रासबिहारी बोस ने 1 सितम्बर 1942 को आजाद हिन्द फौज की स्थापना की थी किंतु कुछ कठिनाइयों के कारण इसे भंग कर देना पड़ा। जब नेजाजी सुभाषचंद्र बोस ने रासबिहारी बोस के साथ काम करने का निश्चय किया तो सुभाष बाबू ने आजाद हिन्द फौज का पुनर्गठन करने का निश्चय किया।
सुभाष द्वारा आजाद हिन्द फौज का पुनर्गठन
सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज को पुनर्गठित करने का काम आरम्भ किया। कुछ ही दिनों में तीन ब्रिगेडों- गांधी ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड और नेहरू ब्रिगेड खड़ी कर दी गई। चुने हुए सैनिकों को लेकर चौथी ब्रिगेड- सुभाष ब्रिगेड भी गठित कर ली गई। भारतीय स्त्री सैनिकों की सेना गठित करने के लिये उनके प्रशिक्षण हेतु सिंगापुर में एक शिविर स्थापित किया गया। इसमें 500 महिला सैनिक रखे गये। उनका नेतृत्व डॉ. लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। आईएनए का कमाण्डर इन चीफ बनने के बाद पूर्व एशिया में इण्डियन इण्डिपेण्डेंस आंदोलन का नेतृत्व भी सुभाष चंद्र के हाथों में आ गया। आजाद हिन्द फौज में सैनिकों की भर्ती और प्रशिक्षण की अलग-अलग व्यवस्था की गई। स्त्री तथा पुरुष सैनिकों के लिये अलग-अलग प्रशिक्षण शिविर स्थापित किये गये। सैनिकों को हिन्दुस्तानी भाषा में निर्देश दिये जाते थे। 6 माह के प्रशिक्षण के बाद रंगरूटों को आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित कर लिया जाता था। प्रवासी भारतीयों को इस आन्दोलन से जोड़ने के लिये सुभाषचन्द्र बोस ने हाँगकाँग, शंघाई, मनीला, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो सहित कई देशों का दौरा किया और प्रवासी भारतीयों को अपने उद्देश्यों से अवगत कराया। उनके प्रेरक और चुम्बकीय व्यक्तित्व ने प्रवासी भारतीयों को बहुत आकर्षित किया और उन्होंने तन-मन-धन से इस आन्दोलन को सहयोग दिया। दिसम्बर 1943 में आजाद हिन्द फौज की स्थिति इस प्रकार से थी-
प्रथम डिवीजन: सेनापति ले. कर्नल एम. जेड. कियानी (बाद में मेजर जनरल) इसमें लगभग 10,000 सैनिक थे जो मोर्चे पर जाने के लिये तैयार थे। इसकी तीन ब्रिगेडों का नेतृत्व क्रमशः ले. कर्नल आई. जे. कियानी, ले. कर्नल गुलजारा सिंह और ले. कर्नल अजीज अहमद खाँ को सौंपा गया।
दूसरी डिवीजन: इसमें अधिकतर नागरिक रंगरूट थे और इसकी कमान ले. कर्नल एन. एस. भगत को सौंपी गई।
तीसरी डिवीजन: इसमें भी नागरिक रंगरूट सम्मिलित थे और इसका प्रशिक्षण अभी जारी था। इसका केन्द्र सिंगापुर में था और इसकी कमान मेजर जनरल जे. के. भौंसले को सौंपी गई।
सुभाष ब्रिग्रेड: शाहनवाज खाँ की कमान में सुभाष ब्रिगेड भी गठित की गई। इस ब्रिगेड में प्रथम डिवीजन के चुने हुए सैनिकों को ही भरती किया गया।
दक्षिण पूर्वेशियाई देशों के प्रवासी भारतीयों के प्रयास
दक्षिण पूर्वेशियाई देशों- थाइलैण्ड, मलाया, सिंगापुर, बर्मा आदि में 30 लाख से अधिक प्रवासी भारतीय रहते थे। ये देश भी भारत की तरह अँग्रेजों के अधीन थे। इसलिये इन देशों ने सुभाषचंद्र बोस का स्वागत किया। लगभग उन्हीं दिनों बैंकाक में पुराने क्रांतिकारी अमरसिंह ने इण्डियन इण्डिपेंडेंस लीग का गठन किया। अमरसिंह भारतीय जेलों में 22 साल तक जेल भुगत चुके थे। रामानंद पुरी ने थाईलैण्ड में इण्डियन नेशलन कौंसिल का गठन किया। उस्मान खाँ ने शंघायी में गदर पार्टी बनाई। इन सभी दलों ने जापान की सहायता से भारत की मुक्ति का अभियान चलाया। जब 1942 ई. में जापानी फौज ने बर्मा पर आक्रमण किया था तब प्रवासी भारतीय प्रीतमसिंह भी अपने साथ कुछ भारतीयों को लेकर जापानी फौज के साथ मोर्चे पर गये। प्रीतमसिंह तथा उनके साथी, अँग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों को यह समझाने का प्रयास करते थे कि वे जापान की सेना पर आक्रमण न करें क्योंकि जापानियों ने भारत की स्वाधीनता का समर्थन किया है।
युद्ध के मोर्चे पर
सुभाषचंद बोस ने जापानी नेताओं को इस बात के लिये सहमत कर लिया कि भारत-बर्मा सीमा पर जापानी सेना के साथ आजाद हिन्द फौज भी युद्ध लड़े। सुभाषचंद्र की योजना थी कि आजाद हिन्द फौज बर्मा मोर्चे से भारत की सीमा में प्रवेश करके बंगाल और असम से ब्रिटिश फौजों के पीछे धकेल दे। उनका विश्वास था कि आजाद हिन्द फौज की सफलता देखकर भारतीय जनता, अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर देगी जिससे भारत को मुक्त करवाना सरल हो जायेगा। भारत की जो भूमि मुक्त कराई जायेगी, उसका शासन आाजद हिन्द फौज को सौंप दिया जायेगा और उस भूमि पर केवल भारत का तिंरगा फहराया जायेगा। इस योजना के अनुसार आजाद हिन्द फौज की सुभाष ब्रिगेड, भारत-बर्मा की सीमा पर पहुँच गई। सुभाषचन्द्र बोस ने रंगून पहुँच कर अपना मुख्यालय स्थापित किया। सुभाष ब्रिगेड की छोटी-छोटी टुकड़ियों ने भारतीय अधिकारियों के नेतृत्व में आगे बढ़ना आरम्भ किया।
1942 ई. में जब जापानियों ने बर्मा अधिकृत किया था, उस समय की तुलना में अब परिस्थिति काफी बदल चुकी थी। अब भारत-बर्मा सीमा पर अँग्रेजों ने अपनी स्थित काफी मजबूत कर ली थी। ब्रिटिश सेनाएं न केवल रक्षात्मक युद्ध के लिये अपितु आक्रमण के लिये भी तैयार थीं। आजाद हिन्द फौज के सैनिकों का मनोबल काफी ऊँचा था परन्तु युद्ध की दृष्टि से फौज पूरी तरह से सुसज्जित नहीं थी।
मेजर जनरल चटर्जी ने अपनी पुस्तक इण्डियन स्ट्रगल फॉर फ्रीडम में लिखा है- ‘हमारी सेना जब बर्मा पहुँची तब उसके पास न तो तोपखाना था और न ही मोर्टार। मशीनगनें भी मध्यम दूरी तक मार करने वाली थीं और उनकी हालत भी खस्ता थी क्योंकि मरम्मत के लिये आवश्यक पुर्जों की कमी थी। हमारी छापामार रेजीमेन्ट के पास न तो वायरलेस उपकरण थे और न टेलीफोन। पहाड़ी इलाके में अतिरिक्त गोला-बारूद और हथियारों को ढोने के लिये परिवहन की कोई सुविधा या साधन भी उपलब्ध नहीं थे। चिकित्सा सेवा तो नाममात्र की थी। सैनिकों के पास जूते तक नहीं थे। उन्हें नंगे पैर जंगलों में जाना पड़ता था।’
जनवरी 1994 के अन्त में सुभाष ब्रिगेड की एक बटालियन को अराकान की कलादान घाटी में तथा दूसरी और तीसरी बटालियन को चिन पहाड़ियों की ओर भेजा गया। पहली बटालियन ने कलादान घाटी में पश्चिमी अफ्रीका की हब्शी सेना को परास्त कर आगे बढ़ना आरम्भ किया तथा पलेतवा एवं दलेतमे नामक स्थानों पर शत्रु सेना को परास्त कर क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। मई 1944 में उसने मादोक नामक स्थान जीत लिया जो भारत की भूमि पर अँग्रेजों की अग्रिम चौकी थी। इस प्रकार आजाद हिन्द फौज ने भारत की भूमि पर कदम रख दिये। शीघ्र ही अँग्रेजों की सेना ने जोरदार आक्रमण किया। इस अवसर पर जापानी सेना मादोक के सैनिकों को सहायता पहुँचाने में असमर्थ रही। अतः आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों को मादोक से हट जाने को कहा गया परन्तु भारतीय सैनिक डटे रहे और मई से सितम्बर तक उन्होंने इस क्षेत्र की रक्षा की और तब तक मादोक में तिरंगा लहराता रहा।
सुभाष ब्रिगेड की दूसरी और तीसरी बटालियनों ने भी अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया। उन्हें कलेवा से होकर टासू और फोर्ट हवाइट के मार्ग की रक्षा का भार सौंपा गया। इस क्षेत्र में आजाद हिन्द फौज के सैनिकों ने मित्र राष्ट्रों के छापामारों का सफाया किया तथा मेजर मार्निंग की सेना को परास्त करके अँग्रेजों के सामरिक दुर्ग क्लैंग-क्लैंग को जीत लिया। आजाद हिन्द फौज की वीरता से प्रसन्न होकर जापानी सेनापति ने समस्त सुभाष ब्रिगेड को कोहिमा की ओर कूच करने का आदेश दिया। यह निश्चय किया गया कि इम्फाल का पतन होते ही सुभाष ब्रिगेड ब्रह्मपुत्र नदी को पार करके बंगाल में प्रवेश कर जाये। इस बीच आजाद हिन्द फौज की दूसरी टुकड़ियां जापान के मंजूरियाई डिवीजन के साथ कोहिमा पहुँच गईं और घमासान युद्ध के बाद कोहिमा पर अधिकार जमा लिया। इसके बाद युद्ध के अन्य क्षेत्रों में जापानियों की पराजय का सिलसिला आरम्भ हो गया। इसका लाभ उठाते हुए अँग्रेज इम्फाल में नई कुमुक पहंचाने में सफल रहे। इससे इम्फाल बच गया। अब अँग्रेजों ने दीमापुर और कोहिमा की तरफ से जोरदार हमला किया। इस कारण जापानियों के साथ-साथ आजाद हिन्द फौज को भी पीछे हटना पड़ा।
गांधी ब्रिगेड को अप्रैल के आरम्भ में इम्फाल की तरफ भेजा गया। जापानियों ने सोचा था कि अब तक इम्फाल का पतन हो गया होगा परन्तु मार्ग में सूचना मिली कि फलेल के निकट घमासान युद्ध चल रहा है। इस पर गांधी ब्रिगेड के छापामार सैनिकों ने फलेल के हवाई अड्डे पर अधिकार करके वहाँ मौजूद वायुयानों को नष्ट कर दिया। इस अभियान में गांधी ब्रिगेड के लगभग 250 सैनिक मारे गये। फिर भी गांधी ब्रिगेड बहादुरी के साथ डटी रही और अँग्रेजों को आगे नहीं बढ़ने दिया। जून 1944 में रसद पानी और गोला-बारूद की कमी से गंाधी ब्रिगेड की स्थिति बिगड़ने लगी, जबकि दूसरी तरफ नई कुमुक आ जाने से अँग्रेज सेना की स्थिति मजबूत हो गई। वर्षा ऋतु में टास-फलेल सड़क बह गई और आजाद हिन्द फौज को रसद मिलना भी बन्द हो गया। ऐसी स्थिति में कुछ दिनों बाद गांधी ब्रिगेड को भी जापानी सेना के साथ बर्मा लौटना पड़ा। इस प्रकार, आजाद हिन्द फौज का मुख्य अभियान जो मार्च 1944 में आरम्भ हुआ था, वह समाप्त हो गया। इस अभियान के दौरान वह भारतीय सीमा में लगभग 150 मील भीतर तक प्रवेश करने में सफल रही परन्तु रसद और गोला-बारूद के अभाव में अधिक दिनों तक उस क्षेत्र की रक्षा नहीं कर सकी। इस अभियान में आजाद हिन्द फौज के लगभग 4000 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए।
सुभाष चंद्र बोस के अन्तिम दिन
अब ब्रिटिश सेना ने बर्मा पर पुनः अधिकार करने के लिये आक्रमण किया। उनका आक्रमण इतना जोरदार था कि जापानियों को निरन्तर पीछे हटना पड़ा। जापानी सेना रंगून की रक्षा का भार, आजाद हिन्द फौज को देकर बर्मा से चली गई। आजाद हिन्द फौज ने कुछ दिनों तक बहादुरी के साथ नगर की रक्षा की परन्तु मई 1945 के आरम्भ में रंगून पर अँग्रेजों का अधिकार हो गया। आजाद हिन्द फौज के सैकड़ों सैनिक बन्दी बना लिये गये। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस रंगून से बैंकाक और वहाँ से सिंगापुर चले गये। जापानियों की सहायता से भारत को स्वतन्त्र कराने की आशा समाप्त हो गई। क्योंकि इस समय तक जापान के साथी राष्ट्रों- जर्मनी और इटली का पतन हो चुका था और जापान अकेला ही मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध लड़ रहा था। अमरीका ने 6 और 8 अगस्त 1945 को हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिराये। इसके बाद रूस ने भी जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 15 अगस्त 1945 को जापान ने मित्र-राष्ट्रों के समक्ष समर्पण कर दिया। सुभाषचन्द्र बोस अपने एक साथी कर्नल हबीब उर रहमान के साथ 17 अगस्त 1945 को एक लड़ाकू विमान से सैगांव से टोकियो के लिये रवाना हुए। 17 अगस्त की रात्रि को विमान में सवार लोगों ने तूरेन (हिन्द-चीन) में विश्राम किया। अगले दिन विमान ताइपेह पहुँचा। ताइपेह से रवाना होते ही विमान में अचानक आग लग गई। इस कारण कुछ जापानी अधिकारियों सहित नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की भी मृत्यु हो गई। कर्नल हबीब उर रहमान जीवित बच गये। बहुत से लोगों का विश्वास है कि नेताजी उस दुर्घटना में नहीं मारे गये थे। मित्र राष्ट्रों के हाथों में पड़ने से बचने के लिये वे भूमिगत हो गये थे। भारत सरकार विमान दुर्घटना को सही मानती है। जापान सरकार का भी मानना है कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को हवाई दुर्घटना में हुई थी और ताइपेह में उनका अन्तिम संस्कार किया गया था। उनकी भस्मी को सम्मानपूर्वक टोकियो लाया गया और 14 सितम्बर 1945 को उसे रियो कोजू मन्दिर में रख दिया गया। इस घटना के बाद संसार ने सुभाष को नहीं देखा किंतु बहुत से लोगों ने सुभाष बाबू को देखने एवं उनसे मिलने का दावा किया है।