यह बड़ी भारी विजय थी जिसके कारण पूरा दक्खिन काँप उठा था। जीत का सेहरा अपने सिर पर बांधने तथा खानखाना से छुटकार पाने की फिराक में लगे शहजादे मुराद ने भागते हुए दक्खिनियों के पीछे अपना कोई लश्कर नहीं भेजा अन्यथा दक्खिनियों की बड़ी भारी हानि होती। खानखाना तो वैसे भी नहीं चाहता था कि इस शत्रु फौज का और अधिक नुक्सान हो।
सुहेलखाँ पर विजय प्राप्त करके खानखाना फिर से जालना को लौट गया। जब परनाला और गावील के दुर्ग मुराद के हाथ लग गये तो उसने अपने सलाहकार सादिकखाँ के कहने से खानखाना को लिखा कि अब अवसर है कि चलकर अहमदनगर ले लें।
मुराद का पत्र पाकर खानखाना के होश उड़ गये। उसे अनुमान तो था कि शहजादा अपने वचन से फिरेगा किंतु इतनी शीघ्र फिरेगा, इसका अनुमान खानखाना को न था। बहुत सोच विचार कर खानखाना ने मुराद को लिखा कि अभी तो यही उचित है कि इस वर्ष बराड़ में रहकर यहाँ के किलों को फतह करें और जब यह देश पूर्ण रूप से दब जाये तो दूसरे देशों पर जायें। इस लिखित जवाब से मुराद को खानखाना के विरुद्ध मजबूत प्रमाण मिल गया। उसने खानखाना का पत्र ढेर सारे आरोपों के साथ बादशाह अकबर को भिजवा दिया। उसमें प्रमुख शिकायत यह थी कि खानखाना बादशाह से दगा करके चाँद बीबी से मिल गया।
शहजादे का पत्र पाकर अकबर खानखाना पर बड़ा बिगड़ा। उसने खानखाना को दक्खिन से लाहौर में तलब किया और खानखाना की जगह शेख अबुल को दक्षिण का सेनापति बनाकर भेज दिया।