जब माहम अनगा को पता लगा कि बैरामखाँ का बेटा फिर से बादशाह के पास लौट आया है तो उसकी चिंता का पार न रहा। उसे लगा कि अब तक के सब किये धरे पर पानी फिर गया। माहम चाहती थी कि माहम का अपना बेटा आदमखाँ तरक्की करे और उसे खानखाना बनाया जाये किंतु यदि बैरामखाँ का बेटा अकबर के पास रहेगा तो अकबर का ध्यान उस ओर अधिक रहेगा। माहम अनगा का साहस न हुआ कि वह स्वयं अकबर से कुछ कहे। वह अनुभव करने लगी थी कि जब से बैरामखाँ को हज के लिये भेजा गया तब से अकबर माहम अनगा की राय तो जानना चाहता है किंतु उनमें से अमल एक पर भी नहीं करता।
माहम अनगा ने हमीदा बानू को तैयार किया ताकि वह अपने बेटे शहंशाह अकबर को समझाये कि शत्रु के बेटे को अपने घर में पनाह देना ठीक नहीं है। एक दिन जब यह समर्थ हो जायेगा, अपने बाप की ही तरह अहसान फरामोश होकर गद्दारी करेगा। अकबर जानता था कि माहम अनगा और हमीदा बानू कभी भी बैरामखाँ के बेटे का स्वागत नहीं करेंगी किंतु अब वह पहले की तरह कच्चा नहीं रहा था और पुरानी गलतियाँ दोहराना नहीं चाहता था।
अकबर ने मातम पुरसी के बहाने से सलीमा बेगम से मुलाकात की और सारी बातें विस्तार से समझाईं। उसने सलीमा बेगम से कहा कि अपने अतालीक और संरक्षक बैरामखाँ के परिवार की सुरक्षा करना मेरा उतना ही फर्ज है जितना कि अपने पिता हुमायूँ के परिवार की सुरक्षा करना लेकिन माहम अनगा और हमीदाबानू कभी नहीं चाहंेगे कि सलीमा बेगम और रहीम यहाँ रहें। आज नहीं तो कल कोई न कोई बखेड़ा खड़ा होगा ही। इसलिये ऐसा प्रबंध किया जाना आवश्यक है कि माहम अनगा और हमीदाबानू के दिलों से सलीमा बेगम और रहीम के प्रति दुश्मनी का भाव खत्म हो जाये।
सलीमा बेगम भले ही अकबर की फुफेरी बहिन थी किंतु उसने कभी भी खुलकर अकबर से बात नहीं की थी। जाने क्यों उसे यह खुरदरे चेहरे का लड़का कभी भी अच्छा नहीं लगा था लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल गयी थीं और सवाल पसंद नापसंद का न रहकर अस्तित्व को बचाये रखने का हो गया था।
अकबर ने सलीमा बेगम के सामने दो प्रस्ताव रखे। पहला तो यह कि सलीमा बेगम अकबर से निकाह कर ले ताकि माहम अनगा उसकी ओर आँख उठा कर भी नहीं देखे। दूसरा प्रस्ताव यह था कि बालक रहीम का विवाह माहम अनगा की बेटी माह बानू से कर दिया जाये। इस तरह माहम अनगा रहीम के खिलाफ भी न रह सकेगी लेकिन यह दूसरी वाली योजना अभी किसी को न बतायी जाये।
सलीमा बेगम न हाँ कह सकी, न ना। सलीमा बेगम की खुद की कोई औलाद नहीं थी, फिर भी रहीम उसके मरहूम पति बैरामखाँ का बेटा तो था ही। इतनी कम उम्र में पितृहीन हो गये बालक के लिये सलीमा के मन में बहुत दया थी। रहीम की मासूम आँखों में सलीमा बेगम को मरहूम बैरामखाँ का चेहरा दिखाई देता था। यद्यपि बैरामखाँ उम्र में सलीमा बेगम से लगभग दुगुना था किंतु वह अपने पति से बहुत प्रेम करती थी। वह अक्सर तुर्की अदब में कवितायें लिख कर बैरामखाँ को सुनाया करती थी और बैरामखाँ एक-एक कविता के लिये उसे सोने की अशर्फियाँ दिया करता था।
यूँ तो सलीमा बेगम को विधाता ने दिल खोलकर रूप दिया था किंतु सलीमा बेगम जानती थी कि जिस प्रकार अकबर रूप तृष्णा से सलीमा बेगम की ओर ताका करता था, उसके उलट बैरामखाँ सलीमा बेगम के रूप पर कम और उसकी कविता पर अधिक जान छिड़कता था। सलीमा बेगम की लिखी हुई कितनी ही कवितायें बैरामखाँ ने याद कर ली थीं जिन्हें वह गाहे-बगाहे गुनगुनाया करता था। वह स्वयं भी नयी-नयी कविता लिख कर तथा अपने खानदान के और लोगों द्वारा लिखी गयी कविता सलीमा बेगम को सुनाया करता था।
जब कोई नया कवि बैरामखाँ के दरबार में आता तो बैरामखाँ उसकी कविता सलीमा बेगम को भी सुनाने का प्रबंध किया करता था। पूरी पूरी रात कवितायें कहते और सुनते बीत जाती थीं। रहीम की माँ को कविता से कोई लगाव नहीं था। वह बालक रहीम को गोद में लेकर चुपचाप उन दोनों की कवितायें सुनती रहती थी किंतु रहीम कविता में बड़ा रस लेता था। मात्र पाँच साल का होने पर भी वह विलक्षण बुद्धि वाला था। पिता द्वारा एक बार सुनाई गई कविता उसे हमेशा के लिये याद हो जाती थी।[1]
अपने और रहीम के भविष्य को देखते हुए सलीमा बेगम ने चुपचाप अकबर से निकाह कर लिया। ऐसा करने में उसने एक और भलाई देखी। उसे लगा कि एक बार जब वह अकबर के निकट पहुंच जायेगी तो रहीम की माता तथा अन्य बेगमों को भी भली भांति सुरक्षा दे सकेगी। बैरामखाँ के बाकी परिवार को भी संरक्षण प्राप्त हो जायेगा।
माहम अनगा, बाबर की बेटी गुलरुख की औलाद के विरुद्ध एक शब्द नहीं बोल सकी और यह निकाह निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। जब माहम अनगा अकबर को नये विवाह की बधाई देने आई तो अकबर ने दूसरा पासा फैंका। उसने कहा कि अब माह बानू की भी सगाई कर देनी चाहिये। माहम अनगा ने समझा कि बादशाह उसे खुश करने की नीयत से कह रहा है। उसने गंभीरता से नहीं लिया लेकिन उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब अकबर ने पास बैठे रहीम के कंधे पर हाथ मारते हुए पूछा- ‘क्यों मियाँ? क्या खयाल है?’
बालक रहीम तो कुछ नहीं बोला किंतु माहम के चेहरा काला स्याह पड़ गया। अल्लाह जाने बादशाह के मन में क्या है? वह तो सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि बैरामखाँ इस रूप में लौटकर उसे शिकस्त देगा। माहम अनगा कुछ नहीं बोल सकी। निस्तब्ध होकर बादशाह के चेहरे को ताकती रही। अब वह स्तनपान करने वाला बालक न था, हिन्दुस्थान का बादशाह था। उसकी इच्छा के विरुद्ध एक लफ्ज भी निकालने की ताकत किसी में नहीं थी। माहम अपना काला पड़ गया चेहरा लिये अकबर के कक्ष से बाहर हो गयी।
कुछ ही दिनों बाद अब्दुर्रहीम को मिर्जाखाँ की उपाधि दी गयी और उससे माहम अनगा की बेटी माहबानू की सगाई भी कर दी गयी। पराजय से तिलमिलाई माहम ने खाट पकड़ ली। उसका दम भीतर ही भीतर घुटता था किंतु किसी से कुछ कह नहीं सकती थी।
केवल इन दो उपायों से अकबर ने बैरामखाँ के परिवार को पूरी तरह सुरक्षित कर दिया था। इसके बाद न तो हरम सरकार की कोई ताकत रह गयी थी और न उपयोगिता। रहीम के लौट आने के बाद अकबर का जोश लौट आया था और अब वह सारे काम अपनी मर्जी से करने लगा था।
अकबर ने बालक रहीम की शिक्षा के लिये दिल्ली और ईरान के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक नियुक्त किये। तुर्की, फारसी, अरबी, संस्कृत, छंद रचना, गणित, घुड़सवारी, तलवारबाजी, नौका चालन सबके लिये अलग-अलग शिक्षक नियुक्त किये गये। देखते ही देखते कच्ची मिट्टी आकार ग्रहण करने लगी।
रहीम को दो ही काम दिये गये थे। पहला काम था अपने शिक्षकों से शिक्षा ग्रहण करना और दूसरा काम था शिक्षा प्राप्ति के बाद हर दम अकबर की सेवा में हाजिर रहना। अकबर दिन भर रहीम से तरह-तरह के सवाल करता रहता। बालक भी अपनी मति के अनुसार रोचक और रसभरे जवाब देता, जिन्हें सुनकर अकबर का रोम-रोम पुलकित हो उठता। शायद ही कोई जान सकता था कि जब अकबर रहीम से बात कर रहा होता था तो अपने अतालीक बैरामखाँ से बतिया रहा होता था। अकबर ने जो कुछ बैरामखाँ से सीखा था, उसने वह सब भी रहीम को दे दिया। बादशाह के निरंतर सानिध्य से रहीम का व्यक्तित्व निखरने लगा, उसके जवाब बालकों जैसे न होकर सयानों जैसे होने लगे।
दिन प्रति दिन सलीमा बेगम और रहीम के प्रति अकबर का बढ़ता हुआ मोह देखकर अकबर की बेगमों का माथा ठनका। उन्हें अपना और अपने पुत्रों का भविष्य अंधकारमय दिखने लगा। पहले तो वे माहम अनगा से अपने दिल की बात कह लेती थीं किंतु अब तो वह सहारा भी न रहा था।
[1] अब्दुर्रहीम का जन्म जमालखां मेवाती की बेटी के गर्भ से माघ बदी 1, संवत 1613 अर्थात् 17 दिसम्बर 1556 को लाहौर में हुआ था।