महाराजा सूरजमल के उत्थान से भारत के इतिहास को एक नई दिशा मिलने लगी थी किंतु मुसलमानों द्वारा धोखे से की गई महाराजा सूरजमल की हत्या ने भारत के इतिहास का रुख उलट दिया।
अब तक सूरजमल ने दिल्ली के चारों तरफ के इलाके छीन लिये थे। वह मुगलों की दो पुरानी राजधानियों- आगरा तथा फतहपुर सीकरी पर अधिकार कर चुका था तथा बहादुरगढ़ पर अधिकार करके दिल्ली के अत्यंत निकट पहुंच गया था। इसलिये दिल्ली की मुस्लिम सत्ता को अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ने के अतिरिक्त ओर कोई चारा नहीं रहा।
इस समय रूहेले ही नजीब खाँ उर्फ नजीबुद्दौला के नेतृत्व में दिल्ली की रक्षा कर रहे थे। रूहेला सरदार नजीबुद्दौला शाहआमल (द्वितीय) के मुख्तार खास के पद पर नियुक्त था। उसने सूरजमल पर नकेल कसने का विचार किया। सूरजमल ने नजीबुद्दौला से समझौता करने का प्रयास किया किंतु नजीबुद्दौला सहमत नहीं हुआ।
इस पर सूरजमल ने जवाहरसिंह को फर्रूखाबाद के दुर्ग में रुकने को कहा और स्वयं 23 दिसम्बर 1763 को यमुना पार करके गाजियाबाद चला गया। महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद के आसपास के कई गांवों को जला दिया तथा यमुना के पश्चिमी किनारे पर डेरा लगाया।
कुछ दिनों बाद जाट सेना दिल्ली के दक्षिण में आकर बैठ गई। इस पर रूहेला सरदार नजीबुद्दौला दिल्ली से बाहर निकला और जाटों से चार मील पहले खिज्राबाद में आकर बैठ गया। इस पर सूरजमल फिर से यमुना पार करके अपनी पुरानी जगह पर जाकर बैठ गया। 24 दिसम्बर को नजीबुद्दौला ने सूरजमल से कहलवाया कि वह अपने राज्य को लौट जाये। महाराजा सूरजमल ने नजीबुद्दौला को दिल्ली से बाहर आने की चुनौती दी।
इस पर नजीबुद्दौला रात्रि के अंधेरे में दिल्ली से बाहर निकला और 25 दिसम्बर का सूरज निकलने से पहले ही दिल्ली से 16 किलोमीटर दूर हिण्डन नदी के पश्चिमी तट पर आकर डेरा गाढ़ लिया। उसके साथ लगभग 10 हजार सिपाही थे। महाराजा सूरजमल के पास 25 हजार सिपाही थे। सूरजमल ने नजीबुद्दौला को तीन तरफ से घेरने की योजना बनाई और अपने 5 हजार सिपाहियों को नजीबुद्दौला के पीछे की तरफ भेज दिया। 25 दिसम्बर की शाम के समय राजा सूरजमल अपनी सेना की स्थिति का अवलोकन करने के लिये अपनी एक छोटी सी टुकड़ी के साथ चक्कर लगाने के लिये निकला।
रूहेला सैनिकों को महाराजा सूरजमल के आगमन की सूचना मिल गई। वे हिण्डन नदी के कटाव में छिप कर बैठ गये। जब महाराजा वहाँ से होकर निकला तो रूहेलों ने अचानक महाराजा एवं उसके सैनिकों पर हमला बोल दिया। महाराजा एवं उसके सैनिकों को संभलने का अवसर ही नहीं मिला। सैयद मोहम्मद खाँ बलूच ने महाराजा के पेट में दो-तीन बार अपना खंजर मारा, एक सैनिक ने महाराजा की दांयी भुजा काट दी।
पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-
भुजा के गिरते ही महाराजा धराशायी हो गया। उसी समय उसके शरीर के टुकड़े कर दिये गये। एक रूहेला सैनिक महाराजा की कटी हुई भुजा को अपने भाले की नोक में पताका की भांति उठाकर नजीबुद्दौला के पास ले गया। इस प्रकार 25 दिसम्बर 1763 की संध्या में ठीक उस समय हिन्दूकुल गौरव महाराजा सूरजमल की हत्या हो गई जब भगवान भुवन भास्कर दिन भर का कार्य निबटा कर प्रस्थान करने की तैयारी में थे।
किसी के लिए भी अचानक ही विश्वास करना कठिन था कि उस प्रतापी महाराजा सूरजमल की हत्या इस प्रकार के छल से की जा सकती है! महाराजा सूरजमल अठारहवीं सदी के भारत का निर्माण करने के लिये उत्तरदायी प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ जब उत्तर भारत की राजनीति जबर्दस्त हिचकोले खा रही थी तथा देश विनाशकारी शक्तियों द्वारा जकड़ लिया गया था।
उस काल में नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली ने उत्तर भारत में बहुत बड़ी संख्या में मनुष्यों तथा गायों को मार डाला और तीर्थों तथा मंदिरों को नष्ट कर दिया। देश पर चढ़कर आने वाले आक्रांताओं को रोकने वाला कोई नहीं था। श्रीविहीन हो चुके मुगल, न तो दिल्ली का तख्त छोड़ते थे और न अफगानिस्तान से आने वाले आक्रांताओं को रोकते थे।
उस काल में उत्तर भारत के शक्तिशाली राजपूत राज्य, मराठों की दाढ़ में पिसकर छटपटा रहे थे। मराठे स्वयं भी नेतृत्व की लड़ाई में उलझे हुए थे। होलकर, सिंधिया, गायकवाड़ और भौंसले, उत्तर भारत के गांवों को नौंच-नौंच कर खा रहे थे। जब एक मराठा सरदार चौथ और सरदेशमुखी लेकर जा चुका होता था तब दूसरा आ धमकता था।
बड़े-बड़े महाराजाओं से लेकर छोटे जमींदारों की बहुत बुरी स्थिति थी। जाट और मराठे निर्भय होकर भारत की राजधानी दिल्ली के महलों को लूटते थे। जब शासकों की यह दुर्दशा थी तब जन-साधारण की रक्षा भला कौन करता! भारत की आत्मा करुण क्रंदन कर रही थी।
चोरों ओर मची लूट-खसोट के कारण जन-जीवन की प्रत्येक गतिविधि- कृषि, पशुपालन, कुटीर धंधे, व्यापार, शिक्षण, यजन एवं दान ठप्प हो चुके थे। शिल्पकारों, संगीतकारों, चित्रकारों, नृतकों और विविध कलाओं की आराधना करने वाले कलाकार भिखारी होकर गलियों में भीख मांगते फिरते थे। निर्धनों, असहायों, बीमारों, वृद्धों, स्त्रियों और बच्चों की सुधि लेने वाला कोई नहीं था। ऐसे घनघोर तिमिर में महाराजा सूरजमल का जन्म उत्तर भारत के इतिहास की एक अद्भुत घटना थी।
महाराजा ने राजनीति में विश्वास और वचनबद्धता को पुनर्जीवित किया। हजारों शिल्पियों एवं श्रमिकों को काम उपलब्ध कराया। ब्रजभूमि को उसका क्षीण हो चुका गौरव लौटाया। गंगा-यमुना के हरे-भरे क्षेत्रों से रूहेलों, बलूचों तथा अफगानियों को खदेड़कर किसानों को उनकी धरती वापस दिलवाई तथा हर तरह से उजड़ चुकी बृज भूमि को एक बार फिर से धान के कटोरे में बदल दिया।
महाराजा सूरजमल ने मुगलों और दुर्दान्त विदेशी आक्रान्ताओं का भारतीय शक्ति से परिचय कराया तथा अपने पिता की छोटी सी जागीर को न केवल भरतपुर, मथुरा, बल्लभगढ़ और आगरा तक विस्तृत किया अपितु चम्बल से लेकर यमुना तक के विशाल क्षेत्रों का स्वामी बन कर प्रजा को अभयदान दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता