बना दिया। सुल्तान जलालुद्दीन ने अपने भतीजों अल्लाउद्दीन तथा असलम बेग को भी उच्च पद दिए तथा अपने एक निकट सम्बन्धी मलिक अहमद चप को ‘अमीरे हाजिब’ के पद नियुक्त किया।

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जब जलालुद्दीन खिलजी को सुल्तान बने हुए एक साल हो गया तो दिल्ली के कोतवाल फखरूद्दीन ने दिल्ली के सैंकड़ों नागरिकों के साथ सुल्तान के समक्ष उपस्थित होकर उसे किलोखरी से दिल्ली आने के लिए आमन्त्रित किया। सुल्तान ने उन लोगों के निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया और वह अपने परिवार तथा मंत्रियों सहित दिल्ली आ गया।

जब जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली में लालकोट के सामने पहुंचा तो पूर्ववर्ती सुल्तानों के सम्मान में अपने घोड़े से उतर पड़ा तथा उसने उस तख्त पर बैठने से मना कर दिया जिस पर कभी कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश तथा बलबन जैसे महान सुल्तान बैठा करते थे। जलालुद्दीन खिलजी ने रोते हुए कहा कि वह इस सिंहासन पर नहीं बैठेगा जिसके सामने वह कई बार साधारण अमीर की हैसियत से खड़ा हुआ था।

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जलालुद्दीन खिलजी के सुल्तान बनने के बाद उन तुर्की अमीरों में विद्रोह की सुगबुगाहट आरम्भ हुई जो उच्च पदों पर पहुंचने के आकांक्षी थे। सबसे पहले बलबन के भतीजे मलिक छज्जू ने बगावत का झण्डा उठाया जो कि कड़ा-मानिकपुर का गवर्नर बनाया गया था।

मलिक छज्जू ने भरे दरबार में सुल्तान की अधीनता स्वीकार की थी और तभी से राजभक्ति प्रदर्शित कर रहा था किंतु असन्तुष्ट तुर्क सरदारों ने उसे विद्रोह करने के लिए उकसाया। दूसरी ओर अनेक युवा खिलजी भी सुल्तान की इस नीति से अंसतुष्ट थे कि सुल्तान अन्य मुसलमानों को भी शासन में ऊँचे पद दे रहा था। इसलिए वे भी सुल्तान के प्रति विद्रोह की भावना रखते थे।

इन परिस्थितियों में मलिक छज्जू ने विद्रोह का झंडा खड़ा करके स्वयं को स्वतन्त्र सुल्तान घोषित कर दिया। उसने कड़ा-मानिकपुर में अपना राज्याभिषेक करवाया तथा अपने नाम की मुद्राएं अंकित करवाईं। उसने ‘मुगीसुद्दीन’ की उपाधि धारण करके अपने नाम में खुतबा पढ़वाया। इसके बाद अपने पूर्वज बलबन का सिहांसन प्राप्त करने के लिए एक विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया।

जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि इस अवसर पर आसपास के हिन्दू रावत एवं जमींदार चींटियों और टिड्डियों की तरह मलिक छज्जू के साथ एकत्रित हो गए। प्रसिद्ध रावतों एवं पायकों ने पान का बीड़ा लेकर संकल्प लिया कि वे सुल्तान जलालुद्दीन के छत्र पर अधिकार जमा लेंगे। पीरमदेव कोतला नामक एक प्रसिद्ध हिन्दू रावत इनमें प्रमुख था। इतिहास की पुस्तकों में उसे भीमदेव भी लिखा गया है।

जब जलालुद्दीन खिलजी को मलिक छज्जू के विद्रोह की सूचना मिली तब उसने अपने बड़े पुत्र खानाखाना को दिल्ली की सुरक्षा पर नियुक्त करके स्वयं एक विशाल सेना लेकर मलिक छज्जू का सामना करने के लिए रवाना हुआ।

सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने अपने दूसरे पुत्र अर्कली खाँ को अपनी सेना के हरावल में नियुक्त किया तथा स्वयं मुख्य सेना के साथ रहा। जब तक अर्कली खाँ अपने हरावल के साथ काली नदी पार करता, तब तक मलिक छज्जू काली नदी के उस पार आकर अपना डेरा जमा चुका था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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